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ममता, नंदीग्राम और चुनाव!

जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी तृणणूल कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सांसद व रेलमन्त्री श्री दिनेश त्रिवेदी ने भाजपा की सदस्यता पूरी शान-ओ-शौकत के साथ ग्रहण कर ली।

जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी तृणणूल कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सांसद व रेलमन्त्री श्री दिनेश त्रिवेदी ने भाजपा की सदस्यता पूरी शान-ओ-शौकत के साथ ग्रहण कर ली। उनके भाजपा में जाने से तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता दीदी को झटका लगेगा या नहीं, यह  पूरे यकीन के साथ इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि श्री त्रिवेदी कोई जमीनी नेता नहीं हैं। उन्हें राजनीतिक वजूद देने में ममता दीदी की ही प्रमुख भूमिका इस प्रकार रही कि 2011 में वह यूपीए-2 सरकार में ऐसे संक्रमण काल में रेलमन्त्री बनाये गये थे जिसे प. बंगाल के विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक सफलता प्राप्त करने के बाद ममता ने राज्य का मुख्यमन्त्री पद संभालने के लिए स्वयं यूपीए-2 सरकार में रेलमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया था। 
ममता ने तब अपनी पार्टी के कोटे से यूपीए सरकार में रेलमन्त्री पद पर श्री त्रिवेदी को बैठाना पसन्द किया था। मगर यह भी कम रोचक प्रसंग नहीं है कि उनकी रेलमन्त्री पद से बिदाई भी बहुत नाटकीय परिस्थितियों में 2012 मार्च में तब की गई थी जब वह लोकसभा में रेल बजट रख चुके थे और उनके स्थान पर ममता ने उन्हें सरकार से हटवाने की अनुशंसा करके श्री मुकुल राय को रेलमन्त्री पद पर बैठवाया था। यह भारत के संसदीय इतिहास की पहली अनोखी घटना थी कि जब रेल बजट किसी एक मन्त्री ने रखा हो और उसे पारित किसी दूसरे मन्त्री ने कराया हो। मगर यह भी अजीब संयोग है कि आज ये दोनों ही पूर्व तृणमूल कांग्रेस नेता व रेलमन्त्री भाजपा में हैं। इससे यह भी पता चलता है कि ममता दी राजनीति में किसी लकीर की फकीर नहीं दिखना चाहतीं और हर चुनौती का मुकाबला अपने ही ढंग से करने में विश्वास रखती हैं। अतः यह बेवजह नहीं है कि वह विधानसभा चुनावों में अपनी पारंपरिक कोलकाता शहर की ‘भवानी पुर’ सीट छोड़ कर इस बार ठेठ ग्रामीण इलाके ‘नंदीग्राम’ से चुनाव लड़ रही हैं। नंदीग्राम प. मिदनापुर जिले का  वही स्थान है जहां 2007 में मार्क्सवादी पार्टी की तत्कालीन बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार एक विशेष आर्थिक परिक्षेत्र ( एस ई जेड) बनाना चाहती थी और इसके लिए वहां के किसानों की 10 हजार एकड़ भूमि अधिग्रहित करना चाहती थी।  किसानों की भूमि जबरन अधिग्रहित किये जाने पर तब स्थानीय किसानों ने अपनी एक संस्था बना कर विरोध किया था और बाद में इसकी कमान स्वयं ममता ने अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में संभाल ली थी। तब मार्क्सवादी पार्टी के समर्थकों और किसानों के बीच कई बार हिंसक झड़पें हुई थीं और राज्य की मार्क्सवादी सरकार ने भी पुलिस बल का सहारा लेकर किसानों को दरकिनार करने की कोशिश की थी। जिसमें एक अनुमान के पुलिस गोली से ही 17 किसानों की मृत्यु हो गई थी परन्तु ये हिंसक संघर्ष के दौर कई बार चले और अगले वर्ष 2008 में भी इसका दौर जारी रहा जिसमें दो सौ से अधिक लोगों के मरने की आशंका व्यक्त की गई थी। ममता के साथ इस आंदोलन में शुभेन्द्र अधिकारी कंधे से कंधा मिला कर खड़े हुए थे। अब शुभेन्द्र अधिकारी भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
