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कानून-व्यवस्था और राज्य

संविधान निर्माताओं ने जब कानून-व्यवस्था को राज्यों का विशिष्ट अधिकार बनाया तो लक्ष्य बहुत स्पष्ट था कि प्रत्येक प्रदेश की चुनी हुई सरकार सर्वप्रथम अपने लोगों को सम्पूर्ण सुरक्षा प्रदान करा कर उन्हें निर्भय होकर अपनी प्रजातान्त्रिक जिम्मेदारियां पूरी करने के लिए प्रेरित करे।

संविधान निर्माताओं ने जब कानून-व्यवस्था को राज्यों का विशिष्ट अधिकार बनाया तो लक्ष्य बहुत स्पष्ट था कि प्रत्येक प्रदेश की चुनी हुई सरकार सर्वप्रथम अपने लोगों को सम्पूर्ण सुरक्षा प्रदान करा कर उन्हें निर्भय होकर अपनी प्रजातान्त्रिक जिम्मेदारियां पूरी करने के लिए प्रेरित करे।
समाज में सौहार्द व भाईचारा बनाये रख कर ही यह जिम्मेदारी पूरी की जा सकती थी। अतः स्वतन्त्र भारत में पुलिस की भूमिका में बदलाव किया गया और यह जनता की सेवक बताई गई और इसे ‘पब्लिक सर्वेंट’ कहा गया। अतः इसकी प्रतिबद्धता संविधान या कानून के प्रति तय की गई।
अंग्रेजी शासन के दौरान काम करने वाली पुलिस के चरित्र में यह आधारभूत बदलाव था जिसकी जिम्मेदारी केवल सत्ता पर काबिज अंग्रेज हुक्मरानों की हुकूमत कायम रखना था। आजाद हिन्दोस्तान में यह भूमिका बदल दी गई और पुलिस पर कानून का शासन बनाये रखने हेतु कार्य करने की जिम्मेदारी डाली गई।
यह व्यवस्था भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पूरे देश में स्थापित करते हुए स्पष्ट किया कि जनता के शासन में पुलिस भी उसके द्वारा चुने गये जन प्रतिनिधियों के प्रति जवाबदेह होगी जिससे अपराधी व असामाजिक तत्वों की पहचान करने में जनसहयोग मिल सके।
भारत में बहुदलीय राजनैतिक प्रशासनिक प्रणाली की संवैधानिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए ही हमारे पुरखों ने यह रास्ता बनाया और सुनिश्चित किया कि चुनी हुई राज्य सरकारें हर परिस्थिति में उनके द्वारा तय किये गये प्रावधानों का पालन करते हुए अपने-अपने राज्यों में लोगों को सुरक्षा का वातावरण दें परन्तु आज उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र, कर्नाटक और प. बंगला तक जिस प्रकार की स्थिति बनी हुई है उसे लेकर कई प्रकार की आशंकाएं उठ रही हैं और राज्य सरकारों पर पुलिस को अपने इशारे पर घुमाने के आरोप लग रहे हैं।
कई मामलों में राज्यपाल भी इस विवाद में कूद रहे हैं। राज्यपालों की ऐसे मामलों में भूमिका हमारे संविधान में बहुत स्पष्ट है  कि वे रोजाना की प्रशासनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करने से गुरेज करें और चुनी हुई सरकारों को अपना कर्त्तव्य निर्वहन करने दें।
परन्तु चिन्ता तब पैदा होती है जब किसी राज्य में अपराध हो जाने पर प्रशासन  अपराधी पक्ष का बचाव करने की नीयत प्रकट करता है और पीड़ित पक्ष के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के स्थान पर उसे उत्पीड़न का भय दिखाता है। उत्तर प्रदेश के हाथरस कांड में यही हुआ जब जिला प्रशासन ने सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई मृत युवती के परिजनों को डराने-धमकाने की कोशिश की।
