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गलतियों में अव्वल नम्बर आता महाराष्ट्र !

कोरोना वायरस के कारण लाॅकडाउन के चलते महाराष्ट्र राज्य कानून-व्यवस्था से लेकर संक्रमण के विरुद्ध अपनी विफलताओं के कारण पूरे देश में सुर्खियों में आ रहा है।

कोरोना वायरस के कारण लाॅकडाउन के चलते महाराष्ट्र राज्य कानून-व्यवस्था से लेकर संक्रमण के विरुद्ध अपनी विफलताओं के कारण पूरे देश में सुर्खियों में आ रहा है। राज्य की तिकड़ी ‘कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस-शिवसेना’ सरकार जिस तरह इन मोर्चों पर विफल हो रही है उसे देखते हुए लगता है कि राज्य में प्रशासन ढीलमढाला चल रहा है और कोरोना प्रबन्धन की इसकी रणनीति कारगर नहीं है। इसके साथ ही महाराष्ट्र की पुलिस ने जिस तरह तीन सप्ताह पहले घटी पालघर बर्बर घटना को ‘माॅब लिंचिंग’ की घटना के स्वरूप में लिया है वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। इस वीभत्स कांड में जूना अखाड़े के दो साधुओं की उनके सारथी के साथ तब हत्या कर दी गई थी जब वे कान्दीवली, मुम्बई से गुजरात के सूरत शहर में एक अन्य सन्त के अन्तिम संस्कार में शामिल होने जा रहे थे। इसके अलावा आज ही औरंगाबाद रेल क्षेत्र में 16 मजदूरों की रेलपटरी पर कट कर जिस तरह मृत्यु हुई है वह भी स्वयं में किसी दिल दहलाने वाले कांड से कम नहीं है।
महाराष्ट्र देश में औद्योगिक व वाणिज्यिक गतिविधियों का सिरमौर राज्य माना जाता है परन्तु आजकल यह विसंगतियों का शीर्ष स्थल जैसा बना हुआ है। पूरे देश में कुल कोरोना ग्रस्त लोगों में इसका हिस्सा 36 प्रतिशत है जो लगभग 18000 लोगों का बनता है। संक्रमण से मरने वालों की संख्या भी इसी राज्य में सर्वाधिक है। इसमें भी मुम्बई व पुणे जैसे महानगरों का हिस्सा 90 प्रतिशत है। ये दोनों शहर ‘प्रवासी गैर देशज’ नागरिकों  की बदौलत ‘बारौनक’ रहते हैं और राज्य सरकार ने अभी तक प्रवासी मजदूरों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए कोई योजना तैयार नहीं की है। इसके साथ ही आज ही मुख्यमन्त्री श्री उद्धव ठाकरे ने अपने राज्य के राजनैतिक दलों की सर्वदलीय बैठक में इशारा कर दिया कि लाॅकडाउन पूरे मई के महीने तक लागू रह सकता है। ऐसी स्थिति भारत के इस विकसित राज्य के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। इन परिस्थितियों को देख कर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि तीन दलों की खिचड़ी सरकार कहीं न कहीं  आपसी द्वन्द में उलझी हुई है। सरकार में शामिल राजनैतिक दलों के मन्त्री अपने-अपने विभागों से ही मतलब रख रहे हैं और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना से काम नहीं कर रहे हैं।
