उत्तर प्रदेश संभवतः भारत का एकमात्र राज्य है जिसकी राजनीति में पिछले तीन दशकों से अधिक समय हमें ऐसा परिवर्तन देखने को मिला जिसमें राजनीति का अपराधीकरण सांगठनिक तरीके से हुआ। हालांकि कुछ विश्लेषक इस श्रेणी में बिहार को भी रखना चाहेंगे मगर दोनों में मूल अंतर सामाजिक परिवेश की उन व्याधियों को लेकर है जिसकी वजह से बिहार में जातिगत अस्मिता का महिमामंडन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भी आजादी के बाद से ही रहा है, जबकि उत्तर प्रदेश में 1985 तक कांग्रेस राज में रहते समय तक ऐसा माहौल नहीं था और राज्य की राजनीति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैद्धान्तिक मानकों से ही प्रभावित होती थी। इसका सबूत यह है कि 1967 में राज्य में कांग्रेस के बाद भारतीय जनसंघ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी और उस समय इसकी 412 सदस्यीय विधानसभा में जनसंघ के 99 सदस्य चुनकर आये थे और यह प्रमुख विपक्षी दल बनी थी, मगर इसके बाद चौधरी चरण सिंह के कांग्रेस छोड़ने के बाद अपना पृथक भारतीय क्रान्ति दल बनाने पर राज्य की राजनीति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया जिससे 1969 में विधानसभा के हुए चुनावों में पश्चिम से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पहाड़ों (जो अब उत्तराखंड है) तक में चौधरी साहब का डंका बजने लगा। 1967 में भी जनसंघ का अधिक प्रभाव पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही था। इसकी मूल वजह यह थी कि चौधरी साहब ने सत्ता पर किसानों से लेकर श्रम मूलक समाज की हिस्सेदारी की पैरवी गांवों के चौतरफा विकास का विमर्श खड़ा करके सफलतापूर्वक की थी और उसे लोगों ने हाथों हाथ लिया था।
संभवतः भारत की राजनीति में पहली बार 1969 में जब अपनी पार्टी भारतीय क्रान्ति दल का चुनाव घोषणा पत्र जारी किया तो उसमें निचले स्तर की अदालतों में सुधार का वादा किया था। यह वादा गांव व देहात के लोगों की अदालतों में होने वाली दुर्दशा को ध्यान में रख कर किया गया था। 1985 तक उत्तर प्रदेश बेशक पिछड़ा हुआ राज्य ही था मगर इसकी राजनीति साफ-सुथरी ही मानी जाती थी और कानून-व्यवस्था जैसी नाम की कोई चीज कभी चुनावी दंगल का विमर्श नहीं बन पाती थी। हालांकि इसी मध्य राज्य में मुख्यमन्त्री रहे स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह के काल में डाकू समस्या और मुठभेड़ की कहानी शुरू हो गई थी। जातिगत आधार पर बने आपराधिक गिरोहों की लड़ाई का सम्बन्ध तब सामाजिक अन्याय से ही जाकर जुड़ जाता था। मगर इसके बाद जैसे-जैसे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ता गया जिसके मूल में कुछ राजनैतिक पंडित राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन को मानते हैं, उसके बाद से दोनों सम्प्रदायों के बाहुबली नायकों का उदय जिस मजहबी आवेश में हुआ और राज्य में विशुद्ध जातिगत आधार पर ‘बहुजन समाज पार्टी’ व ‘दूरदर्शी पार्टी’ का उदय हुआ उससे राजनैतिक दलों में अपने-अपने सम्प्रदायों व जातियों के ‘राबिनहुड’ राजनैतिक लेबल में पेश करने की प्रथा शुरू हुई जिसे 1990 में लागू मंडल आयोग की रिपोर्ट ने एक नया आयाम देने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप दूरदर्शी पार्टी तो समाप्त हो गई, मगर बहुजन समाज पार्टी का विस्तार हो गया जिसने कथित उच्च जातियों के बाहुबली या राबिनहुडों के विरुद्ध अभियान छेड़ने को अपना एजेंडा बनाने में हिचक भी नहीं दिखाई।
दूसरी तरफ जनता दल से अलग होकर अपनी पृथक समाजवादी पार्टी बनाने वाले स्व. मुलायम सिंह यादव ने भाजपा के हिन्दुत्व के विमर्श के विरुद्ध सख्त रुख अपनाते हुए मुस्लिम समुदाय में उभरे राबिनहुडों के लिए अपनी पार्टी के दरवाजे खोले मगर ऐसा करते समय डा. लोहिया के चेले कहे जाने वाले मुलायम सिंह ने यह ध्यान जरूर रखा कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढांचा ढहाये जाने के बाद पूरा मुस्लिम सम्प्रदाय किसी भी तौर पर चरमपंथी विचारधारा की तरफ न मुड़ सके। स्व. मुलायम सिंह को उस समय ‘मुल्ला मुलायम’ जरूर कहा गया मगर उनकी दृष्टि मुस्लिम समाज को राजनीति में जायज हिस्सेदारी देकर उसे बगावती तेवर अपनाने से रोकने की ही थी, लेकिन मुलायम सिंह को तब बहुत गुस्सा आया जब भाजपा ने उनके खिलाफ लोकसभा चुनाव में चम्बल के सरनाम रहे भूतपूर्व डाकू तहसीलदार सिंह को उतार दिया गया था। इसका बदला उन्होंने पूर्व दस्यु सुन्दरी फूलन देवी को अपनी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा कर और िजताकर लिया।
अतः उत्तर प्रदेश की राजनीति के अपराधीकरण का प्रश्न बहुत जटिल और उलझा हुआ है और इसमें माफिया डानों या राबिनहुडों का प्रवेश एक सांगठनिक प्रक्रियागत तरीके से हुआ है। अतः आज हम इस राज्य में मरहूम अतीक अहमद से लेकर मुख्तार अंसारी व उनके भाई संसद सदस्य अफजाल अंसारी के विरुद्ध सत्ता और शासन के तेवर देख रहे हैं और राज्य में कानून व्यवस्था को सबसे प्रमुख समस्या के रूप में जान रहे हैं वह सब सांगठनिक अपराधीकरण का ही परिणाम है। क्या कभी सोचा जा सकता था कि जिस लोकसभा सीट फूलपुर से पं. जवाहर लाल नेहरू और उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित चुनाव लड़ा करते थे, वहां से 2004 में अतीक अहमद जीत जायेगा। मुख्तार अंसारी मऊ सीट से चार बार विधायक रहा और उसका भाई अफजाल अंसारी अभी तक गाजीपुर सीट से सांसद है। इन दोनों को ही गैंगस्टर कानून के तहत क्रमशः दस व चार वर्ष की सजा हुई है। इनका आपराधिक इतिहास यहां लिखने का कोई औचित्य नहीं है, बल्कि मुख्य चिन्ता का विषय यह है कि इस राबिनहुड संस्कृति का उत्तर प्रदेश में विकेन्द्रीकरण होकर नीचे तक न पहुंचे। हमें इसके साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि माफिया को समाप्त करने के लिए केवल संवैधानिक न्यायमूलक तरीकों से ही आम जनता में लोकतन्त्र के प्रति निष्ठा जागृत की जा सकती है। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा है कि अतीक व अशरफ की सरेआम हत्या पुलिस की हिरासत में कैसे हो गई और पुलिस ने उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए परेड क्यों कराई?