प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ने दशहरे या विजय दशमी से अगले दिन मोहर्रम का पर्व आ जाने पर दुर्गा प्रतिमाओं के जल विसर्जन के लिए जो नियम बनाया था उसे कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निरस्त करते हुए निर्देश दिया है कि मोहर्रम और प्रतिमा विसर्जन का कार्यक्रम साथ-साथ चलना चाहिए और राज्य सरकार को साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए सभी प्रकार के पुख्ता सुरक्षा इन्तजाम करने चाहिए। वस्तुतः उच्च न्यायालय के आदेश में यह रेखांकित किया गया है कि भारत में रहने वाले विभिन्न धर्मावलम्बियों के तीज-त्यौहार एक ही दिन पड़ जाने पर उन्हें समानान्तर रूप से साथ-साथ क्यों नहीं मनाया जा सकता है? मगर इसके साथ यह भी वास्तविकता है कि कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का विशिष्ट अधिकार है और इसे बनाये रखने के लिए वह जरूरी उपाय करने के लिए स्वतंत्र है। पिछले कुछ समय से प. बंगाल के कुछ हिस्सों में जिस प्रकार की साम्प्रदायिक उन्माद की घटनाएं घट रही हैं उन्हें देखते हुए राज्य सरकार का समय रहते सचेत होकर आवश्यक कदम उठाना कोई गलत काम नहीं था।
मगर इसके साथ यह भी देखना जरूरी है कि क्या राज्य सरकार की मंशा ऐसे कदम उठाते समय किसी विशेष समुदाय को प्रसन्न करने की तो नहीं थी? केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ममता दी पर यह आरोप लगा रही है कि वह मुस्लिम तुष्टीकरण की दृष्टि से ऐसे काम करती हैं जिससे उन्हें चुनावी लाभ हो क्योंकि राज्य में मुस्लिम जनसंख्या २७ प्रतिशत के आसपास है। दूसरी तरफ ममता दी का कहना है कि उनके लिए सभी धर्म बराबर हैं। वह जब च्छट पूजाज् के उत्सव में शरीक होती हैं तो पूरे बिहारी अन्दाज में लोगों का अभिवादन करती हैं और च्बुद्ध पूर्मिमाज् में शामिल होती हैं तो पूरे बौद्ध तरीके से इस पर्व को मनाती हैं और जब किसी मुस्लिम त्यौहार में शरीक होती हैं तो उसी धर्म की रीतियों के अनुसार व्यवहार करती हैं। इसमें किसी के तुषटीकरण का सवाल कहां पैदा होता है। वह जन्म से हिन्दू हैं और दुर्गा पूजा किसी भी आम बंगाली की भांति पूरे हर्षोल्लास के साथ ही मनाती हैं।
राज्य की शासक होने के नाते ममता दी के इस सर्वधर्म समभाव के नजरियों को कोई गलत नहीं बता सकता क्योंकि एक मुख्यमन्त्री के रूप में उनका कोई धर्म नहीं हो सकता जबकि एक व्यक्ति के रूप में उनका धर्म निजी तौर पर हो सकता है। मगर मसला दुर्गा प्रतिमा विसर्जन और मोहर्रम का है। एक प्रशासक होने के नाते अगर ममता दी को अपनी गुप्तचर शाखा के माध्यम से यह जानकारी मिली थी कि मोहर्रम के दिन दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन कार्यक्रम के चलते कुछ लोग साम्प्रदायिक दंगे भड़काने का काम कर सकते हैं तो उन्हें इसका खुलासा सार्वजनिक रूप से करना चाहिए था और यदि उनकी यह आशंका थी कि मोहर्रम और दुर्गा विसर्जन के मार्गों को लेकर दोनों सम्प्रदायों के लोगों के बीच तनाव का वातावरण बन सकता है तो उन्हें पुलिस प्रशासन की मदद से इसका हल खोजना चाहिए था। मगर उन्होंने इस मुद्दे को राजनीतिक लहजे में हल करने की कोशिश की जिसका नतीजा भी राजनीतिक ही निकलना था। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि ममता दी प. बंगाल की सर्वाधिक लोकप्रिय जन नेता हैं और जमीन से उठ कर वह वहां के लोगों की प्रिय बनी हैं अतः उनका यह दायित्व बनता था कि वह राज्य के लोगों को अपनी आशंकाओं के बारे में आगाह करतीं।
वैसे जो लोग इस भ्रम में हैं कि प. बंगाल जैसे राज्य में साम्प्रदायिक उन्माद फैला कर राजनीति की सीढि़यां चढ़ी जा सकती हैं तो उनके हाथ में निराशा ही लगेगी क्योंकि यह वह राज्य हैं जहां का हर वयस्क मतदाता राष्ट्रवाद से लेकर मार्क्सवाद और गांधीवाद पर खुल कर बहस कर सकता है। यहां की महान बंगला संस्कृति में इतनी शक्ति है कि वह हिन्दू-मुस्लिम विवाद को अपने विशाल आंचल में छिपाने की कूव्वत रखती है। यहां काजी नजरुल इस्लाम का सम्मान भी हिन्दू-मुस्लिम पहचान से ऊपर है और गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का भी। यह क्या छोटी बात है कि पड़ोस के बंगलादेश का राष्ट्र गान गुरुदेव टैगोर की कालजयी कृति हैं।
यह उन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की धरती है जिनकी आजाद हिन्द फौज का नारा च्जय हिन्दज् उनके एक मुस्लिम सैनिक सहायक ने लिखा था। मैं फिर याद दिलाता हूं कि बंगालियों को धर्म भेद और मजहब के दायरों से बाहर रख कर एकता के सूत्र में बांधे रखने की यदि कोई सबसे बड़ी ताकत है तो वह उनकी भाषा बांग्ला है और इतिहास गवाह है कि बंग्ला साहित्य का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर गुणात्मक रूप से पड़ा है। अतः ममता दी को फैसला करने से पहले जरूर विचार करना चाहिए था कि मोहर्रम और प्रतिमा विसर्जन को खांचे में बांट कर वह खुद बंगाल की ताकत को ही कमतर करके आंक रही हैं। अतः उच्च न्यायालय का आदेश पूरी तरह तार्किक है और राजनीति से परे हैं।