अभी बलिया में जिस प्रकार एक अपराधी पुलिस की मौजूदगी में ही एक व्यक्ति को गोली मार कर फरार हुआ और बाद में उसकी गिरफ्तारी हुई उससे भी यही सन्देश गया कि पुलिस कानून के प्रति जिम्मेदारी न निभा कर अन्य प्रभावों के तहत काम कर रही है। इस मामले में अपराधियों का पक्ष लेने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने जिस तरह अपने विधायक सुरेन्द्र सिंह को तलब किया है वह स्वागत योग्य कदम है क्योंकि ऐसा करके सुरेन्द्र सिंह ने अपने जन प्रतिनिधि होने के रुतबे को अपमानित किया है।
लोकतन्त्र में जन प्रतिनिधि की भूमिका किसी सीमा में नहीं बन्धी होती बल्कि वह समाज के हर क्षेत्र में न्याय की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध होता है। अपराधी का पक्ष लेते ही वह स्वयं इस श्रेणी में आ जाता है। दूसरी तरफ हम महाराष्ट्र में देखें तो वह फिल्म अभिनेत्री के विरुद्ध अदालत के आदेश पर दो समुदायों या सम्प्रदायों में वैमनस्य या रंजिश पैदा करने की गरज से की गई बयानबाजी के विरुद्ध पुलिस ने विभिन्न धाराओं  में एफआईआर दर्ज की है।
यह निश्चित है कि लोकतन्त्र केवल सुविचारित बयानों से ही चलता है क्योंकि इनके जरिये ही यह अपना भविष्य तय करता है परन्तु इसके साथ यह भी हर नागरिक के लिए जरूरी होता है कि वह अपना बयान देते समय कोई ऐसा विचार प्रकट न करे जिससे हमारे संविधान के आधारभूत मानकों का खंडन हो।
इस मामले में गृह मन्त्री श्री अमित शाह का यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है जो उन्होंने इस राज्य के राज्यपाल व मुख्यमन्त्री के बीच पिछले दिनों हुए पत्राचार के बारे में दिया है। श्री शाह ने कहा है कि राज्यपाल अपने पत्र में बेहतर शब्दों का प्रयोग कर सकते थे।
जहां तक प. बंगाल का सम्बन्ध है तो इस राज्य के राज्यपाल श्री जगदीप धनखड़ ने राज्य की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी के साथ मुठभेड़ का जो माहौल सामान्य प्रशासनिक प्रक्रियाओं को लेकर बना रखा है, उसका संज्ञान आम नागरिक गंभीरता के साथ नहीं ले रहा है जिसकी वजह उनका सामान्य राजनैतिक आचरण माना जा रहा है।
राज्यपालों की गरिमा तभी तक रहती है जब तक कि वे अपने पद को मिले संवैधानिक अधिकारों की सीमा में रहते हैं वर्ना हम जानते हैं कि स्व. राजीव गांधी के शासनकाल में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल ठाकुर रामलाल को किस-किस नाम से पुकारा गया था।
उन्होंने आन्ध्र के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. एन. टी. रामाराव की पूर्ण बहुमत वाली सरकार को, उनकी पार्टी तेलगूदेशम में हुए कृत्रिम बंटवारे का सहारा लेकर, बर्खास्त करके विद्रोही गुट के नेता भास्कर राव को मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिला थी मगर एक सप्ताह के भीतर ही पुनः श्री रामाराव को मुख्यमन्त्री बनाना पड़ा था ले​किन तब से लेकर अब तक व्यावहारिक राजनीति के चरित्र में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है मगर पूरे मामले में पुलिस की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि कानून-व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी व्यावहारिक स्तर पर उसी पर आती है।
राज्यों में अपने राजनीतिकरण को रोकने के लिए उसके पास बेशक ज्यादा विकल्प नहीं बचते हैं परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं होता कि वह किसी राजनैतिक दल की पुलिस बन जाये क्योंकि उसे हर अपराधी को अन्ततः न्यायालय ही लेकर जाना पड़ता है और न्यायालय केवल कानून की भाषा ही समझते हैं।
-आदित्य नारायण चोपड़ा

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