भारत में किस तरह सियासी शोले का गुबार खड़ा हो रहा है कि एक तरफ धरती का ‘भगवान’ कहा जाने वाला ‘किसान’ सड़कों पर नंगे पांव चल कर हुकूमत की ‘बेनियाजी’ को बेनकाब कर रहा है तो दूसरी तरफ कुछ लोग बड़े इत्मीनान से उन भगवान श्रीराम का मन्दिर बनाने की जिद्द पर अड़े हुए हैं जिन्होंने जनसाधारण (वानर सेना) की ‘असाधारण’ फौज खड़ी करके रावण जैसे महाज्ञानी, महाप्रतापी और हाबलशाली अभिजात्य सम्राट को हराकर भगवान की पदवी पाई थी। राम और किसान में से किसी एक को चुनने का प्रश्न नहीं है क्योकि किसान के रोम-रोम में ही राम बसते हैं। यही राम सत्य और सद्मार्ग पर चलने वाले किसान को धरती का भगवान बनाते हैं। अतः न संसद को गफलत में रहने की जरूरत है और न सियासत को कि केवल मंदिरों में ही राम बसते हैं। हम अगर उस धरती के भगवान को ही भरपेट भोजन देने की व्यवस्था नहीं करते हैं जो पूरी दुनिया की भूख मिटाता है तो मंदिरों में चढ़ाए जाने वाले ‘चढ़ावे’ से राम प्रसन्न नहीं हो सकते।
राम के नाम पर अगर हम भक्ति दिखाना चाहते हैं तो सबसे पहले धरती के भगवान किसान को प्रसन्न करना होगा और उसका आशीर्वाद लेना होगा जिससे इस सृष्टि में कहीं भी भूख न रहे। महंतों और पंडितों के राम में और जनमानस के राम में यही अन्तर है कि पहले के लिए वह ईंट-पत्थर से बनी इमारतों में रहता है और दूसरे के लिए सामान्य जीवन के हर व्यवहार में बसता है, इसीलिए ‘राम-राम जी’ भारतीय समाज में एक-दूसरे से कुशलक्षेम पूछने की आचार संहिता है। इसमें धर्म का कोई आडम्बर नहीं है मगर इसका मतलब यह भी नहीं है कि राम का अस्तित्व केवल मूर्ति रूप में ही है क्योंकि गुरुनानक देव जी महाराज और कबीर दास जैसे महान सन्तों के लिए अविनाशी राम निराकार ही थे। फिर भी श्रीराम के मन्दिर निर्माण से किसी को एेतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने 2010 के फैसले में अयोध्या की विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांट कर फैसला दे दिया था कि एक हिस्सा श्रीराम की जन्म स्थली का है और दूसरा निर्मोही अखाड़े का और तीसरा मस्जिद का, अर्थात विवादित स्थल के दो हिस्से हिन्दुओं के उस समूह को दिए गए जो वहां श्रीराम मन्दिर का निर्माण करना चाहते हैं और एक हिस्सा उन मुसलमानों को दिया गया जो उस स्थान पर मस्जिद बनाना चाहते हैं। इसमें विरोधाभास कहां है।
देश के संविधान के अनुरूप उच्च न्यायालय फैसला दे चुका है जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है, जहां इस पर सुनवाई हो रही है मगर यह श्रीश्री रविशंकर कौन पैदा हुआ है जो पूरे मामले में टांग अड़ा कर पूरे देशवासियों को न केवल भ्रमित कर रहा है बल्कि पूरी संवैधानिक व्यवस्था को भी चुनौती दे रहा है और कह रहा है कि अगर अयोध्या विवाद का हल सर्वमान्य तरीके से नहीं होता है तो भारत में साम्प्रदायिक दंगे हो सकते हैं और भारत में सीरिया या इराक जैसे हालात पैदा हो सकते हैं? कोई इस धर्म गुरु कहलाये जाने वाले व्यक्ति को बताये कि हिन्दोस्तान में लोगों द्वारा चुनी गई बाअख्तियार और पुरवकार सरकार है और इस मुल्क का निजाम