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आस्था का महापर्व

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प्रयागराज में अर्द्धकुंभ के दृश्य टीवी चैनलों पर देखते ही गंगा-यमुना और सरस्वती का पावन-सुरम्य त्रिवेणी संगम मानसिक पटल पर छा गया। पवित्र संगम पर नागा साधुओं और अखाड़ों के महामंडलेश्वरों के स्नान के साथ कुंभ की शुरूआत हो गई। पवित्र संगम स्थल पर विशाल जन-सैलाब उमड़ पड़ा है। अखाड़ों के शाही स्नान से लेकर संत पंडालों में धार्मिक मंत्रोच्चार, ऋषियों द्वारा सत्य, ज्ञान और तत्वमीमांसा के उदार, मुग्ध कर देने वाले संगीत, नादों का समवेत अनहद नाद और संगम में डुबकी लगाकर लोग पुण्य कमा लेने का अहसास करते हैं। कुंभ और अर्द्धकुंभ की शुरूआत कब हुई इसका कोई अनुमान नहीं है लेकिन 600 ईसा पूर्व जगह-जगह खुदाई में मिले बौद्ध लेखों में तत्कालीन नदियों के किनारे मेलों का उल्लेख है।

सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले का विस्तृत ​वर्णन पेश किया था और समझा जाता है कि इसी काल में मेले ने वर्तमान स्वरूप लिया। चीनी यात्री हुआन सांग ने प्रयाग पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुंभ मेले में स्नान किया था। 904 ईस्वी में निरंजनी अखाड़े का गठन हुआ, फिर जूना अखाड़े का गठन किया। इतिहास गवाह है कि 1397 ईस्वी में अर्द्धकुंभ में मुस्लिम आक्रांता तैमूरलंग ने आक्रमण कर हृदय विदारक नरसंहार किया था। तैमूरलंग स्नान पर्व वैशाखी पर हरिद्धार आया था और उसने हजारों हिन्दुओं के नरसंहार के साथ पूरे शहर में तबाही मचाई थी। अंग्रेजों के शासनकाल में उन्होंने मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था बनाई। 1924 में प्रयाग अर्द्धकुंभ में अंग्रेजों ने स्नान पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसके विरोध में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सबसे पहले नदी में छलांग लगाई थी। इतिहास के पन्ने खोलें तो वह कुंभ की घटनाओं से भरा पड़ा है। अगर धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रयागराज का कुंभ मेला अन्य स्थानों के कुंभ की तुलना में बहुत से कारणों से काफी अलग है। सर्वप्रथम दीर्घावधिक कल्पवास की परंपरा केवल प्रयाग में है। दूसरे, शास्त्रों में त्रिवेणी संगम को पृथ्वी का केन्द्र माना गया है। तीसरे, भगवान ब्रह्मा ने सृ​ष्टि-सृजन के लिए यहां यज्ञ किया था। चौथे, प्रयागराज को तीर्थों का तीर्थ कहा गया है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण है यहां किए गए धार्मिक क्रियाकलापों एवं तपस्यचर्या का प्रतिफल अन्य तीर्थ स्थलों से अधिक माना जाना।

मत्स्य पुराण में महर्षि मारकंडेय युधिष्ठिर से कहते हैं कि यह स्थान समस्त देवताओं द्वारा विशेषतः रक्षित है। यहां 48 दिन तक प्रवास करने, पूर्ण परहेज रखने, अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने से आैर अपने देवताओं व पितरों को तर्पण करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यहां स्नान करने वाला व्यक्ति अपनी 10 पीढ़ियों को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त कर देता है और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यहां केवल तीर्थ यात्रियों की सेवा करने से भी व्यक्ति को लोभ-मोह से छुटकारा मिल जाता है। उक्त कारणों से अपनी पारंपरिक वेशभूषा से सुसज्जित संत-तपस्वी आैर उनके शिष्यगण एक ओर जहां अपनी विशिष्ट मान्यताओं के अनुसार त्रिवेणी संगम पर विभिन्न धार्मिक क्रियाकलाप करते हैं तो दूसरी ओर उनको देखने हेतु विस्मित भक्तों का तांता लगा रहता है।

भारत की धर्मपरायण जनता के हृदय पटल पर कुंभ की छवि इतनी गहराई से अंकित है कि सदियों से इस पर्व पर लोग अपने आप एकत्रित हो जाते हैं। हिमालय और कन्याकुमारी की दूरी सिमट जाती है। देशभर से अमीर भी यहां आते हैं और गरीब भी। झोंपड़ियों में रहने वाले लोग भी यहां आते हैं। सभी संगम में डुबकी लगाते हैं परन्तु लाखों लोगों का एक ही लक्ष्य, एक ही कामना, एक ही भावना। अनेकता के बीच एकता आैर सांस्कृतिक समरसता के दर्शन कुंभ में ही होते हैं। एकरूपता के महान संगम को आदि शंकराचार्य ने एक ऐसा संगठित रूप प्रदान किया जिसने हजारों वर्षों से भारत को एकता के सूत्र में बांधे रखा है।

समुद्र मंथन के दौरान देवताओं के अमृत कलश से अमृत की बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन नामक स्थानों पर गिरीं, यह पौराणिक घटना भारतीय जनमानस के मन में अमिट हो गई और कालांतर में संस्कृति का अद्भुत प्रवाह बनकर हम सभी को अपने अतीत से जोड़ते हुए पुण्य और माेक्ष के मार्ग पर ले गई। प्रयाग कुंभ भारतीयों की आस्था का महापर्व है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने भी इस बार कुंभ के आयोजन में काफी अच्छी व्यवस्था की है। सरकार ने देश-विदेश के तीर्थयात्रियों के लिए मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए अच्छे-खासे प्रबंध किए हैं। अर्द्धकुंभ को कुंभ की संज्ञा देकर जन-सैलाब को संभालने के लिए पूरी व्यवस्था की गई है। विडम्बना यह है कि भारत में धार्मिक अवसरों का राजनीतिकरण कर दिया जाता है।

पर्वों को वोट बैंक में बढ़ौतरी करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कुंभ में भी साधु-संतों की धर्मसभा होगी जिसमें राम मंदिर निर्माण को लेकर काफी गर्मागर्मी भी होगी। मेरा स्पष्ट दृष्टिकाेण यह है कि आस्था के पर्व को धार्मिक दृष्टिकोण से ही मनाया जाना चाहिए। यह दान, ज्ञान और अध्यात्म का पर्व है। आयोजन की एकरूपता ही अपने आप में अद्वितीय है। कुंभ जैसे पर्व नदियों को जगत जननी का गौरव प्रदान करने के लिए हैं। ज्ञान, वैराग्य एवं रीतियों का मिलन ही संगम है और आधार धर्म प्रयाग है।

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