सद्भाव के दीपक जलाएं
दीपावली यानि प्रकाश का पर्व। दीये की रोशनी से अंधकार का नाश होता है। ये अन्धकार अज्ञानता और नकारात्मकता का प्रतीक है। आध्यात्मिक दृष्टि से दीपक का प्रकाश आत्मज्ञान और सत्य की विजय का प्रतीक है। यह त्यौहार हमें यह सिखाता है कि हमें अपने जीवन में सत्य और ज्ञान के प्रकाश को जलाए रखना चाहिए ताकि अज्ञानता और अधर्म का अंधकार दूर हो सके। दीये की यह रोशनी हमारे भीतर की अच्छाइयों का भी प्रतीक है जिसे हमें हर समय जलाए रखना चाहिए। यह वही दिन है जब श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे थे और यह वही दिन है जब नचिकेता यमराज से ज्ञान लेकर पृथ्वी पर वापस आया था। इस तरह से देखें तो यह दिन कई सारी महत्वपूर्ण घटनाओं को समेटे हुए है, जो किसी न किसी बात का प्रतीक हैं। मिट्टी के दीपक जलाना ना सिर्फ प्रकृति के लिए अनुकूल है, बल्कि इससे सुख-समृद्धि और शांति भी आती है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना पंचतत्वों से हुई है। जिसमें जल, वायु, आकाश, अग्नि और भूमि शामिल है। मिट्टी का दीपक भी इन पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है।
इस बार की दीपावली देशवासियों के लिए खास है। 500 वर्ष के संघर्ष के बाद पहली बार प्रभु राम के विराजमान होने के बाद भव्य श्रीराम मंदिर, पूरी नगरी अयोध्या आैर सभी घाट चमक-दमक रहे हैं।
‘‘सजा दो घर को गुलशन सा मेरे सरकार आए हैं,
बजाओ ढोल स्वागत में मेरे घर राम आए हैं।’’
इस तरह के भजन प्रभु राम की नगरी में चारों तरफ गूंज रहे हैं। अयोध्या में दीपावली के उत्सव के दौरान लाखों दीपक जलाए गए। पूरी नगरी त्रेता युग का एहसास दिलाती है। अलौकिक, अद्भुत, भव्य आैर दिव्य पर्व की अनुभूति हुई।
दीपावली िमलन का उत्सव है। यह सृजन का उत्सव है। यह दीपोत्सव अंधेरों के खिलाफ लड़ने का पर्व है। तब स्वाभाविक ही समाज के अंधेरों की समीक्षा की जानी चाहिए।
समाज जिस तेजी से तकनीक के मामले में आधुनिक होता जा रहा है उसी तेजी से आपसी संबंधों के मामले में पिछड़ता जा रहा है। एक तरफ लोग इस बात से प्रसन्न हैं कि देश मंगल तक जा पहुंचा है लेकिन इस बात के लिए दुखी नहीं है कि रिश्तों के नाम पर समाज रसातल में जा रहा है। लोग बड़े ही गर्व के साथ अक्सर यह बताते हैं कि वे सुदूर देशों में रहने वाले लोगों के साथ संपर्क में हैं, मगर इस बात से हीन भावना महसूस नहीं होती कि उन्हें अपने पड़ोसी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वे विदेशी संस्कृति को अपनाए जाने के जबर्दस्त समर्थक दिखते हैं लेकिन अपने ही देशवासियों के साथ सौहार्द स्थापित करने में पीछे रह जाते हैं। जिनके लिए गलत तौर-तरीकों और अनैतिक कामों में फिजूलखर्ची करने, जाम छलकाने या पार्टियों-समारोहों में एक झटके में लाखों रुपए फूंक देना ‘स्टेटस सिंबल’ होता है, वे सामाजिक सद्भाव, अपनत्व, भाईचारा बढ़ाने वाले त्याैहारों-पर्वों के आयोजनों को ढकोसला बताने से नहीं चूकते हैं। दरअसल, अब त्यौहारों को सामाजिक उत्सव के तौर पर नहीं, बल्कि हिंदू-मुस्लिम के दायरे में रखकर मनाया जाता है। स्त्री-पुरुष और धर्मनिरपेक्षता या सांप्रदायिकता के नाम पर अलग-अलग वर्ग बनने लगे हैं।
यह उत्सव सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर से ज्यादा राजनीतिक हो गया है। देश को जाति और धर्म के नाम पर बांटने के लिए जहरीला पोस्टर युद्ध चल रहा है। हम सब उत्सव का मर्म भूल गए हैं। महानगरों की हवा जहरीली हो चुकी है। गंगा-यमुना का पानी विषाक्त होकर बह रहा है। समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। धमकियां देकर फिरौतियां वसूलने वाले गैंगस्टर सक्रिय हैं। पटाखे बजाने को लेकर समाज पूरी तरह से बंटा हुआ है। ऐसे में दीपोत्सव किसी को कितना आनंद दे पाएगा, यह सवाल हमारे सामने है। अगर अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य की बात करें तो पश्चिम एशिया में भयंकर युद्ध चल रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया के सामने ऊर्जा संकट, तेल संकट और खाद्यान्न संकट अजगर की तरफ मुंह फैलाए खड़ा है। भविष्य में क्या होगा यह सबकी चिंता का विषय है। उत्सव मन की दीवारों को फांदकर एक-दूसरे को गले लगाने का मौका होता है। उत्सवों का एक विस्तृत समाज शास्त्र है जो हमें संदेश दे रहा है कि सामाजिक दूरियां बढ़ीं तो बहुत नुक्सान होगा। दीपावली का अवसर सभ्य समाज के िलए प्रेम आैर सद्भाव बढ़ाने का है। दीपावली को साम्प्रदायिकता आैर धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से देखने से बेहतर है कि सामाजिक सौहार्द कायम किया जाए। मिट्टी के दीये ने अंधकार िमटाने के अपने स्वभाव को नहीं त्यागा है। बेहतर यही होगा कि हम सब प्रेम और सौहार्द के दीये जलाएं और समूचे भारत को आलौकित करें। पंजाब केसरी के लाखों पाठकों को दीपावली की बहुत-बहुत बधाई।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com