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पटरी पर लौटती जिन्दगी लेकिन…

कोरोना महामारी के दिन बरसों तक याद रहेंगे। ये बुरे दिन कितने लम्बे चलेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता। जिन्दगी जीने के दो तरीके होते हैं, पहला जो पसंद है उसे हासिल करना और दूसरा जो हासिल है, उसके साथ जीना।

‘‘जिन्दगी में कभी बुरे दिन से
सामना हो जाए तो,
इतना याद जरूर रखना
दिन बुरा था जिन्दगी नहीं।’’
कोरोना महामारी के दिन बरसों तक याद रहेंगे। ये बुरे दिन कितने लम्बे चलेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता। जिन्दगी जीने के दो तरीके होते हैं, पहला जो पसंद है उसे हासिल करना और दूसरा जो हासिल है, उसके साथ जीना। विषम परिस्थितियों में जो हमारे पास है, हमें उसके साथ ही जीना सीखना होगा। लॉकडाउन 4-0 के दौरान ही बहुत कुछ खुलने लगा है। ट्रेनें पटरी पर दौड़ने लगी हैं, रेलवे टिकटों के लिए आरक्षण केन्द्रों की खिड़कियां खुल चुकी हैं। 
आज खामोश हो गए आकाश में विमानों की उड़ानों की गूंज सुनाई देने लगी है। सन्नाटे को चीर कर विमान गंतव्य स्थानों पर लैंडिंग करने लगे हैं। स्थितियां नियंत्रण में रहीं तो कुछ दिनों बाद अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें भी शुरू की जा सकती हैं। ट्रेन और हवाई सेवाएं शुरू होने से कई शहरों में फंसे लाखों लोग अपने घरों को लौटकर सकून प्राप्त कर सकेंगे। अगले दस दिनों में 2600 श्रमिक ट्रेनें चलाई जाएंगी, जिनमें 36 लाख यात्री सफर कर सकेंगे। एक मई से शुरू की गई ट्रेनों से अब तक 45 लाख मजदूर सफर कर चुके हैं। 80 फीसदी ट्रेनें उत्तर प्रदेश और ​बिहार के लिए थीं।
कोरोना महामारी के चलते देश में मजदूरों का पलायन आजादी के समय के बाद पहला बड़ा पलायन है। सबसे ज्यादा संकट तो मजदूरों ने झेला है। लाखों श्रमिकों ने 300 से लेकर 600 किलोमीटर की यात्रा पैदल तय की है। किसी के पांव में चप्पल नहीं, किसी के पास कपड़े नहीं, जो रास्ते में मिला, वह खा लिया और छोटे-छोटे बच्चों को उठा चल दिए घरों की ओर। बहुत से चित्रों ने दिल और दिमाग को झिंझोड़ कर रख दिया। सड़क हादसों ने अनेक जिन्दगियां लील लीं। कुछ ट्रेनों से कट गए। कोई साइकिल पर परिवार को ले जा रहा है, तो कोई बच्चों को सूटकेस पर बैठाकर घसीट रहा है। कोरोना वायरस के फैलने से पहले देश में हर रोज लगभग 13 हजार ट्रेनों का परिचालन होता था और करीब 2.3 करोड़ यात्री सफर करते थे। रेलवे का नेटवर्क भारतीय परिवहन तंत्र की रीढ़ की हड्डी माना जाता है। तभी तो ट्रेनें चलाने की घोेषणा के बाद सिर्फ दो घंटे में ही चार लाख टिकट बिक गए थे। हवाई अड्डे भी यात्रियों सेे ठसाठस भरे रहते थे।
जीवन को बांध कर नहीं रखा जा सकता। अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए ट्रेन और ​िवमान सेवाओं को खोलना भी जरूरी है। देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं जिनकी जीविका परिस्थितियों के इर्दगिर्द की गतिविधियों पर निर्भर करती है। ट्रेन सेवाओं का परिचालन उनके ​लिए नई उम्मीद है लेकिन कोरोना के संक्रमण का खतरा कम नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में सोशल डिस्टेंसिंग जैसे सुरक्षा उपायों में कोई चूक होती है तो लॉकडाउन में संयम से जो कुछ भी हासिल किया है उसे हम गंवा सकते हैं। हर नागरिक को जिम्मेदार नागरिक की तरह सुरक्षा उपायों को अपना कर यात्रा करनी चाहिए और सभ्य व्यवहार करना चाहिए लेकिन जो दृश्य सामने आए हैं, वह काफी भयानक हैं और ऐसा लगता है कि लोग खुद महामारी को न्यौता दे रहे हैं। बिहार में  बहुत कुछ ​ठीक नहीं। उत्तर प्रदेश में भी संक्रमण फैलने का डर बना हुआ है। बिहार में अभी तक साढ़े 9 लाख के करीब ट्रेनों से मजदूर पहुंच चुके हैं इनमें अधिकांश प्रवासी मजदूर ही कोरोना संक्रमण के मरीज निकल रहे हैं। यह आंकड़ा तो आधिकारिक है जो तीन लाख से ज्यादा मजदूर पैदल बिहार लौटे हैं, उनके संबंध में कोई अता-पता नहीं है। मैडिकल विशेषज्ञों की यही राय है कि आने वाले वक्त में बि​हार महाराष्ट्र और गुजरात को मात देकर हॉटस्पाॅट बन सकता है। अभी 10 लाख के करीब और मजदूरों को ​बिहार लौटना है। बिहार में मरीजों का डबलिंग रेट सबसे तेज हो गया है। स्थिति बद से बदतर हो रही है। बिहार में वैसे भी मैडिकल सुविधाओं का अभाव है। घरों को लौटना प्रवासी मजदूरों के लिए अच्छी खबर है लेकिन यह अच्छी खबर बिहार और उत्तर प्रदेश के लिए मुसीबत बन सकती है। लॉकडाउन लागू करने से ज्यादा बड़ी चुनौती उसे खत्म करने की है।
घरेलू हवाई सेवाओं का शुरू होना यात्रियों की सुविधा और कारोबारी दृष्टि से अच्छा है। विमान यात्रियों को हिदायतों और नियमों का पालन करने में कोई हिचक महसूस नहीं होनी चाहिए। उड़ानें शुरू होने से विमानन कम्पनियों ने राहत की सांस ली होगी और कर्मचारियों को भी बड़ी राहत मिली, जिनकी नौकरियों पर संकट मंडरा रहा था। विमान कम्पनियों को 25 हजार करोड़ के नुक्सान की आशंका जताई जा रही है। सवाल उन मजदूरों का भी है जिन्हें घर पहुंचाने के नाम पर ट्रक वालों ने लूटा है। श्रमिकों को चाहिए कि ट्रेनें चल पड़ी हैं तो थोड़ा संयम से काम लें, दो गज की दूरी बनाकर कार्य करें। शहर वालों को भी समझना होगा कि मजदूरों के बिना न शहर चलेंगे, न शहरी जीवन ही चलेगा, फैक्ट्रियां भी नहीं चलेंगी, कारखाने भी नहीं चलेंगे, दुकानें और मॉल भी नहीं चलेंगे। फिर भी मजदूरों की दुर्दशा देखी नहीं जा सकती। सभी को चाहिए जो उसे अब तक हासिल है, उसी के साथ जीना सीखें आैर सुरक्षा उपायों को अपनी आदत बनाएं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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