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मध्य प्रदेश में ‘महाभारत’

राज्यपाल का मूलभूत दायित्व यही होता है कि उनके राज्य में संविधान का शासन हो, अतः राज्यपाल जब विधानसभा में अभिभाषण दे रहे थे तो संविधान के अनुसार कमलनाथ सरकार काम कर रही थी और वह बहुमत की सरकार थी।

मध्य प्रदेश की राजनीति में जिस तरह की रस्साकशी चल रही है उसमें कांग्रेस पार्टी से अलग होने वाले  16 विधायकों के ‘इस्तीफों’ को हिसाब में इस तरह लिया जा रहा है कि सरकार के  ‘बहुमत’ व ‘अल्पमत’ की व्याख्या को सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने अनुकूल दिखा कर पेश कर सके। अतः इन्हीं 16 विधायकों के भाग्य का अन्तिम निर्णय हुए बिना  बहुमत व अल्पमत का फैसला भी नहीं हो सकता। यह फैसला अन्तिम रूप से विधानसभा अध्यक्ष श्री एन.पी. प्रजापति को करना है जिन्होंने विधानसभा की बैठक आगामी 26 मार्च तक स्थगित कर दी है। सोमवार को बजट सत्र की शुरूआत राज्यपाल श्री लालजी टंडन के अभिभाषण से हो चुकी है। वर्तमान में राज्य की कमलनाथ सरकार  श्री लालजी टंडन की ‘अपनी’ सरकार है और संविधानतः वही सरकार हुकूमत में रह सकती है जिसे सदन में पूर्ण बहुमत प्राप्त हो।
राज्यपाल का मूलभूत दायित्व यही होता है कि उनके राज्य में संविधान का शासन हो, अतः राज्यपाल जब विधानसभा में अभिभाषण दे रहे थे तो संविधान के अनुसार कमलनाथ सरकार काम कर रही थी और वह बहुमत की सरकार थी। सदन शुरू होने के बाद कमलनाथ सरकार के बहुमत या अल्पमत के बारे में अब जो भी फैसला होगा वह केवल सदन के भीतर ही होगा। अतः राज्यपाल की भूमिका यहीं समाप्त हो जाती है। चुने हुए विधायकों को  सदन के भीतर अपने संसदीय अधिकारों का इस्तेमाल करने का पूरा हक है और विपक्ष को यह अधिकार है कि वह सरकार के कामों का पर्दाफाश करे और संभव हो तो अपने संख्या बल के बूते पर उसे सत्ता से बेदखल कर दे। ऐसा करते हुए विपक्ष को संसदीय प्रणाली के नियमों व आचार संहिता का पालन करना होता है। वह सत्ता पक्ष की शक्ति को किस तरह क्षीण करता है इसमें उन चुने हुए विधायकों की भूमिका ही प्रमुख होती है जो सत्ता पक्ष के साथ होते हैं।
‘दल बदल’ कानून के लागू रहते किसी पार्टी में विभाजन तभी माना जायेगा जब उसके दो तिहाई सदस्य सामूहिक रूप से पाला बदल की घोषणा कर दें। इस कानून की गिरफ्त से बचने के लिए सत्ता पक्ष के कुछ विधायकों द्वारा इस्तीफा करा कर सदन की सदस्य शक्ति कम करके अल्पमत व बहुमत के समीकरण बदलने का तरीका इजाद किया गया। हालांकि यह तकनीक सबसे पहले भारत के एक छोटे राज्य गोवा में 2001 के लगभग कांग्रेस के धुरंधर माने जाने वाले स्व. प्रियरंजन दास मुंशी ने ही वहां कांग्रेस की सरकार गिराये जाने के जवाब में खोजी थी परन्तु भाजपा ने सत्ता में आने के बाद इसे धारदार औजार बना कर कर्नाटक जैसे बड़े राज्य में चलाया। यह लोकतन्त्र के चुने हुए संस्थानों में बैठे प्रतिनिधियों की नीलामी से बदतर तजवीज नहीं थी मगर कामयाब हो रही थी।
इसके कैफियत में जाये बिना इतना जरूर कहा जा सकता है कि चुनावों में जीतने वाले पार्टियों के प्रत्याशी बदले हालात में ‘तिजारती सामान’ की तरह देखे जाने लगे हैं मगर मध्य प्रदेश विधानसभा के भीतर राज्यपाल के अभिभाषण में जो घटा उसकी समालोचना होनी चाहिए। अपने अभिभाषण में राज्यपाल ने बताया कि ‘मेरी सरकार’ ने राज्य के विकास के लिए महत्वपूर्ण योजनाएं बनाई हैं, इसके बाद उन्होंने जोड़ दिया कि सदन के सदस्यों को प्रजातान्त्रिक परंपराओं का पालन करते हुए संविधान के अनुसार काम करना चाहिए, विचारणीय है कि संविधान के अनुसार ही सदन का गठन हुआ है और नियमों के अनुसार ही इसके अध्यक्ष का चुनाव हुआ है।
