आदमी घर में बन्द, कारखाने खामोश, बाजार वीरान, अदालतें चुप और सड़कें सुनसान। जाहिर है ये हालात बहुत ज्यादा लम्बे समय तक किसी भी देश की अर्थ-व्यवस्था से लेकर सामाजिक संरचना पर बोलचाल की भाषा में लागजाम लगा सकते हैं, परन्तु कोरोना वायरस से लड़ने के लिए ऐसा करना इसलिए जरूरी था जिससे आम आदमी की जिन्दगी बच सके।
जान की खातिर जहान को छोड़ना ही अक्लमन्दी थी क्योंकि कोरोना ने चैलेंज फैंक रखा था कि बाहर निकल कर देख! दरअसल कोरोना जैसे अदृश्य शत्रु के खिलाफ यदि चतुरता भरी चालें न आजमाई गई होतीं तो आज भारत में इसके मरीजों की संख्या एक लाख के करीब पहुंची होती। यह मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि भारत सरकार के विशेषज्ञों की पुख्ता राय है। इन मरीजों की संख्या अगर आज 24 हजार के करीब है तो इसकी वजह 25 मार्च से लागू हुआ लाॅकडाऊन है जिसे लागू हुए अब एक महीना हो चुका है और अभी नौ दिन और बाकी हैं मगर इन्हीं विशेषज्ञों की राय है कि पिछले तीन दिनों से नये कोरोना मरीजों की संख्या दुगनी होने का औसत दस दिन के करीब आ चुका है जिसके मई के पहले सप्ताह तक 15 दिन होने की उम्मीद है। इसे लाॅकडाऊन का नतीजा माना जा सकता है।
इसके साथ ही देश के सात सौ में से केवल दो सौ से कुछ अधिक जिलों में ही कोरोना के मरीज पाये गये हैं और इनमें से भी अब 78 जिले ऐसे हैं जहां पिछले 14 दिनों में एक भी नया मरीज नहीं पाया गया है। पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि भारत के नागरिकों ने लाॅकडाऊन की शर्तों का पालन करने में कोताही नहीं की है और गांवों तक में दो गज की दूरी रख कर जरूरी कामों को अंजाम दिया है। कहा जा सकता है कि लाॅकडाऊन एक जन आन्दोलन के रूप में भारत में लागू करने में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सफलता प्राप्त की क्योंकि बिना किसी शक के वह ही कोरोना के विरुद्ध लड़े जा रहे युद्ध के सेना नायक हैं परन्तु देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने अपनी कार्य समिति की बैठक में कहा है कि केन्द्र सरकार को अब लाॅकडाऊन से बाहर आने की रणनीति घोषित करनी चाहिए जिससे देश की अर्थ व्यवस्था का चक्का घूमे और किसानों से लेकर मजदूर व कामगर अपने-अपने काम पर लौट सकें।
पार्टी की राय में सम्पूर्ण लाॅकडाऊन केवल उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रहना चाहिए जिन्हें कोरोना ग्रस्त घोषित करके अलग-थलग किया गया है। शेष इलाकों में सावधानी बरतते हुए सामान्य गतिविधियां शुरू करने की छूट दी जानी चाहिए। कांग्रेस का कमोबेश कहना यह लगता है कि 3 मई के बाद लाॅकडाऊन लागू नहीं रहना चाहिए। इसके लिए उसने तजवीज पेश की है कि विभिन्न राज्य सरकारों पर यह जिम्मेदारी छोड़ी जाये कि वे अपने-अपने प्रदेशों में हालात के मद्देनजर क्या और कैसे कदम उठाना जरूरी समझती हैं। ख्याल बुरा नहीं है क्योंकि आर्थिक चक्का घूमे बिना आम आदमी का गुजारा होना मुश्किल होता है मगर सवाल यह है कि इनमें से कुछ मांगें तो 14 अप्रैल के बाद लागू हुए लाॅकडाऊन के दूसरे चरण के साथ पहले से ही मानी जा चुकी हैं, मसलन ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों की आंशिक छूट है लेकिन जमीन पर इन्हें लागू करने में ऐसी शर्तें हैं जिनका पालन कठिन हो रहा है।
जैसे शहर की पालिका सीमा के बाहर कुछ कारोबारी गतिविधियों को चालू करने की अनुमति। दिक्कत यह है कि किसी भी व्यवसाय या उद्योग में एक का पुर्जा दूसरे के पुर्जे से मिला होता है, मसलन किसी फैक्टरी में बने माल की बाजार में बिक्री तभी होगी जब उस माल को बेचने वाली दुकानें खुली होंगी और उन तक सप्लाई करने वाला पूरा तन्त्र हरकत में होगा। यह मामला केवल उद्योग या व्यवसाय जगत का ही नहीं है बल्कि न्याय जगत तक की हालत भी एेसी ही है। अदालतों में न जाने कितने जरूरी मुकद्दमें लटके पड़े हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिनके फैसलों से हजारों लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है। पक्के तौर पर इनमें वकील भी शामिल हैं लेकिन अदालतें लगभग खामोश हैं क्योंकि लाॅकडाऊन के चलते सामान्य कामकाज होना असंभव है। सबसे ज्यादा खराब हालत रोज कमा कर खाने वाले करोड़ों परिवारों की है। उन मजदूरों की हालत भी बदतर बनी हुई है जो खैरात में मिली दाल-रोटी पर जिन्दा हैं मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि लाॅकडाऊन लागू करने से आम जनता का भला नहीं हुआ है।
सबसे बड़े भले का अन्दाजा तो इसी हकीकत से लगाया जा सकता है कि अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश में अब तक 44 हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा गये हैं और वहां लाखों की संख्या में मरीज अस्पतालों के चक्कर काट रहे हैं या भर्ती हैं। उचित समय पर लाॅकडाऊन लागू करके मोदी सरकार ने जिस बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है उसी प्रकार वह इसे हटाने में भी बुद्धिमत्ता दिखायेगी, प्रधानमन्त्री पर इतना विश्वास लोगों को है। अतः कांग्रेस पार्टी को जरूरत से ज्यादा आंसू बहाने की जरूरत नहीं है। हां इतना जरूर है कि लाॅकडाऊन से निपटने के लिए सरकार को एक राष्ट्रीय योजना भी बनानी चाहिए थी जिसका प्रावधान उसी आपदा प्रबन्धन कानून- 2005 में है जिसके तहत कोरोना को महामारी घोषित किया गया है।
राष्ट्रीय योजना के तहत राहत पैकेज पूरी अर्थ व्यवस्था को सुचारू रखने के लिए जरूरी होता है और इसी वजह से कानून में इसका प्रावधान किया गया था। यह कानून डा. मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान जनवरी 2005 में एक अध्यादेश के जरिये तब लाया गया था जब दिसम्बर 2004 में आये समुद्री तूफान ने भारी तबाही मचाई थी और इसके बाद बीमारी फैलने का खतरा पैदा हो गया था। अतः इन सभी पहलुओं पर विचार करते हुए ही आगे की रणनीति तैयार की जानी चाहिए लेकिन सबसे प्रमुख यह है कि आम जनता के हाथ में पैसा हो जिससे वह अर्थ व्यवस्था का पहिया नीचे से ऊपर को घुमा सके। लाॅकडाऊन की नकारात्मकता को तोड़ने का यही सबसे बड़ा हथियार है जिसमें उद्योग जगत भी शामिल है। वित्तमन्त्री को आपदा प्रबंधन कानून का अध्ययन पुनः दिल लगा कर करना चाहिए।