माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सज़ा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफ़ियाओं को मौत का सामना करना पड़ा है। फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चली गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर उत्तर प्रदेश से एक-एक करके सभी माफ़ियाओं का सफाया करवा रही है या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक- एक करके मौत के घाट उतार रहे हैं, तो ये अर्धसत्य होगा।
आज़ादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गईं। जब अपराधियों को ये समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औज़ार क्यों बनें? हम ख़ुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएं? बस फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहुबल के ज़ोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे मवाली आज के राजनेता बन गये। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे।
जब क़ानून बनाने वाले ख़ुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी क़ानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के ख़िलाफ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएं, बदलता कुछ भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर ये दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या इस पर पूर्ण रूप से विश्वास किया जा सकता है। हां ये ज़रूर है कि कानून व्यवस्था में सुधार हुआ है और सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं उन पर योगी सरकार में रोक जरूर लगी है।
90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफसरों व न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है। बावजूद इसके आज तक किसी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफ़ारिशें आजतक धूल खा रही हैं।
ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। ये तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज़्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फ़ीसद ही लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सज़ा दी जाए। यह सब होने के बावजूद भी समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को अपराध करना अनुचित नहीं लगता। उसके लिए यह सहज प्रक्रिया होती है।
जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज़ लोगों को काल के मुंह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज़ लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ्त में आ गये। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए। इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सज़ा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आंखें खुल गयीं और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गये। पुराणों और इतिहास के ये सभी उदाहरण उन अपराधियों के लिए हैं जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पीकर आए हैं और जो कर रहे हैं वो अपने परिवार की ख़ुशी के लिये ही कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही उनका और समाज का भला होगा।
– विनित नारायण