देश के दो महत्वपूर्ण राज्यों महाराष्ट्र व झारखंड में आज बुधवार को मतदान पूरा होने जा रहा है। इनमें महाराष्ट्र की सभी 288 सीटें शामिल हैं जबकि झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा की 43 सीटों पर विगत 13 नवम्बर को पहले चरण का मतदान हो चुका है। दोनों ही राज्य भारत की विविधता व विशालता को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक ओर जहां महाराष्ट्र सामाजिक बदलाव व न्याय के प्रतीक शिवाजी महाराज, छत्रपति शाहू जी महाराज से लेकर महात्मा ज्योतिर्बा फुले व बाबा साहेब अम्बेडकर की कर्मभूमि रहा है वहीं झारखंड एेसा आदिवासी बहुल राज्य है जिसकी धरती तो सोना उगलती रही है मगर इसमें बसने वाले लोग बहुत गरीब माने जाते हैं। इसी वजह से इसे ‘अमीर धरती का गरीब राज्य’ भी कहा जाता है। बिहार से अलग होकर इस राज्य को 2000 में ही बनाया गया था। जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है तो यह वर्तमान राज्य बम्बई राज्य से अलग करके 1960 में अस्तित्व में गुजरात के साथ आया। इस राज्य का ब्यौरा भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है क्योंकि इस राज्य से सामाजिक परिवर्तन की जो धारा फूटी उसका असर पूरे देश पर पड़ा। मगर महाराष्ट्र में ताजा चुनावों के दौरान राजनैतिक दलों ने जो ‘वैचारिक गरीबी’ दिखाई है वह भारतीय लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक कही जायेगी। अतः चुनावों में स्तर व वैचारिक परिपक्वता दिखाने का सारा दारोमदार अब यहां के मतदाताओं पर है। वैसे अगर हम स्वतन्त्र भारत के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो पाते हैं कि जब-जब भी राजनैतिक नेता अपना रास्ता भूले हैं तो जनता ने ही उन्हें मार्ग दिखाने का काम किया है।
महाराष्ट्र इस मामले में सबसे आगे इसलिए रहा क्योंकि वैचारिक सोच और आगे बढ़ने के बदलाव का यह ‘हरावल दस्ता’ बना रहा। इस राज्य की धरती पर जो भी प्रमुख सन्त हुए वे भी सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत ही कहलाये, चाहे वह नामदेव हों या तुकाराम। अतः इस राज्य की धरती के लोग हमेशा भविष्य देखकर ही अपनी राजनैतिक दिशा तय करते रहे हैं। भूतकाल के महिमामंडन का इन पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है और न ही साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण के हक में यहां की जनता रही है। यही वजह है कि राज्य में प्रगतिशील शक्तियों के मजबूत होने की वजह से यह देश के औद्योगीकरण व पूंजीकरण में भी आगे रहा। हालांकि इसके कुछ इलाके जैसे विदर्भ अपेक्षाकृत पिछड़े माने जाते हैं मगर यहां के लोगों की सोच सर्वदा ही प्रगतिशील रही है। इसी कारण से इस राज्य में दक्षिणपंथी या प्रतिक्रियावादी माने जाने वाली राजनैतिक शक्तियां पिछले पायदान पर रही हैं। बेशक इस राज्य में शिवसेना जैसी राजनैतिक पार्टी क्षेत्रीय अस्मिता और मराठी गौरव के नाम पर अपनी पैठ बनाने में सफल रही मगर यह सफलता वह तभी प्राप्त कर पाई जब उसने महाराष्ट्रवासियों के जीवन के सभी इलाकों में अपनी पैठ मजबूत की और मजदूर आन्दोलनों तक में इसकी प्रमुख हिस्सेदारी बनी। वरना यह राज्य कमोबेश रूप से कांग्रेस पार्टी का गढ़ ही माना जाता रहा। वर्तमान चुनावों में असली मुकाबला कांग्रेस समाहित महाविकास अघाड़ी गठबन्धन व भाजपा समाहित महायुति गठबन्धन के बीच ही हो रहा है। यह दुखद है कि महीनों तक इस राज्य के चुनावों में दोनों गठबन्धनों में से कोई भी एेसा जन विमर्श खड़ा नहीं कर पाया जो राजनीति की दिशा तय कर सके। मगर चुनाव प्रचार के अन्तिम चरण में लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी महाविकास अघाड़ी की तरफ से एेसा जन विमर्श खड़ा करने में कामयाब हो गये जिससे लड़ाई सीधे आर्थिक व सामाजिक मुद्दों पर आकर ठहर गई। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि महाराष्ट्र की अस्मिता का सम्बन्ध केवल सामाजिक सरोकारों से ही नहीं है बल्कि आर्थिक सरोकारों से भी है।
यह देश की वित्तीय राजधानी मुम्बई का भी प्रदेश है। उत्तर प्रदेश के बाद यह देश का सबसे बड़ा राज्य है जहां से 48 सांसद चुनकर लोकसभा में जाते हैं। लोकसभा चुनावों में इस राज्य ने विपक्षी इंडिया गठबन्धन को बढ़त दी थी। अतः कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों की राय है कि राष्ट्रीय चुनावों का ‘संवेग’ विधानसभा चुनावों में भी बना रह सकता है। श्री राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के अन्तिम दिन जिस तरह से चुनाव को पूंजीवाद बनाम लोक कल्याणकारी राज का बनाने की कोशिश की है उससे यह तो आभास हो सकता है कि महाराष्ट्र की राजनीति को इसके मिजाज पर खरा उतारने की कोशिश हो रही है कि अन्त में लोग बजाये धार्मिक मुद्दों के आर्थिक मुद्दों को अपनाना स्वीकार करें परन्तु इस बात की गारंटी कैसे दी जा सकती है कि विजय इसी पक्ष की होगी क्योंकि कांग्रेस के साथ जो दो सहयोगी दल शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस हैं उन्हीं के टूटे हुए संगठन महायुति गठबन्धन में भाजपा के साथ भी हैं जिनका नेतृत्व क्रमशः मुख्यमन्त्री एकनाथ शिन्दे व अजित पवार कर रहे हैं। इसके साथ चुनाव के दौरान जो खबरें मिली उनसे यह भी सिद्ध हो गया कि राज्य की राजनीति में उद्योगपति सीधे हस्तक्षेप कर रहे हैं। इस मुद्दे को भी राहुल गांधी ने बहुत तेज हवा दी है। मगर यह भी तय है कि दोनों गठबन्धन किसी क्षेत्रीय नेता को आगे रखकर ये चुनाव नहीं लड़ रहे हैं हालांकि महाविकास अघाड़ी में श्री शरद पवार जैसे सबसे अधिक लोकप्रिय व शक्तिशाली नेता हैं मगर उनका कद राष्ट्रीय स्तर का भी माना जाता है। भाजपा की तरफ से भी देवेन्द्र फडणनवीस व एकनाथ शिन्दे हैं मगर भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व ही चुनाव प्रचार की कमान संभाले रहा। दोनों में से किसी ने भी किसी क्षेत्रीय नेता को भावी मुख्यमन्त्री के तौर पर पेश नहीं किया। अतः महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना निश्चित माना जा रहा है। जबकि झारखंड में सत्तारूढ़ इंडिया गठबन्धन वर्तमान मुख्यमन्त्री हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है मगर भाजपा नीत एनडीए ने यहां भी किसी नेता को भावी मुख्यमन्त्री के तौर पर पेश नहीं किया है। संसदीय लोकतन्त्र की सेहत की नजर से इसमें जरा भी बुराई नहीं है।