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‘जान’ भी ‘जहान’ भी

देश के सभी राज्यों के मुख्यमन्त्रियों के साथ चली चार घंटे तक की अपनी वीडियो बैठक के दौरान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘जान है तो जहान है’ मुहावरे को अगली तार्किक उक्ति से जोड़ते हुए जब यह कहा कि ‘जान भी जहान भी’ तो स्पष्ट संकेत मिल गया

देश के सभी राज्यों के मुख्यमन्त्रियों के साथ चली चार घंटे तक की अपनी वीडियो बैठक के दौरान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘जान है तो जहान है’  मुहावरे को अगली तार्किक उक्ति से जोड़ते हुए जब यह कहा कि ‘जान भी जहान भी’  तो स्पष्ट संकेत मिल गया कि कोरोना से मुकाबला करने के लिए आगे बढ़ाये जाने वाले लाॅकडाऊन का चेहरा ‘मानवीय’ होगा जिसमें रोजाना दिहाड़ी करने वाले मजदूरों से लेकर किसानों, कामगारों, दस्तकारों व छोटे दुकानदारों तक की मुश्किलों का पूरा ध्यान रखा जायेगा। यह संयोग नहीं है कि जब श्री मोदी मुख्यमन्त्रियों के विचार जान रहे थे तो वित्तमन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन अपने दफ्तर में वरिष्ठ वित्त अधिकारियों के साथ  अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाये रखने के उपायों पर गहन विचार-विमर्श कर रही थीं। इससे जाहिर होता है कि सरकार गरीब व अल्प आय के जरिये अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींचने वाले करोड़ों लोगों की मदद का दूसरा पैकेज तैयार करने में लगी हुई है जिसकी घोषणा लाॅकडाऊन बढ़ाने के समानान्तर ही हो सकती है। ‘जान भी जहान भी’ का अर्थ यही है।  वैसे तो सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री अपने प्रदेशों की जनता की मुश्किलों का ध्यान रखते हुए लाॅकडाऊन को लागू कर रहे हैं और इस लक्ष्य के साथ कर रहे हैं कि अधिकाधिक लोग कोरोना के प्रकोप से बच सकें परन्तु प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता दीदी का अन्दाज  निराला रहता है और उन्होंने शुरू से ही लाॅकडाऊन का चेहरा अपने राज्य में ‘मानवीय’ रखने का प्रयास किया। उनकी खूबी यह है कि वह हर काम की तह में जाकर प्रबन्धन देखती हैं और जहां अफसर लोग हिचकिचाते हैं वहां खुद ही योद्धा बन कर खड़ी हो जाती हैं। उनका सरकार चलाने का यह ढंग लोकतन्त्र में उन्हें जमीन की बेटी साबित करता है हालांकि उनके इस तरीके को लेकर अक्सर गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं और विरोधी अफवाहों का बाजार भी गर्म कर देते हैं। प्रधानमन्त्री के साथ हुई बैठक से एक तथ्य यह भी छन कर बाहर आया कि अधिसंख्य मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि लाॅकडाऊन बढ़ाने की घोषणा केन्द्र सरकार स्वयं करे और सभी राज्य उसका पालन करें। संकट की घड़ी में राज्यों का यह मत भारत के ‘राज्यों का संघ’ होने की संरचना के सूत्र को सशक्त करता है और एेलान करता है कि इस देश के संविधान में उल्लिखित  विविधता ‘सम्पूर्णता में एकनिष्ठता’ को आत्मसात करने की अनुपम अनुकृति है। इससे यह सन्देश भी पूरी दुनिया को जाता है कि हम भारत के लोग राजनीतिक विचारों में मतभिन्नता रख कर भी राष्ट्र सेवा के एक रास्ते पर खड़े होने में संकोच नहीं करते। प्रधानमन्त्री 130 करोड़ भारतीयों के सर्वोच्च नेता राजनीतिक रास्तों के अलग-अलग होने के बावजूद हो सकते हैं। यही भारत के महान लोकतन्त्र की खूबी