2-जी स्पैक्ट्रम के कथित घोटाले पर अदालत का फैसला आने के बाद ही मैंने लिखा था कि न्यायिक लड़ाई को न्यायिक स्तर पर और राजनैतिक लड़ाई को राजनैतिक स्तर पर ही लड़ा जाना चाहिए और न्यायपालिका की स्वतन्त्र सत्ता और निष्पक्षता पर किसी भी राजनैतिक दल को अंगुली उठाने से पूरी तरह बचना चाहिए परन्तु आज चारा घोटाले के एक मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री और राष्ट्रीय जनता दल के सर्वोच्च नेता श्री लालू प्रसाद यादव के खिलाफ रांची की सीबीआई अदालत के फैसले को कुछ लोग जिस तरह राजनीतिक रंग देने का प्रयास कर रहे हैं वह निन्दनीय होने के साथ ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था की गरिमा के विरुद्ध भी है। सवाल यह नहीं है कि 2-जी घपले में सभी आरोपी बरी हो गये और चारा घोटाले में लालू जी के साथ ही अभियुक्त बनाये गये पूर्व मुख्यमन्त्री जगन्नाथ मिश्र छूट गये तथा लालू जी दोषी करार दे दिये गये बल्कि असली सवाल यह है कि अदालत का फैसला क्या है? जो भी अदालत का फैसला आया है उसे सिर झुका कर सभी पक्षों को सम्मान के साथ स्वीकार करना चाहिए और इसमें संशोधन के लिए ऊंची अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए। इसके साथ ही मौजूदा हकीकत को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए।
यदि 2-जी मामले में अदालत ने श्री ए. राजा व श्रीमती कनिमोझी को बेदाग पाया है तो उन्हें तब तक बेदाग ही माना जायेगा जब तक कि ऊंची अदालत से निचली अदालत के फैसले के खिलाफ कोई नया फैसला नहीं आ जाता है और चारा कांड में लालू जी को भी तब तक दोषी ही माना जायेगा जब तक कि ऊंची अदालत उन्हें दोष से मुक्ति नहीं दे देती है। अदालत के फैसलों के खिलाफ जो भी राजनैतिक दल विपरीत अवधारणा बनाने की कोशिश करता है वह लोकतन्त्र के प्रति अपराध से कम नहीं माना जाना चाहिए मगर एेसा लगता है कि कटु राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता उन नैतिक मान्यताओं को तार-तार करने पर उतारू है जो लोकतन्त्र का ‘गहना’ समझी जाती हैं। 2-जी फैसले को लेकर कुछ राजनैतिक लोगों ने जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं दीं वे अनपेक्षित कही जा सकती थीं और आज लालू जी के फैसले पर जिस प्रकार का विवाद पैदा करने की कोशिश की गई वह भी पूरी तरह अकारण और अनपेक्षित है। यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि इस देश के गरीब और अनपढ़ व मुफलिस कहे जाने वाले लोगों को जो कोई भी मूर्ख समझता है उससे बड़ा मूर्ख कोई दूसरा नहीं हो सकता। यह भारत की मिट्टी की तासीर है कि यहां के लोग सच और झूठ को पकड़ने में कभी भी गफलत नहीं करते, कुछ लोग कुछ समय तक ‘मुगालते’ में रह सकते हैं मगर उन्हें लगातार ‘मुगालते’ में रखने की जिसने भी कोशिश की है अन्त में वह स्वयं ‘मुगालते’ में पड़ जाता है। भारत का यही इतिहास है जिसे यकीन न हो वह आजादी की जंग के किस्से उठा कर पढ़ ले।
अतः यह सोचना व्यर्थ है कि अदालती फैसलों की आलोचना करके सच को बदला जा सकता है। यह तो वास्तविकता है कि लालू जी का पूरा परिवार ही भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहा है और यह भी हकीकत है कि उनकी पार्टी एक पारिवारिक दुकान के अलावा और कुछ नहीं है (मगर मैं उनकी लोकप्रियता पर सवाल खड़ा नहीं कर रहा हूं) अतः साफ है कि उनके सत्ता में रहते हुए जो भी गड़बडि़यां हुई हैं उनकी जिम्मेदारी भी उन्हें ही लेनी पड़ेगी, इसमें यह सवाल कहां आता है कि वह एक गरीब घर से उठकर राजनीति में आये या वह पिछड़े वर्ग के हैं? इसमें राजनीतिक बदले की भावना को लाना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भाजपा की सरकार में नहीं लगे हैं बल्कि पुरानी सरकारों के दौरान लगे हैं। इतना जरूर कहा जा सकता है कि वह भाजपा की सरकारों के भ्रष्टाचार के मामलों की तुलना न्यायिक परिसर से बाहर रहकर कर सकते हैं और कह सकते हैं कि मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्रियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच भी तेज गति से होनी चाहिए। हमें राजनीतिक व न्यायिक लड़ाई के भेद को समझना होगा और बिना सोचे-समझे टिप्पणी करने से बचना होगा। लालू जी के मामले में विपक्षी पार्टी कांग्रेस को खासकर इस पार्टी के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को घसीटना न तो समयोचित है और न तार्किक है।
भ्रष्टाचार के आरोपों के घिरे रहे कई नेताओं के दलबदल करने से उनके दागों को धोया जाना मुमकिन नहीं है। राजनीतिक दलों के गठजोड़ और गठबन्धन व्यक्तिगत समीकरणों से ऊपर होते हैं। यदि एेसा न होता तो आज जम्मू-कश्मीर में भाजपा व पीडीपी का गठबन्धन न होता और पूर्व मंे इमरजेंसी के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने जनसंघ की शिरकत वाली जनता पार्टी के साथ कांग्रेस की मुखालफत न की होती। इससे पूर्व 1967 में कम्युनिस्ट व जनसंघ एक साथ कई राज्यों की ‘गैर कांग्रेसी’ सरकारों में शामिल न हुए होते। इसी प्रकार 1998 में बने ‘एनडीए’ में लगभग डेढ़ दर्जन दल शामिल न हुए होते मगर आज का मूल विषय यह है कि निजी भ्रष्टाचार के मामलों का राजनीतिकरण न किया जाये। इस मामले में लालू जी की पार्टी के नेताओं को ही एेहतियात बरतनी होगी और कानून की लड़ाई को कानून से ही लड़ना होगा। ‘लालू-राबड़ी’ के शासन को जंगलराज से नवाजा गया था। लालू जी की पार्टी यह किस आधार पर कह सकती है कि वह कानून की लड़ाई को राजनीतिक लड़ाई मानती है जबकि अदालत में तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला होता है और ऊंची से ऊंची अदालत में जाकर न्याय पाने का रास्ता खुला रहता है। अतः जो भी बोलें कृपया लोकतन्त्र के सिपाही के तौर पर बोलें क्योंकि केवल यही व्यवस्था है जो गरीब से गरीब और पिछड़े से पिछड़े व्यक्ति को भी सत्ता के सिंहासन पर बिठा देती है। जरूरी है कि इस व्यवस्था का पूरी ताकत से संरक्षण किया जाये।