कानून से चलता है, किसी धर्म गुरु की लफ्फाजी पर नहीं। खुद को सर्वोच्च न्यायालय से भी ऊंचे मुकाम पर रखकर देखने के उसके ख्वाब से इस देश के लोगों का विश्वास संविधान के राज से नहीं हट सकता। सबसे पहले एेसे धर्म गुरुओं को यह जानना चाहिए कि न तो भारत का संविधान कोई ‘मिथक’ है और न ही भारत स्वयं किसी दूसरे मुल्क ‘पाकिस्तान’ की मानिंद है कि यहां न्यायालयों की न्यायप्रियता और पवित्र प्रतिष्ठा को कोई चुनौती दे सके। इस देश के लोगों को यह बताने की जरूरत नहीं है कि साम्प्रदायिक सौहार्द क्या होता है। उन्हें यह बताने की जरूरत भी नहीं है कि राम की उनके जीवन में क्या महत्ता है ? मगर शानदार चमचमाती गाडि़यों में घूमने वाले कुछ लोग धर्म का लबादा ओढ़कर खुद के ‘खुदा’ बन जाने के ख्वाब में जीते रहते हैं। इस देश के लोगों ने बाबा राम रहीम का हश्र भी देखा है और उनमें लोगों की ‘आस्था’ को भी देखा है मगर जो नहीं देखा है वह यह है कि इन्हें धरती के भगवान को याद करने की कभी फुर्सत नहीं मिलती।
इन्हें किसान के मन्दिर ‘खेतों’ में कभी मिट्टी में लथपथ होते नहीं देखा और पसीना बहाकर लोगों की भूख भगाने के निमित्त कृषक की कराहों से सिहरते नहीं देखा। ये दुनिया में सबसे बड़े प्यार से मिलने का दावा तो करते हैं मगर इंसानों के बीच खाई पैदा करने की कोशिशें भी करते हैं। अगर हम अपने देश के सीरिया हो जाने की कल्पना तक करते हैं तो किस प्रकार हम उस भारत के भविष्य को सुन्दर बनाने का सपना संजो सकते हैं जिसमें बहुधर्मी लोग रहते हैं ? हमारी पहचान भारतीय है और एेसी है कि जिसमें ‘सम्राट अशोक’ और ‘शहंशाह अकबर’ दोनों ही ‘महान’ कहे जाते हैं। हमारी रगों में उस महाराणा प्रताप का खून दौड़ता है जिसकी फौज का सिपहसालार ‘हकीम खां सूर’ था। हमारी शास्त्रीय संगीत की महान विरासत आज भी मुसलमान गायकों व संगीतकारों के हाथों में सुरक्षित है। हमारी सांस्कृतिक लोक व ललित साहित्य विरासत आज भी मुस्लिम जोगी संभाले हुए हैं मगर सिरफिरेपन की भी हद होती है कि हम एेसे हिन्दोस्तान के सीरिया बनने का डर दिखाने लगते हैं।
मुल्क की अवाम एेसे लोगों को यही पैगाम देगी कि माफ कीजिये! हम पाकिस्तान नहीं हैं कि मजहब से मुल्क चलाने की पैरवी करें। हम हिन्दोस्तानी हैं और एेसे लोग हैं जिनका मजहब सबसे पहले अपनी मातृभूमि को स्वर्ग समान मानने का रहा है। अपनी मातृभूमि के सीरिया या इराक बनने के खौफ से जो हमें डराना चाहता है वह किसी सूरत में देशहित के बारे में नहीं सोच सकता। हमारी संस्कृति तो यह है कि हम ‘विष’ पीकर अमृत समान ‘गंगा’ धरती पर उतारते हैं। संसद का सत्र चालू है अतः एेसे गैर-जिम्मेदाराना बयानों का सख्ती के साथ संज्ञान लिये जाने की जरूरत है। श्रीराम मन्दिर की जमीन का अन्तिम फैसला सर्वोच्च न्यायालय से तय हो जायेगा और सम्पूर्ण भारत उस फैसले को सिरमाथे लेते हुए उसके अनुरूप कार्य करेगा, मगर मातृभूमि को अपमानित करने वाले व्यक्ति को किस प्रकार हम हल्के में ले सकते हैं। क्या हम यह बेजह ही पढ़ते आ में रहे हैं कि
‘‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’