अध्यक्ष सदन के भीतर सबसे बड़ा ऐसा संवैधानिक पद होता है जिस पर सत्ता व विपक्ष के प्रत्येक सदस्य को एक ही पलड़े में रख कर तोलने की जिम्मेदारी होती है और उनके विशेषाधिकारों समेत सभी हकों के संरक्षण का दायित्व होता है। यह भूमिका वह ‘अराजनैतिक’  नजरिये से निभायें, इसके लिए सदन की नियमावली होती है। अतः अपना इस्तीफा दूसरे माध्यम से भेजने वाले 16 विधायकों की तस्दीक किये बिना सदन को संचालित किस तरह किया जाये, इसके पूरे अधिकार अध्यक्ष के पास होते हैं। अध्यक्ष सदन की नियमावली पुस्तिका के गुलाम होते हैं,  निरापद नहीं हो सकते, उनके पाला बदलने वाले विधायकों के सन्दर्भ में उन्हें एक न्यायाधीश की भूमिका में आना पड़ता है और यहां उनके विवेकाधिकार का सवाल आता है जिसकी व्याख्या ‘कर्नाटक इस्तीफा प्रकरण’  में सर्वोच्च न्यायालय कर चुका है।
मध्य प्रदेश में मचे ‘महाभारत’  का यह महत्वपूर्ण पहलू है, दूसरा पहलू अब सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल भाजपा की याचिका का है। यह याचिका कहती है कि विधानसभा की स्थगित बैठक को तुरन्त बुला कर शक्ति परीक्षण किया जाना चाहिए। जाहिर है कि न्यायालय सदन के 16 कथित इस्तीफा देने वाले विधायकों का संज्ञान लेगा और देखेगा कि क्या उन्होंने अपना इस्तीफा विधानसभा के नियम-कायदों के अनुसार दिया है? जनता द्वारा चुने गये राज्य के सर्वोच्च सदन के सदस्यों के भाग्य का फैसला वीडियो जारी करके या किसी तीसरे नेता को ‘डाकिये’ के तौर पर इस्तेमाल करके दिखाये गये दस्तावेजों के आधार पर हो सकता है? यह प्रश्न भी न्यायालय हमेशा के लिए सुलझा सकता है। तीसरा दीगर सवाल राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र का आता है।
श्री टंडन स्वयं अभिभाषण देकर घोषणा कर चुके हैं कि कमलनाथ सरकार पूरी तरह संवैधानिक सरकार है, उनके पास विपक्ष के नेताओं का सदन के चलते ज्ञापन देकर यह मांग करना कि वह शक्ति परीक्षण के लिए निर्देश दें उनकी ही संवैधानिक मर्यादा की सीमाओं को तोड़ने का आग्रह करने जैसा है। विवादास्पद 16 विधायकों ने व्यक्तिगत रूप से राज्यपाल को भी अपने इस्तीफे देना उचित नहीं समझा। दूसरी तरफ इन 16 के अलावा जिन छह मन्त्रियों ने इस्तीफे दिये थे उन्हें मुख्यमन्त्री की सलाह पर राज्यपाल स्वीकार कर चुके हैं और उनकी सदस्यता भी अध्यक्ष ने बर्खास्त कर दी है। मन्त्रियों की सदस्यता समाप्त करने में अध्यक्ष ने सदन के अलग नियम को लागू करते हुए आश्वस्त पाया कि वे किसी लालच के वशीभूत नहीं हैं क्योंकि वे तो मन्त्री पद त्याग रहे हैं परन्तु सामान्य सदस्यों के मामले में स्थिति दूसरी मानी जायेगी। उनके द्वारा इस्तीफा देने के कारणों की जांच-पड़ताल करना अध्यक्ष का दायित्व बनता है।
सदस्यों को मिले विशेषाधिकार उन्हें अधिकृत करते हैं कि वे बिना किसी डर या खौफ के अपनी स्थिति प्रकट करें और अपने राज्य की राजधानी भोपाल में आकर ही अपना मत व्यक्त करें। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इन विधायकों की ‘निजी स्वतन्त्रता’ का मुद्दा भी आ सकता है क्योंकि वे अपनी गतिविधियां दूसरे राज्य की राजधानी  बेंगलुरू में बैठ कर चला रहे हैं मगर राज्यपाल तब तक सरकार को शक्ति परीक्षण का निर्देश नहीं दे सकते जब तक कि सदन के भीतर ही किसी असंवैधानिक कार्य की शिकायत उनसे नियमानुसार की जाये मगर मध्य प्रदेश में तो मामला ही दूसरा है। इस्तीफा देने वाले विधायक बेंगलुरु में बैठे हुए हैं और अध्यक्ष से मिलने को भी तैयार नहीं।
राज्यपाल भी तभी अपना संवैधानिक दायित्य सत्यता से निभा सकते हैं जब ये 16 विधायक व्यक्तिगत रूप से उनसे मिल कर अपना इस्तीफा स्वीकार किये जाने पर जोर डालें। उस परिस्थिति में राज्यपाल जरूर सरकार से अपना बहुमत साबित करने को कह सकते हैं परन्तु इसकी जरूरत भी सदन के चलते क्यों पड़े जबकि विपक्ष के पास ‘अविश्वास प्रस्ताव’ रखने का हथियार है। ऐसा प्रस्ताव छह महीने में एक बार आ सकता है और सदन के नये सत्र में भी समय देख कर रखा जा सकता है।

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