मणिपुर में कुछ दिन की शांति के बाद फिर हिंसा भड़क उठी। हिंसक भीड़ ने कुछ घरों को जला डाला। कुछ हथियारबंद लोगों ने लोगों को अपनी दुकानें बंद करने के लिए मजबूर किया। आगजनी की घटनाओं के बाद फिर से सेना को तैनात कर दिया गया है और कर्फ्यू लगा दिया गया है। हिंसा की ताजा घटनाओं में भाजपा के एक पूर्व विधायक टी थंग जालम समेत तीन लोगों को हिरासत में लिया गया है। हिंसा की साजिश में एक पूर्व विधायक का शामिल होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। मणिपुर एक महीने से अधिक समय से कई मुद्दों के कारण जातीय संघर्ष झेल रहा है और इस महीने की शुरूआत में पहाड़ी राज्य में तब झड़पें शुरू हुई थीं जब आदिवासियों ने मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के विरोध में 3 मई को एकजुटता मार्च निकाला था। एक सप्ताह से अधिक समय तक चली हिंसा में 71 लोगों की जान चली गई। उपद्रवियों ने करोड़ों की सरकारी सम्पत्ति को जला डाला और दस हजार से ज्यादा लोगों को अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। अपने ही राज्य में हजारों लोगों का शरणार्थी बन जाना बहुत ही दुखद था। मणिपुर में सामाजिक तनाव कम होने का नाम नहीं ले रहा। हिंसा के कारण भले ही पहली नजर में स्थानीय लग रहे हैं लेकिन अगर इस हिंसा के पीछे अर्थ को ढूंढा जाए तो ऐसा लगता है कि यह हिंसा बहुसंख्यकों को भगाने अथवा उन्हें रूपातंरित करने की साजिश का हिस्सा हो सकती है। बहुसंख्यकों पर हमला करना, उनकी धर्मस्थली को नुक्सान पहुंचाना और उनसे क्षेत्र खाली कराना इस हिंसा का उद्देश्य लगता है। मणिपुर की स्थिति पर पैनी नजर रखने वालों का मानना है कि यह हिंसा उस मांग के विरुद्ध है जिसमें मैतेई समाज द्वारा स्वयं को जनजातीय सूची में शामिल करने के लिए की जा रही है। यह समाज भी यहां का मूल निवासी है। सैकड़ों हजारों साल के प्रमाण हैं। ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का तो व्यवस्थित इतिहास है। पर अंग्रेजों ने अपनी विभाजन नीति के अन्तर्गत वन और पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले कूका और नगा समाज को आदिवासी घोषित किया था और उनके रूपान्तरण के लिए मिशनरीज सक्रिय हो गई थीं। चूंकि अंग्रेजों को इस क्षेत्र की वन सम्पदा पर अधिकार करना था। इसलिए उन्होंने इन दो समुदायों को वन और पर्वतीय क्षेत्र का स्वामी तो माना और यह अधिकार भी दिया कि वे घाटी क्षेत्र में बसने के अधिकारी हैं। जबकि मैतेई समाज को वन और पर्वतीय क्षेत्र में मकान, जमीन क्रय करके बसने का अधिकार नहीं दिया। इसलिए यह समाज सिमटता जा रहा है और विवश होकर या तो अन्य प्रांतों में जा रहा है अथवा रूपान्तरित हो रहा है।
1961 की जनगणना में यह समाज साठ प्रतिशत से अधिक था जो अब घटकर चालीस प्रतिशत के आसपास रह गया। अपने सिमटते अस्तित्व से चिंतित इस समाज ने अपने तीन हजार वर्ष पुराने इतिहास को आधार बना कर ही इस समुदाय ने स्वयं अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में शामिल करने की मांग उठाई। मामला अदालत में भी दायर किया। इसके विरोध में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) सामने आया। ताजा हिंसा के पीछे यही संगठन है। मई के प्रथम सप्ताह में हुई यह हिंसा रैली में अकस्मात भड़की हिंसा नहीं अपितु पहले से की गई तैयारी झलकती है। यह िहंसा चुराचांदपुर के ताेरबंग इलाके सेे कांगपोकपी होकर इंफाल तक पहुंची।
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार का राज्य में यह लगातार दूसरा कार्यकाल है। हालांकि बीरेन सिंह अनुभवी राजनेता हैं लेकिन राज्य में हो रही हिंसा ने उन्हें भी कठघरे में ला खड़ा किया है। मणिपुर के सरकार समर्थक समूहों का दावा है कि जनजाति समूह अपने फायदे के लिए बीरेन सरकार को सत्ता से हटाना चाहता है। इसकी वजह यह है कि बीरेन सिंह ने राज्य में मादक पदार्थों के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। जबकि कुकी-जोमी जनजाति के लोग राज्य सरकार की वनभूमि पर अवैध कब्जा कर अफीम की खेती करते हैं। अब यही लोग सरकार के नशा विरोधी अभियान के नाम पर बेदखली अभियान का विरोध कर रहे हैं।
दुर्भाग्य यह है कि साजिशों के विष बीज खत्म नहीं हुए हैं। किसी न किसी बहाने समाज में वैमनस्य फैलाकर तनाव पैदा करने की कोशिशें की जा रही हैं। मणिपुर की हिंसा ईसाइयों और हिन्दुुओं के बीच नजर आ रही है।