मणिशंकर अय्यर के कश्मीर जाकर हुर्रियत नेताओं से मिलने पर खासा विवाद खड़ा हो गया है। श्री अय्यर केन्द्र में महत्वपूर्ण विभागों के मन्त्री रह चुके हैं और राजनीति में आने से पहले पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त भी रहे हैं, अत: कश्मीर समस्या के बारे में वह अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा सुविज्ञ कहे जा सकते हैं मगर इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ कथित शान्ति दूतों के साथ मिलकर अलग ढपली पर अपना अलग राग निकालने लगे। कश्मीर समस्या राष्ट्रीय मसला है और इसका हल मौजूदा सरकार के नजरिये से निकालने में मदद की जानी चाहिए। भारत की यह परंपरा रही है कि पाकिस्तान के मसले पर केन्द्र में जिस भी पार्टी की सरकार रही है उसकी नीतियों का समर्थन विपक्ष में बैठे सभी दलों ने किया है खासकर प्रमुख विपक्षी पार्टी ने। इसकी वजह यह रही है कि भारत की विदेश नीति शुरू से ही सर्वसम्मति से चलती रही है। कश्मीर का मामला पाकिस्तान के साथ विवाद से जुड़ा हुआ है अत: विपक्ष ने सरकार के रुख से कभी मतभेद नहीं रखा। बेशक आन्तरिक रूप से कश्मीर मसले पर जनसंघ या भाजपा का विवाद अनुच्छेद 370 को लेकर रहा यही वजह है कि विदेश में जब भी कोई विपक्षी पार्टी का नेता जाता है तो वह वहां जाकर मौजूदा भारत सरकार की नीतियों की ही वकालत करता है मगर कश्मीर को लेकर भारी उलझट्टा बन चुका है।
केन्द्र की मोदी सरकार ऐलान कर चुकी है कि वह स्वयं अलगाववादियों से बातचीत करने का निमन्त्रण उन्हें नहीं देगी। यदि वे सरकार से बात करके अपना दृष्टिकोण रखना चाहते हैं तो उसे सरकार सुनेगी लेकिन सितम यह है कि जम्मू-कश्मीर राज्य की मुख्यमन्त्री महबूबा मुफ्ती का नजरिया इस मामले में अलग है। वह दिल्ली आईं और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से भेंट करने के बाद ऐलान कर गईं कि समस्या का हल ढूंढने के लिए ‘वाजपेयी नीति’ का अनुसरण करना चाहिए। श्री वाजपेयी अपने छह साल के कार्यकाल में कश्मीरियत और इंसानियत की बात करते रहे और समस्या लगातार बढ़ती रही। घाटी से हिन्दुओं और सिखों का पलायन होता रहा। भारतीय फौजों पर तोहमत लगाने का दौर 2002 के बाद ऐसा शुरू हुआ कि सरेआम पेड़ों से बांध कर सैनिकों को पीटा गया। उन्हें बलात्कारी बताया गया। देशभर के कथित मानवाधिकार संगठनों ने भारतीय फौज के खिलाफ मुहिम सी चला दी। यह वातावरण पाकिस्तान परस्त तंजीमों के लिए इतना मुफीद साबित हुआ कि उन्होंने कश्मीर घाटी का इस्लामीकरण करने की योजनाएं बनानी शुरू कर दीं और यहां कि राजनीतिक समस्या को धार्मिक चश्मे से देखने शुरूआत कर डाली।
कश्मीरियत को दफन करने के ये इन्तजाम हुर्रियत के नेताओं ने ही किये और इसके सरगना के तौर पर सैयद गिलानी उभरे। यदि वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण किया जाये तो इस सूबे में हुर्रियत के बीज तब पड़े जब यहां 1990 से 1996 के अन्त तक राज्यपाल शासन रहा। यह दौर केन्द्र में स्व. नरसिम्हा राव की ढुलमुल सरकार का था। इसी दौरान हुर्रियत का गठन हुआ। राजनीतिक खालीपन के दौर में अलगाववादियों ने अपना महासंगठन बना डाला और ये सब मिलकर केन्द्र की सरकारों को डराने लगे। केन्द्र की हर सरकार ने इस संगठन का संज्ञान लेना शुरू किया और इन्होंने खुद को कश्मीर का खैरख्वाह दिखाने की चालें चलनी शुरू कर दीं। केन्द्र से इसके नेताओं को व्यापक सुरक्षा के साथ सारी तीमारदारी अता की गई। इन्होंने धीरे-धीरे पाकिस्तान की बोली बोलनी शुरू की और राष्ट्र विरोध के बदले राज्य की सियासी पार्टियों से सौदेबाजी करनी शुरू कर दी। इस्लामाबाद और रावलपिंडी के इशारे पर इन्होंने कश्मीरियों को आतंकवादियों का चारा बनाने में भी कोई गुरेज नहीं किया और हर उस आवाज पर हामी भरनी शुरू कर दी जो भारत के खिलाफ उठती थी मगर सबसे बड़ा सितम यह किया कि इन्होंने कश्मीर को हिन्दू और मुसलमान में बांटने की तदबीर भिड़ाकर पाकिस्तान के हाथ में मजहबी औजार देने की हिमाकत की लेकिन अब धुंध छंट चुकी है और यह हकीकत सामने आ चुकी है कि किस तरह हुर्रियत के छोटे से लेकर बड़े नेता इस्लामाबाद से मिली रकम के बूते पर कश्मीर को दोजख में बदलने की कार्रवाइयां करते रहे हैं।
इनके हाथ कश्मीर की पूरी पीढ़ी को जाहिल बनाये रखने के करतबों में सने हुए हैं लेकिन अब यह मुमकिन नहीं है क्योंकि केन्द्र में एक बा-इकबाल ऐसी पुख्ता सरकार है जिसने अपनी कश्मीर नीति को तीव्र कार्यशील (प्रोएक्टिव) रूप में रखने की कसम खाई है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर का दौरा किया और वहां उन्होंने राज्य की पीडीपी-भाजपा सरकार के बारे में ऐलान किया कि देश से बड़ी सरकार नहीं हो सकती। जो कुछ भी किया जायेगा राष्ट्र हित में ही किया जायेगा। अत: बहुत साफ है कि श्री अय्यर पत्थरों से पानी की उम्मीद कर रहे हैं और हुर्रियत के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं मगर उन्होंने एक सितम और कर डाला कि रिपब्लिक टीवी के पत्रकारों द्वारा उनकी यात्रा का सबब पूछे जाने पर उन्होंने चैनल को ही राष्ट्र विरोधी बता डाला। क्या कयामत है कि राष्ट्र विरोधियों की चौखट पर खड़े होकर उनसे वफा की उम्मीद लगाने वाले अय्यर ने राष्ट्र भक्तों से ही जफा कर डाली। यह इस बात का पक्का सबूत है कि वह सियासत में खोटे सिक्के हैं। इससे पहले भी वह पाकिस्तान जाकर वहां यह गुहार लगाकर आये थे कि ‘या खुदा हमें मोदी से बचाओ’ और उससे पहले उन्होंने कहा था कि ‘मोदी वजीरेआजम तो नहीं बन सकता मगर कांग्रेस के जलसे में चाय जरूर बेच सकता है।’ या मेरे मौला अय्यर को रोशनी दिखा! उनकी गुस्ताखियों को बख्श।