मुम्बई के ‘सायन अस्पताल’ में जिस तरह शवों के बीच एक कोरोना पीड़ित व्यक्ति का इलाज चल रहा था उसे देख कर तो कोरोना पीड़ित अस्पताल के नाम से ही घबराने लगेंगे और अपनी बीमारी को छिपाने की कोशिशें करेंगे? मगर इतना ही फसाना नहीं है। आम आदमी के मनोबल को तोड़ने के और भी कई अफसाने हैं। मुम्बई उच्च न्यायलय के एक ताजा फैसले ने महाराष्ट्र सरकार की बेजा हरकतों का पर्दाफाश कर डाला है और कहा है कि कोरोना की आड़ में किसी भी व्यक्ति को जबर्दस्ती हिरासत में लेकर एकान्तवास में नहीं भेजा सकता। इस प्रावधान का इस्तेमाल पुलिस जबरन नजरबन्दी या हिरासत के तौर पर नहीं कर सकती। क्या कमाल किया मुम्बई पुलिस ने कि सीटू के अध्यक्ष मजदूर नेता के. नारायणन को मजदूरों को राहत सामग्री बांटने के ‘अपराध’ में ही हिरासत में लेकर जबरन एकान्तवास में भेज दिया जबकि उनमें कोरोना के कोई लक्षण नहीं थे। उन्हें 14 दिन तक जबरन एकान्तवास में रख कर विगत 5 मई को उच्च न्यायालय के आदेश पर रिहा किया गया।  उनका कोरोना परीक्षण कराया गया जो नकारात्मक आया। पुलिस उन्हें पढ़ाती रही कि मुम्बई महापालिका के आदेश पर उन्हें हिरासत में लिया गया है और महापालिका उनकी नजरबन्दी से खुद को अनभिज्ञ बताती रही। मजबूरन उन्हें उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ा।
सवाल यह नहीं है कि नारायणन एक कम्युनिस्ट नेता हैं बल्कि सवाल यह है कि वह इस देश के सम्मानित नागरिक हैं। कोई भी नागरिक किसी भी राजनैतिक विचारधारा का हो सकता है। भारत का महान लोकतन्त्र इसकी इजाजत हर नागरिक को देता है बेशक पुलिस कोरोना से लड़ने में प्रमुख भूमिका निभा रही है मगर लाॅकडाउन के तहत मिले अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करने का हक उसे भारत का संविधान नहीं देता है। श्री नारायणन के खिलाफ मनचाही दफाएं लगा कर पुलिस ने जिस तरह उन्हें हिरासत में डाले रखा उसका पर्दाफाश उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कर डाला। यही लोकतन्त्र की असली ताकत होती है जिससे पता चलता है कि सरकार अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने में किस कदर लापरवाह हो चुकी है। ठीक ऐसा ही मामला पालघर में भी हुआ, जब हिन्दू सम्प्रदाय के सनातनी मत के अखाड़े के दो साधुओं की हत्या पीट-पीट कर पुलिस की मौजूदगी में विगत 16 अप्रैल को की गई मगर क्या कयामत है कि राज्य के राष्ट्रवादी कांग्रेस कोटे के गृहमन्त्री अनिल देशमुख पालघर का दौरा करने गये और वहां जाकर उन्होंने जिले के पुलिस कप्तान को जबरन छुट्टी पर भेज दिया। यह ‘गुड़ खाकर गुलगुलों से परहेज’ के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।
आखिरकार साधुओं की हत्या जब पुलिस की मौजूदगी में ही इस तरह की गई कि 70 वर्ष के कल्पवृक्ष गिरी जी महाराज को खुद पुलिस के कांस्टेबल ने भीड़ के हवाले कर दिया तो शक की गुंजाइश कहां रह जाती है कि पुलिस पूरे राक्षसी कांड में संलिप्त नहीं है? अब इसकी जांच पुलिस की ही गुप्तचर शाखा से कराने का क्या मतलब हो सकता है, जब तक कि पूरा मामला सीबीआई या एनआईए को न सौंपा जाये? ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें पूरे देश का साधू व सन्त समाज महाराष्ट्र सरकार से पूछ रहा है परन्तु हुकूमत है कि माॅब लिंचिंग का ‘तराना’ गाये जा रही है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने यह सवाल नाहक ही खड़ा नहीं किया था कि हत्या पुलिस की मौजूदगी में कैसे हुई? प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुलिस क्या माॅब लिंचिंग का नजारा ताकने के लिए होती है?

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