उन्होंने ही ममता दी को चुनौती दी थी कि ममता दी में अगर हिम्मत है तो वह नन्दी ग्राम से चुनाव लड़ कर दिखायें। ममता ने इस चुनौती को स्वीकार करने की जगह झपटा और यहीं से चुनाव लड़ने का एेलान कर दिया। दरअसल नन्दी ग्राम में बुद्धदेव सरकार 2007 में इंडोनेशिया के ‘सालिम समूह’ द्वारा रसायन क्षेत्र में लगाये जाने वाली उद्योग शृंखला को लगवाना चाहती थी, परन्तु इसकी स्पष्ट भूमि अधिग्रहण नीति न होने की वजह से किसानों में भारी विरोध हुआ था। ममता तब इस किसान आंदोलन की पुरोधा बनकर सामने आई थीं। ठीक ऐसा ही हुगली जिले के शिंगूर ग्राम में भी हुआ था जहां टाटा उद्योग समूह अपनी छोटी नेनो कार परियोजना लगाना चाहता था। इसकी इजाजत भी बुद्धदेव सरकार ने ही टाटा समूह को दी थी। इस परियोजना के लिए नौ हजार एकड़ से अधिक भूमि अधिग्रहित की जानी थी। भूमि अधिग्रहण के लिए राज्य की मार्क्सवादी सरकार ने ‘1898’ का ऐसा कानून लागू किया जिसमें किसानों को अपनी जमीन से सरकार मनमाफिक तरीके से बेदखल कर सकती थी। इसका विरोध भी तब ममता ने जम कर किया। बाद में आंदोलन को देखते हुए टाटा समूह अपनी परियोजना गुजरात राज्य में ले गया  और ममता दी ने जिन किसानों की जमीन अधिग्रहित की गई थी, उन्हें वापस दिलायी और उल्टे सरकार से कुछ मुआवजा भी दिलाया। अतः प. बंगाल के बारे में यह स्पष्ट समझना पड़ेगा कि यहां के चुनाव जन अवधारणाओं पर निर्भर नहीं करते हैं बल्कि जमीनी हकीकत पर निर्भर करते हैं और जमीनी हकीकत यह है कि प. बंगाल में औद्योगीकरण की रफ्तार उस गति से नहीं हुई है जिसकी अपेक्षा इस राज्य की विशिष्ट की स्थिति को देखते हुए की जाती थी। 
आजादी के दौर में और उसके बाद 1967 तक यह राज्य देश के प्रमुख औद्योगीकृत राज्यों में से एक था। 1911 तक कोलकाता ही भारत की राजधानी थी।  इसके बाद तक कोलकाता वाणिज्य से लेकर व्यापार व उद्योग का केन्द्र बना रहा।  मगर अब हालत यह है कि यह राज्य नये उद्योगों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है। ममता के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती है जिसे उनकी विरोधी पार्टी भाजपा जम कर उठा रही है। मगर इस राज्य की जमीन राजनीतिक रूप से बहुत उपजाऊ मानी जाती है जिसमें विविध विचारों की खेती खूब फलती-फूलती रही है। इस राज्य के लोगों पर सतही राजनीति का कम ही असर पड़ता है। मगर दुर्भाग्य से अभी तक इसी तर्ज के नारे और विमर्श को तैराने का प्रयास चारों तरफ से हो रहा है। देखना केवल यह है कि क्या बंगाल में ‘चुनावी रसायन’ तात्विक पदार्थों (मैटर) से तैयार होगा अथवा किसी भी दिशा में बहने वाले ‘तरल’ तरानों से।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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