भारत की विविधतापूर्ण और बहुधार्मिक संस्कृति को देखते हुए देश के माने हुए विधिवेताओं और न्यायविदों का मत है कि इस देश में अन्तरधार्मिक विवाहों को जश्न के रूप में मनाया जाना चाहिए न कि इन्हें अपराध के बोध से अभिशापित करके देखा जाए। अतः उनके इन विचारों को बहुत गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। भारत के विभिन्न राज्यों में जबरन धर्म परिवर्तन रोकने के लिए पहले से ही कारगर कानून हैं, अतः विवाह को इसके दायरे में लाकर कहीं न कहीं इस पारिवारिक संस्थान के ही बदनाम होने का खतरा खड़ा हो सकता है क्योंकि भारतीय संविधान किन्हीं भी दो वयस्कों को अपना जीवन साथी चुनने की पूरी छूट देता है। इसमें न तो धर्म का कोई बन्धन आड़े आता है और न ही जाति का। भारत का यथार्थ यह है कि यहां केवल पांच प्रतिशत विवाह ही अन्तरजातीय होते हैं और तीन प्रतिशत से भी कम अन्तरधार्मिक विवाह होते हैं। ये विवाह 1954 के ‘विशेष विवाह कानून’ के तहत पूरी तरह वैध होते हैं। सवाल यह है कि आजादी के बाद भारत की लोकतान्त्रिक सरकारों का दायित्व था कि वे जातिविहीन समाज की संरचना में अपना योगदान करें।
भारतीय संविधान एेसे ही समाज की बनावट की पुरजोर वकालत करता है। इसके लिए समाज कल्याण मन्त्रालय में विशेष प्रोत्साहन देने के प्रावधान भी किये गये किन्तु आजादी के 73 वर्ष बाद भी वर-वधू की जातियां अलग होने पर ‘प्रेम विवाह’ करने पर मां-बाप आनर किलिंग के नाम पर हत्या जैसा जघन्य अपराध करने तक पर उतारू हो जाते हैं। यह प्रथा संविधान का खुला उल्लघंन करती है और सामाजिक रूढि़वादिता को वैधता प्रदान करती है। संविधान स्पष्ट रूप से आम जनता में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की हिमायत करता है और दकियानूसी सोच का विरोध करता है। इसके बावजूद विभिन्न जातियों की खाप पंचायतें विवाह जैसे व्यक्तिगत मामले पर सामाजिक फैसले देती रहती हैं लेकिन अन्तरधार्मिक विवाहों के मामले में जिस प्रकार की नीति कुछ राज्य सरकारें अपना रही हैं वे सामाजिक व धार्मिक भाईचारे की बुनियाद पर ही कुठाराघात करती हैं। किसी भी व्यक्ति के विवाह करने के फैसले से लोकतन्त्र में किसी भी सरकार का क्या मतलब हो सकता है जबकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 से लेकर 24 तक में प्रत्येक व्यक्ति को अपना जीवन अपने तरीके से और अपने विश्वास व आस्था के अनुसार जीने का पूरा अधिकार है। उसे अपने विश्वास या आस्था में बदलाव करने का भी पूरा अधिकार है।
यह बदलाव उसके जीवन में जिन्दगी के किसी भी मोड़ पर आ सकता है। अतः अन्तरधार्मिक विवाहों पर ‘लव जिहाद’ का तगमा लगा देना किन्हीं दो व्यक्तियों के निजी जीवन को अपराध बोध से भर देना है। ऐसे मामलों में संविधान में महिला व पुरुष को दिये गये बराबर अधिकारों की अवहेलना भी खुलकर की जाती है। हिन्दू या मुसलमान होने से किसी भी स्त्री या पुरुष के संवैधानिक अधिकार नहीं बदलते हैं खास कर महिलाओं के, महिला चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम वह अपने मनपसन्द साथी का चुनाव करने को स्वतन्त्र है और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार विवाह के लिए धर्म परिवर्तन करना जरूरी नहीं है। कोई भी दो स्त्री-पुरुष अलग-अलग धर्म के होने बावजूद अपना पूरा जीवन अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार बिता सकते हैं। यदि किसी महिला या पुरुष पर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव बनाया जाता है तो उसके लिए पहले से ही कानून मौजूद है।
भारत के संविधान को जो लोग केवल एकमात्र पुस्तक मानते हैं व बहुत बड़ी गलती पर हैं क्योंकि यही संविधान इस देश के समस्त लोगों को एक देश के रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें न किसी जाति का नाम है और न धर्म का, केवल आरक्षण की दृष्टि से अनुसूचित जातियों का जिक्र आया है। इसमें भारत की परिकल्पना भारत के लोगों से ही है और ये लोग विभिन्न धर्मों के मानने वाले हो सकते हैं। अतः कानून की नजर में हर हिन्दू या मुसलमान केवल नागरिक ही है जिसके अधिकार संविधान में उल्लिखित हैं। अतः लव जिहाद को हमें धार्मिक अलगाव से अलग रख कर इस प्रकार देखना होगा कि कोई भी विवाह दो वयस्कों के बीच का निजी अनुबन्ध लगे। इसमें धर्म के ठेकेदारों का कोई दखल हर प्रकार से असंवैधानिक व अवांछनीय है। गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री विजय रूपानी के ताजा बयान के अनुसार उनकी सरकार ने लव जिहाद पर कानून बनाने का विचार फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया है। इसकी असल वजह यह है कि इस बाबत जिस भी राज्य में जो भी कानून अभी तक बना है वह विधि विशेषज्ञों की राय में संवैधानिक परीक्षा में किसी तौर पर खरा नहीं उतर सकता क्योंकि ऐसे कानून का लक्ष्य पारिवारिक जीवन को पुलिसिया साये में धकेल देता है जिसकी संविधान में कोई गुंजाइश नहीं बल्कि प्यार ही परिवार का असली परिचय ही होता है।