आजकल धीरे-धीरे जिस तरह भारत की सामाजिक और राजनैतिक तस्वीर उभर रही है उसकी परिकल्पना क्या किसी राजनेता ने पहले करने की कोशिश की थी? यह सवाल उठना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि देश में जो हालात बन रहे हैं वे औसत हिन्दोस्तानी को सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि सारी राजनैतिक उठा-पटक में उसका स्थान कहां है? इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लगभग एेसी ही परिस्थितियों के निर्माण की परिकल्पना समाजवादी चिन्तक और जननेता डा. राम मनोहर लोहिया ने छह दशक पूर्व ही कर डाली थी। डा. लोहिया ने अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका ‘जन’ के माध्यम से बार-बार चेतावनी दी थी कि स्वतन्त्र भारत में गांवों की पिछड़ी व दलित जातियां सत्ता में अपनी भागीदारी प्रभावशाली ढंग से मांगेंगी क्योंकि गांधी का लोकतन्त्र इनके सम्मान की गारंटी इस तरह कर रहा है कि ये तबके उपेक्षा और विपन्नता की उस चादर को फाड़ कर अपना चेहरा सामने लायें जो सदियों की सामन्ती व पूंजी मूलक मशक्कत से इनके ऊपर पड़ी हुई है। अतः भविष्य में इन वर्गों के बीच से उठे राजनैतिक नेतृत्व की उपेक्षा करना सत्तारूढ़ पार्टियों के लिए सरल काम नहीं होगा। इसके साथ उनका यह भी स्पष्ट मत था कि इन ग्रामीण परवेश की जातियों के बूते पर ही भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप मजबूत रह सकता है क्योंकि आर्थिक रूप से इनकी बराबर की साझेदारी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ रहती है, दोनों के आर्थिक हितों में कहीं भी टकराव नहीं रहता है जिससे सामाजिक सम्बन्धों की प्रगाढ़ता सुनिश्चित रहती है। अतः डा. लोहिया ने घोषणा की कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की गारंटी पिछड़े वर्ग के कहे जाने वाले लोग ही देते हैं।
भारत का पूरा ताना-बाना उत्तर से लेकर दक्षिण तक इसी आधार पर बुना हुआ है, इसके उधड़ जाने का मतलब होगा भारत का जर्जर हो जाना और इस देश की आर्थिक तरक्की रुक जाना लेकिन 1947 में जिस तरह धर्म के आधार पर भारत के दो टुकड़े हुए उसके भविष्यगत दुष्परिणामों से डा. लोहिया बुरी तरह चिन्तित थे और उन्होंने इस सन्दर्भ में अपने उद्गारों को कभी छुपाने की भी कोशिश नहीं की। उनका मत था कि पाकिस्तान बन जाने के बावजूद दोनों देश अपने-अपने लोगों के विकास और उत्थान के लिए साझा तौर पर प्रयास कर सकते हैं और रक्षा, विदेशी मामले व आर्थिक विकास और सांस्कृतिक मामलों में इस तरह सहयोग कर सकते हैं कि समूचे तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के हित सुरक्षित रहें। डा. लोहिया ने इसी गरज से 1955 में सुझाव दिया था कि भारत और पाकिस्तान का एक महासंघ बनाया जाये जिसमें दोनों संप्रभु राष्ट्र जिसमें दोनों देश सभी प्रकार के आपसी मुद्दे सुलाझाते हुए रक्षा खतरों से मुक्त रहते हुए अपने लोगों का विकास तेज गति से कर सकें। आश्चर्यजनक रूप से इसका पुरजोर समर्थन तब जनसंघ के नेता स्व. दीनदयाल उपाध्याय ने किया। जम्मू-कश्मीर का विवाद तब भी दोनों देशों के बीच में था मगर तब तक पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक सरकारों का दौर था जिसमें मुस्लिम लीग, अवामी पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी का जोर रहता था लेकिन 1956 में पाकिस्तान में इसका संविधान लागू होने के बाद राजनैतिक घटनाक्रम बहुत तेजी के साथ बदलने लगा और प्रधानमन्त्री जल्दी-जल्दी बदले जाने लगे। 1954 में राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव के बाद यहां सांझा सरकारों का दौर आ गया और बाद में मार्शल-ला लागू हो गया जिसका अन्त 1958 मंे जनरल अयूब द्वारा सत्ता हथियाने से हुआ। इसकी वजह से परिस्थितियां पूरी तरह बदल गईं और जनरल अयूब को अमेरिका ने अपने कन्धे पर बिठा लिया और उसने भारत विरोध को पाकिस्तान की राजकीय नीति बना डाला। इसके बाद 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और जनरल अयूब ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का बहुत बड़ा हिस्सा चीन को भेंट में दे डाला और 1965 में कश्मीर के हिस्से में अपनी फौजों से आक्रमण करा दिया।
अतः डा. लोहिया के प्रस्ताव पर आगे बात ही नहीं बढ़ पाई, 1967 में डा. लोहिया की मृत्यु हो गई और बाद में 1970 के आते-आते पाकिस्तान-बांग्लादेश युद्ध की भूमिका तब बननी शुरू हो गई जब श्रीनगर हवाई अड्डे से कुछ सिरफिरे खुद को कश्मीरी कहने वाले उग्रवादियों ने यात्री बनकर विमान अगवा करके लाहौर ले जाकर फूंक डाला और इसके बाद पाकिस्तान की राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव हुए जिसमें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के नेता स्व. शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला मगर सैनिक शासकों ने उनके हाथ में सत्ता नहीं दी और 1971 के अन्त तक यह इलाका बांग्लादेश बन गया। कहने का मतलब यह है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपनी अवाम को कभी यह सोचने का मौका देना गंवारा ही नहीं समझा कि उनके और भारत के लोगों के हित इस बात से बन्धे हुए हैं कि दोनों देश पूरी तरह शान्ति व अमन के साथ रहें और अपनी सांस्कृतिक साझेदारी के बूते पर तरक्की की नई सीढि़यां दो अलग-अलग देश बन जाने के बावजूद चढ़ें लेकिन हमें इससे सबक सीखते हुए आगे चलना होगा और अपने राष्ट्रीय हितों की इस तरह रक्षा करनी होगी कि पड़ौसी देश बांग्लादेश के साथ हमारे मधुर सम्बन्धों पर किसी तरह की आंच न आये। बांग्लादेश में भी जल्दी ही राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं और वहां की कट्टरपंथी जमाते इस्लामी पार्टी का समर्थन यहां कि वर्तमान में विरोधी पार्टी बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) को रहता है। इस पार्टी की मुखिया बेगम खालिदा जिया जब इस देश की प्रधानमन्त्री थीं तो इस देश में आतंकी संगठनों का दबदबा होने लगा था जबकि वर्तमान में अवामी पार्टी की शेख हसीना के प्रधानमन्त्री रहते एेसी तंजीमों पर कसकर लगाम लगी है। भारत की बांग्लादेश से लगती पूर्वी सीमा पूरी तरह शान्त रहती है। इसे हमें न केवल बरकरार रखना है बल्कि मजबूत भी बनाना है। हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि क्या डा. लोहिया का सपना अब बांग्लादेश के साथ महासंघ बनाकर पूरा हो सकता है जिससे दक्षिण एशिया के इस भाग में अब तरक्की के नये सौपान चढ़ सकें।