संसद के तेवर जिस तरह बदले हुए दिखाई पड़ रहे हैं उसके मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि भारत का लोकतन्त्र किसी भी मायने में कमतर नहीं है। नई लोकसभा में 50 प्रतिशत से अधिक बिल्कुल नये सांसद होने के बावजूद जिस तरह इस सदन की कार्यवाही सुचारू ढंग से चल रही है उसके लिए नये लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला को श्रेय दिया जा सकता है। हालांकि वह स्वयं भी अपेक्षाकृत नये सांसदों में ही गिने जायेंगे क्योंकि इससे पूर्व वह 2014 में ही पहली बार लोकसभा सदस्य बने थे। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोकसभा अध्यक्ष ने विपक्ष व सत्ता पक्ष के बीच सदन में व्यवस्था बनाये रखने के मुद्दे पर वह सहमति प्राप्त करने में सफलता अर्जित की है जिससे विरोधी पक्ष को जबरन शोर-शराबा या आसन्दी में आकर नारेबाजी न करनी पड़े।
इसके लिए जो तकनीक निकाली गई है वह संसदीय लोकतन्त्र को सम्मान देने का काम जरूर करेगी। विपक्ष के मुद्दों को उठाये जाने की अनुमति अध्यक्ष जिस फराख दिली से दे रहे हैं वह प्रशंसनीय है और विपक्ष जिस नियम-कायदे के अनुसार अपनी बातें रख रहा है वह भी काबिले तारीफ है मगर सत्ता पक्ष की ओर से भी जिस प्रकार का संयम बरता जा रहा है उसकी भी तारीफ की जानी चाहिए। इससे यह भी सिद्ध होता है कि लोकसभा अध्यक्ष पद पर केवल लम्बे संसदीय अनुभव रखने वाले सांसद का चुनाव जरूरी नहीं होता। देखना यह होता है कि इस पद पर बैठा व्यक्ति सभी पक्षों को साथ लेकर चलने की क्षमता रखता है अथवा नहीं और वह सभी पक्षों के साथ यथोचित न्याय करने का हौंसला रखता है या नहीं।
यह दुखद है कि पिछली 16वीं लोकसभा में ऐसे नजारे देखने को मिले थे जिसमें विपक्ष को शिकायत थी कि उसकी बात दबा दी जाती थी और उसके पक्ष का आम जनता के बीच लोकसभा टीवी के माध्यम से प्रसारण भी पूरी निष्पक्षता के साथ नहीं हो पाता था। पिछली लोकसभा में विपक्ष द्वारा हंगामा किये जाने या विरोधी बैंचों पर होने वाली गतिविधियों को टीवी पर दिखाने से रोक दिया जाता था मगर ऐसा करते ही लोकसभा टीवी की उपयोगिता और प्रासंगिकता समाप्त हो जाती थी क्योंकि विपक्षी सांसदों को भी आम जनता व मतदाता ही चुनकर भेजते हैं और उन्हें यह जानने का पूरा अधिकार होता है कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि संसद में बैठकर किस तरह का व्यवहार करते हैं और कैसे जनता से जुड़े हुए मुद्दे उठाते हैं।
जाहिर है पिछली लोकसभा में विपक्ष के सांसद विरोध प्रकट करने का असंसदीय तरीका ज्यादा से ज्यादा अपनाकर अपने विरोध को विराट बनाने का तरीका समझते होंगे तभी लोकसभा में बजाय बहस होने के शोर-शराबा और नारेबाजी ज्यादा होती थी और पोस्टर भी जमकर दिखाये जाते थे किन्तु 17वीं लोकसभा के पहले सत्र में ही जिस तरह से विपक्ष के मुद्दों को उठाने के मामले पर यह कहकर सहमति बनाई गई है कि किसी भी सदस्य को बोलने से नहीं रोका जायेगा बशर्ते वह अपनी बात नियमों के अनुसार रखे, उससे सदन में ऐसे अनुशासन का माहौल बनता दिखाई दे रहा है जिसके प्रति सभी पक्षों के सदस्यों की अन्दरखाने निष्ठा है। जाहिर है ऐसा माहौल बनाने के लिए सभी पक्षों के हितों का ध्यान रखा गया होगा। संसद में रचनात्मक बहस तभी हो सकती है जब दोनों पक्षों में एक-दूसरे के विचारों को शान्ति के साथ सुनने की क्षमता जागे और दूसरे की बात पूरी हो जाने पर अपने सवालों को उठाया जाये।
बहस का मतलब टोका-टाकी या दूसरे के भाषण के दौरान अपना भाषण शुरू करना नहीं हो सकता। इसी संसद का नियम है कि जब कोई वक्ता अपने स्थान पर खड़े होकर बोल रहा होता है तो किसी दूसरे पक्ष की तरफ से कोई शंका उठाये जाने पर बोलने वाला व्यक्ति अपने स्थान पर तुरन्त बैठ जाता है और उचित होने पर वह उसका उत्तर दे सकता है अथवा अध्यक्ष से कह सकता है कि मैं इसका संज्ञान नहीं लेता हूं। संसद के सदस्यों के सदन के भीतर व्यवहार करने और आचरण करने की पूरी नियमावली (मैनुअल) है परन्तु पिछले तीन दशकों में इसका पालन करने में लगातार कोताही बरती गई है जिसकी वजह से सदन के भीतर भी कभी-कभी वातावरण असहज बनता रहा है परन्तु नये अध्यक्ष ने जिस तरह इस ओर भी ध्यान दिलाना शुरू किया है वह स्वागत योग्य है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने लोकसभा में किसी मन्त्री के वक्तव्य के बाद विपक्ष द्वारा उससे स्पष्टीकरण पूछने की परंपरा शुरू कर दी है।
यह बहुत महत्वपूर्ण कदम है क्योंकि लोकसभा में विपक्षी सदस्यों की शंकाओं को उठाने से यह कहकर रोक दिया जाता था कि ऐसी परिपाटी केवल उच्च सदन राज्यसभा में ही है। इन सब व्यवस्थाओं से सदन की गरिमा निश्चित रूप से बढ़ेगी और सदस्यों का सम्मान भी आम जनता के बीच ऊंचा उठेगा क्योंकि पूरे देश में यह सन्देश जायेगा कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि हर सवाल का जवाब देने को तैयार रहते हैं। इसके साथ ही दोनों ही सदन देर तक बैठकर कामकाज करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। लोकसभा तो एक दिन रात 12 बजे तक चली। जिस तरह विभिन्न विधेयकों पर चर्चा हो रही है वह लोकतन्त्र में अपेक्षित होता है क्योंकि संसद मूलतः बहस करने और फैसले करने के लिये इस प्रकार होती है कि हर विषय पर सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।
इसलिए विधेयकों पर इतनी लम्बी-लम्बी बहसें होती हैं जिससे सभी पक्षों के सदस्य यह सुनिश्चित कर सकें कि सत्ता के मद में सरकार कहीं कोई ऐसा कदम न उठा ले जो आम जनता के हितों के खिलाफ हो। वर्ना पहले से ही यह पता होता है कि सरकार का बहुमत है इसलिए विधेयक तो पारित होगा ही किन्तु विपक्ष के सांसदों का काम होता है कि वे सरकार को किसी भी तरह की कोई गफलत न करनेे दें और उसे सावधान करते हुए सकारात्मक सुझाव दें। यह काम तभी हो सकता है जब सदन में सुचारू तरीके से बहस हो। अतः नई लोकसभा का आगाज तो अच्छा हो रहा है देखिये आगे क्या होता है, अभी तो पांच साल पड़े हैं।