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‘लो खत्म हुआ संसद सत्र’

संसद का वर्षाकालीन सत्र पूरे देश को ‘नम’ करने के साथ ही समूची संसदीय प्रणाली को नियमों की अवमानना के आंसुओं से भिगो कर जा रहा है।

संसद का वर्षाकालीन सत्र पूरे देश को ‘नम’ करने के साथ ही समूची संसदीय प्रणाली को नियमों की अवमानना के आंसुओं से भिगो कर जा रहा है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में हालांकि यह ऐसा पहला सत्र कहा जायेगा जिसमें संसद चलने के नाम पर ‘हिली’ नहीं (लोकसभा व राज्य सभा में  केवल एक दिन के कुछ घंटों को छोड़ कर) और इसकी कुल 19 बैठकों में विधेयक पर विधेयक भारी शोरगुल और हंगामे में पारित हो गये। इसके साथ ही राज्यसभा में मंगलवार को जो हंगामा बरपा और कृषि क्षेत्र की समस्या को लेकर होने वाली चर्चा को लेकर सदन के नियमों के बारे में जो विवाद पैदा हुआ और उसका परिणाम सदन में महासचिव की मेज पर कांग्रेस के सांसद श्री प्रताप सिंह बाजवा के चढ़ने और नियम पुस्तिका को आसन की तरफ फेंकने से हुआ, उससे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि संसद में विधायिका अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने की मुद्रा में है उससे कहीं न कहीं संसदीय प्रणाली की पवित्रता और शुचिता संशय के घेरे में आ रही है। 
सवाल यहां सत्ता पक्ष और विपक्ष का नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र में सदन के भीतर राजनीतिक दलों के पाले बदलते रहते हैं। अतः मूल प्रश्न संसदीय प्रक्रिया की पवि​त्रता का है जिसे कायम रखने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे हाथ में ऐसी प्रणाली सौंपी थी जिसका अनुसरण करते हुए हम हर परिस्थिति में संसद की गरिमा और पवित्रता कायम रखने सें सफल होते रहें। परन्तु संसद के वर्षाकालीन सत्र में जो हालात शुरू से ही बने उन्होंने पूरी प्रणाली को ही संकट में डालने का काम इस तरह किया  संसद में किसी विषय पर बहस ही न हो सके। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच गतिरोध टालने के विविध उपक्रम होने के बावजूद दोनों पक्षों का अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहना बताता है कि हम उस मुकाम पर पहुंच गये हैं जहां जन हित व लोकहित के स्थान पर दलीय हित आ जाते हैं। खास कर कृषि कानूनों को राज्यसभा में जिस तरह इसके उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह की सदारत में पहले के सत्र में  पारित किया गया था उससे संसदीय नियमों की पवित्रता  बुरी तरह शक के घेरे में आ गई थी और विपक्षी सांसदों ने इस बारे में संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति तक को ज्ञापन दिया था। मगर इसके साथ ही वर्षाकालीन सत्र एक और चुनौती देकर चला गया कि संसद के सुचारू रूप से न चलने के बावजूद सरकार अपना विधाई कार्य शोर-शराबे और हंगामे के बीच ही करा सकती है। यह चिन्तनीय इसलिए है क्योंकि इससे आने वाली पीढि़यां संसद को अप्रासंगिक बनाये जाने की गलत प्रेरणा ले सकती हैं।
 संसदीय लोकतन्त्र में यह परंपरा यदि हम स्थापित करते हैं तो देश की आधी से ज्यादा जनता की आवाज को दरकिनार करने का कार्य करते हैं साथ ही विपक्ष का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वह अपनी बात उस जनता की तरफ से, जिसने उसे चुना है, संसद में रखने की ऐसी  विधि निकाले जिससे उसका विरोध भी दर्ज होता रहे और संसद भी चलती रहे। इस काम में दोनों सदनों के अध्यक्ष की महती भूमिका है क्योंकि वे सदन में बैठने वाले हर सदस्य के प्रतिनिधि होते हैं। क्योंकि राज्यसभा में श्री प्रताप सिंह बाजवा ने जो कुछ भी किया वह उसे जायज ठहरा रहे हैं जबकि सदन के सभापति  वेंकैया नायडू उनके व्यवहार से बहुत दुखी हैं। इसका एक ही रास्ता निकलता है कि सदन अपने बनाये हुए नियमों का अक्षरशः पालन करते हुए चले। क्योंकि लोकतन्त्र केवल बहुमत का शासन नहीं होता बल्कि संसदीय प्रणाली के तहत यह ‘विधायिका’ के विधि सम्मत अधिकारों के प्रयोग से भी चलता है। 
आज हम ऐसे मोड़ पर आकर खड़े हो गये हैं जहां विधायिका ही सदन के भीतर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है तो निश्चित रूप से विधान द्वारा बनायी गई संसदीय प्रणाली की शुचिता पर सवाल खड़ा किया जा सकता है। लोकतन्त्र में यह सवाल कभी नहीं उठना चाहिए क्योंकि पूरा प्रशासन संसद से ही ताकत लेकर चलता है क्योंकि लोकसभा को ही हमारे संविधान ने सरकार बनाने और गिराने का अधिकार दिया है। हमने पूर्व में भी देखा है कि किसी एक मुद्दे पर सदन के भीतर हंगामा  किस तरह बढ़-चढ़ जाता है। महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर मनमोहन सरकार के दौरान राज्यसभा में उससे भी बढ़ कर नजारा पेश हुआ था  जैसा श्री बाजवा ने मंगलवार को पेश किया।  इससे पूर्व भी हमने देखा है कि समाजवादी नेता स्व. राजनारायण राज्यसभा में ही किस तरह का नजारा पेश किया करते थे। लोकतन्त्र में विरोध प्रकट करने का यह एक तरीका हो सकता है मगर सदन की पवित्रता और शुचिता को भंग करना किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह सम्बन्धित सभा ही होती है जो अपने सदस्यों को विशेषाधिकारों से लैस करती है। इसके साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि सदन के भीतर विपक्षी सदस्यों को नियमों के अनुसार अपना पक्ष रखने के लिए जो अधिकार दिये गये हैं उनका उपयोग करने की इजाजत भी उन्हें पूरी निष्पक्षता के साथ मिले, जिसमें स्थगन या काम रोको प्रस्ताव भी एक होता है। मगर यह कार्य सरकार का नहीं विधायिका का है।

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