संयुक्त राष्ट्र में क्लाइमेट एक्शन सम्मेलन में स्वीडन की 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने दुनियाभर के नेताओं को अपनी चिंताओं और सवालों से झकझोर दिया। ग्रेटा ने दुनियाभर के बच्चों और युवाओं की आवाज को सामने रखते हुए कहा- ‘‘युवाओं को समझ आ रहा है कि पर्यावरण परिवर्तन के मुद्दे पर आपने हमें छला है और अगर आपने कुछ नहीं किया तो युवा पीढ़ी आपको कभी माफ नहीं करेगी। आंखों में आंसू लिए ग्रेटा ने यह भी कहा कि आपने हमारे सपने, हमारा बचपन अपने खोखले शब्दों से छीना लेकिन लोग झेल रहे हैं, मर रहे हैं, पूरा ईको सिस्टम बर्बाद हो रहा है।’’ ग्रेटा के यह शब्द विश्व के नेताओं के लिए चुनौती भी हैं और उन्हें शर्मसार कर देने के लिए भी काफी हैं।
दुनियाभर के लोगों को इस बालिका के शब्दों पर ध्यान देकर धरती को बचाना ही होगा। इसी सम्मेलन को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी सम्बोधित किया। उन्होंने भी स्पष्ट शब्दों में कहा कि अब बात करने का समय गुजर चुका है। अब दुनिया को एकजुट होकर काम करने की जरूरत है। उन्होंने पर्यावरण को बचाने के लिए भारत के रोडमैप की जानकारी दी। भारत 2022 तक नवीकरणीय ऊर्जा 170 गीगावाट तक ले जाएगा, जल संचय के लिए जल शक्ति मिशन शुरू किया गया है। सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्ति पाने का अभियान भी शुरू किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री ने इस बात पर बल दिया कि आज शैक्षणिक, मूल्यों, जीवन शैली और विकास की अवधारणा को बदलने की जरूरत है। पर्यावरण परिवर्तन पर सम्मेलन तो होते रहे हैं लेकिन अब तक स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। धरती का तापमान घटने की बजाय और तेजी से बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 से 2019 का काल खंड सबसे गर्म रहा है। इस दौरान कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में बढ़ौतरी हुई है, जिससे समुद्री जलस्तर बढ़ा है। धरती पर हर जगह की कहानी एक जैसी है। मानवजनित कारणों से धरती का तापमान बढ़ने से भयंकर गर्मी, लू और जंगलों में आग जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं। बाढ़ से भयंकर तबाही हो रही है।
मानसून सीजन के महीने ही बदलते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन में लम्बे-चौड़े भाषण दिए गए लेकिन लक्ष्य हासिल करना मुश्किल लगता है। विकसित बड़े देश पूर्व में जलवायु परिवर्तन के लिए विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं और विकासशील देश विकसित देशों से पर्यावरण बचाने के लिए जिम्मेदारीपूर्ण भूमिका निभाने का आग्रह करते रहे हैं। जलवायु समझौते को लेकर भी काफी विवाद रहा। भारत ने भी पैरिस समझौते को लागू करने में बराबरी नहीं होने पर असहमति जताई थी। अमेरिका समेत कुछ अन्य देश सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करते हैं लेकिन उन्होंने हमेशा विकासशील और गरीब देशों को जिम्मेदार ठहराया।
पिछले वर्ष पौलेंड के केटोवाइस में पर्यावरण परिवर्तन पर सम्मेलन हुआ था। विडम्बना यह थी कि जिस केटोवाइस में सम्मेलन किया गया, वहां 90 हजार कोयला श्रमिक रहते हैं। यह आबादी यूरोपीय यूनियन के कुल कोयला कर्मचारियों का 50 फीसदी है। दुनियाभर में ऊर्जा आधारित माध्यमों से जितने कार्बन का उत्सर्जन होता है उनमें सिर्फ कोयले से 50 फीसदी कार्बन निकलता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तो पेरिस समझौते से बाहर निकल गए थे। अगर दुनियाभर के देशों की सरकारों ने जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए तत्काल दूरगामी कदम नहीं उठाए तो समझ लीजिए संकट विकट भी है और निकट भी। कृषि विज्ञानी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जो कुछ अब हो रहा है, वह पहले कभी महसूस नहीं किया गया। कई राज्यों में वर्षा का पैटर्न बदल गया है। हर क्षेत्र में नुक्सान हो रहा है।
भविष्य में जलवायु परिवर्तन का असर बहुत व्यापक होगा, इससे समूचा संसार, सभी लोग प्रभावित होंगे। याद रखना होगा कि हड़प्पा-मोहन जोदड़ो की सभ्यता जलवायु परिवर्तन के कारण ही खत्म हुई। जलवायु परिवर्तन का असर लोक पर तो पड़ेगा साथ ही लोकतंत्र पर भी पड़ेगा। बढ़ती गर्मी, पिघलते ग्लेशियर, हवाओं का बदलता रुख अब मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। बीमारियां और मौतें बढ़ रही हैं। धरती की विविधता और सौंदर्य सीमित होता जा रहा है। व्यवस्थाओं के प्रति लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है जिससे लोकतंत्र प्रभावित होगा ही। जब भी मानवीय पीड़ा बढ़ेगी, अस्थिरता भी उतनी ही बढ़ेगी। केवल भाषणों से कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि इन्हें लिखता कोई और है और बोलता कोई और है। बेहतर यही होगा कि पूरी दुनिया एकजुट होकर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ठोस उपाय करे और इस धरती को बचाए।