है जिसे पूरी दुनिया ‘सबसे बड़ा लोकतन्त्र’ कहती है। अतः कोरोना से युद्ध का आगे का सफर ‘जान भी जहान भी’ के उद्घोष के साथ होगा और हर व्यक्ति की जान की सुरक्षा के प्रयास में उसकी  जीवनोपयोगी जरूरतों का ध्यान रखा जायेगा और उसकी जेब में जिन्दगी जीने के लिए जरूरी पैसा भी होगा मगर हमें ध्यान रखना होगा कि कोरोना को परास्त करने का एकमात्र रास्ता सामाजिक अलहदगी है और इस पर किसी प्रकार का समझौता करने का मतलब लड़ाई हार जाने के बराबर होगा। अतः लाॅकडाऊन की अवधि बढ़ने से जरा भी घबराने की जरूरत नहीं है बल्कि इसके नियमों का पालन करते हुए अपनी दैनिक जरूरतों पर भी नियन्त्रण रखना है। 
 कुछ राज्यों के मुख्यमन्त्रियों, जिनमें छत्तीसगढ़ के श्री भूपेश बघेल,  राजस्थान के अशोक गहलौत व मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं, ने प्रधानमन्त्री से बढ़ाये जाने वाले लाॅकडाऊन के दौरान कुछ बुनियादी रियायतें देने की मांग की है। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों को छूट देने से लेकर छोटे दुकानदारों को कारोबार करने की इजाजत देना शामिल है। यह मांग व्यावहारिक है क्योंकि गांवों में अब रबी की फसल की कटाई होनी है। गेहूं व चना खेतों में पक कर तैयार खड़ा है। गांवों के कुटीर उद्योग सुनसान हैं। आखिरकार घर में बैठ कर इन पर निर्भर लोग कब तक खा सकते हैं। इसी प्रकार शहरों में रेहड़ी लगा कर, फेरी करके सामान बेच कर हुई आमदनी से अपना घर चलाने वाले लोग किस तरह अपने परिवारों का पेट पाल सकते हैं। मध्यम दर्जे के कारखानों में कार्यरत लोग बिना तनख्वाह के कैसे जीवन की गाड़ी खींच पायेंगे? लाॅकडाऊन का  ‘जहान भी’  पक्ष यही है। उम्मीद है कि निर्मला सीतारमन इस तरफ ध्यान देते हुए नये पैकेज की घोषणा करेंगी और श्रमिक मूलक उद्योगों को भी राहत प्रदान करेंगी जिससे कोई भी भूखा न रह पाये।
 इसके साथ ही धर्म के नाम पर सामाजिक पारा बढ़ाने वाले लोगों को सोचना होगा कि धार्मिक उत्सव या समागम इंसानों को सद्बुद्धि प्रदान करने के लिए होते हैं और अपना जीवन बेहतर बनाने के लिए होते हैं। 13 अप्रैल को चाहे बैसाखी का त्यौहार हो या 23 अप्रैल से शुरू होने वाला रमजान का महीना हो, उन्हें लाॅकडाऊन के नियमों का पालन करते हुए यही सोच कर मनाया जाना चाहिए कि ‘जान है तो जहान है’ क्योंकि इसका पालन करते हुए ही तो हम ‘जान भी जहान भी’ तक पहुंच पायेंगे। दुनियादार आदमी के लिए सबसे पहले दुनियावी उसूलों की वह पाबन्दी लाजिमी होती है जिससे किसी दूसरे आदमी को नुकसान न पहुंचे।
भारत का लोकतन्त्र इसी सिद्धान्त पर टिका हुआ है और संविधान में इसी बाबत ऐसे प्रावधान किये गये हैं जिससे भारत की बहु भाषा-भाषी, विविध परंपराओं को मानने वाले लोग एक सूत्र में पिरे रहें और भारतवासी कहलायें। इस नियम से कोई धर्म ऊपर नहीं है मजहबी रवायतें ‘मुल्क और खल्क’ के वजूद से होती हैं क्योंकि रवायतें खुदा या भगवान को पाने के लिए ही बनी हैं और कोरोना ने चुनौती फैंक दी है कि अपने पड़ोसी को बचाने के लिए खुद को ‘अलहदगी’ में समेट लो क्योंकि कोरोना ने अगर एक बार किसी को छू लिया तो बात बिगड़ कर रहेगी और उसे  छूने वाले को भी वह नहीं बख्शेगा।
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करो किन कोय 
 रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।

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