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संसद की गंभीरता कायम रहे

भारत की संसदीय प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह आंख मीच कर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की नकल नहीं है बल्कि लोकतन्त्र की शुचिता और पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए हमारे पुरखों ने ब्रिटिश संसद का उदाहरण सामने रखते हुए ऐसे संशोधन किये जिससे भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली हर चुनौती का किसी भी समय मुकाबला कर सके।

भारत की संसदीय प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह आंख मीच कर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की नकल नहीं है बल्कि लोकतन्त्र की शुचिता और पवित्रता को सुनिश्चित करने के लिए हमारे पुरखों ने ब्रिटिश संसद का उदाहरण सामने रखते हुए ऐसे संशोधन किये जिससे भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली हर चुनौती का किसी भी समय मुकाबला कर सके। संसद की स्वतन्त्र सत्ता कायम रखने के लिए ब्रिटिश काल की सेंट्रल एसेम्बली के अध्यक्ष रहे स्व. जी.वी. मावलंकर ने लोकसभा अध्यक्ष को किसी भी सरकार के दबाव से मुक्त रखने के लिए ही उसके पृथक सचिवालय का खाका खींचा और राज्यसभा के सभापति के पद पर हमारे संविधान निर्माताओं ने सीधे उपराष्ट्रपति को बैठाने की व्यवस्था की। इसका मन्तव्य एक ही था कि हर हाल में संसद के भीतर पहुंचने वाले हर पार्टी के सदस्य की स्वतन्त्रता और निर्भीकता कायम रहे, जिसके लिए उसे विशेषाधिकारों से लैस किया गया। संसद के दोनों सदनों के भीतर प्रधानमन्त्री से लेकर उनके मन्त्रिमंडल के विभिन्न मन्त्रियों को जवाबदेह बनाने के लिए प्रश्न पूछने के दिन नियत किये गये। इतना ही नहीं सरकार के मन्त्रियों से लेकर साधारण सदस्यों के सदन के भीतर आचरण की तसदीक करने के अधिकार सीधे अध्यक्ष के सुपुर्द किये गये।
यह व्यवस्था कोई सामान्य लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं है बल्कि पूरी दुनिया की सबसे अनूठी लोकतान्त्रिक प्रणाली है जिसकी वजह से भारत दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र कहलाता है।  इस सर्वोच्चता को कायम रखना हर पीढ़ी का परम कर्त्तव्य है परन्तु आजकल हम देख रहे हैं कि संसद में किस प्रकार का वातावरण बना हुआ है। दस-दस मिनट में तीन-तीन विधेयक पारित हो रहे हैं जबकि सदन के भीतर भारी शोर-शराबा और हंगामा समानान्तर रूप से चलता रहता है। यह उस जनता का सीधे अपमान है जो इन जो संसद के दोनों सदनों में अपने प्रतिनिधि प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से चुन कर भेजती है। संसद का सत्र चालू रहे और दिल्ली में ही नौ वर्ष की एक दलित कन्या के साथ अमानुषिक कृत्य हो जाये और उस पर सदन के भीतर बहस न हो?
आखिरकार हम किस युग में जी रहे हैं। स्वतन्त्रता के 74 वर्ष बाद भी यदि दलित के घर बेटी पैदा होना अभिशाप है तो ऐसे लोकतन्त्र को लेकर जातियों में बुरी तरह बंटा हुआ भारतीय हिन्दू समाज क्या करेगा? देश की राजधानी में ही यदि निर्भया जैसे कांडों का जारी रहना चालू है तो संसद में किस ज्वलन्त समस्या पर विचार किया जायेगा? लोकतन्त्र में संसद का काम केवल कानून बनाना नहीं होता बल्कि लोगों के जीवन में बदलाव लाना होता है। नये कानून इसीलिए बनाये जाते हैं जिससे लोगों का जीवन बेहतर हो सके। क्या गजब का नजारा बना हुआ है संसद में कि किसी एक विषय पर रचनात्मक बहस ही नहीं हो पा रही है जबकि देश में समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। आखिरकार आठ महीने से ज्यादा समय से आन्दोलनरत किसानों की कुछ तो ‘पीर’ होगी जिस पर संसद को विचार करना चाहिए। जहां तक पेगासस का सम्बन्ध है तो सत्ता और विपक्ष को आपस में बैठ कर इस मुद्दे पर बहस के बिन्दुओं पर सहमत होने में कौन सी बाधा है? संसद के नियमों के अनुसार ही पूर्व में ही देश की इस सबसे बड़ी पंचायत में हर विषय पर चर्चा होती रही है। याद कीजिये निर्भया कांड होने पर भारत की संसद किस तरह गरजी थी और विपक्ष की नेता स्व. सुषमा स्वराज ने 2012 में दिल्ली को बलात्कार की राजधानी तक बता दिया था। मगर उस बहस से हमें कुछ अच्छे परिणाम भी मिले थे। महिलाओं की सुरक्षा के लिए संसद ने ही कुछ सख्त कानून बनाये थे।
अतः जब बहस होगी तभी तो कुछ हल निकलेगा। इस साधारण सी बात को हम क्यों नहीं समझ रहे हैं और दोनों पक्ष क्यों जिद पर अड़े हुए हैं। तैयार कार्यक्रम के अनुसार संसद केवल 13 अगस्त तक चलनी है अभी इसकी चार बैठकें और बाकी हैं। इन दिनों का उपयोग यदि सत्ता और विपक्ष चाहे तो आम लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए कर सकते हैं और उनके हितों को सर्वोपरि मानते हुए ज्वलन्त विषयों पर बहस करके हल निकाल सकते हैं। मगर इसके लिए संसद को गंभीरता से लेना होगा। संसद में दुश्मनी नहीं होती है प्रतिद्वन्द्विता होती है। यह प्रतियोगिता लोगों के कल्याण की होती है न कि अपने- अपने दलों के हित साधने की। आखिरकार लोकसभा और राज्यसभा की कार्य मन्त्रणा समितियां किस लिए होती हैं ?

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