भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र इसलिए नहीं है कि जनतन्त्र अपनाने वाले सभी देशों में इसकी आबादी सर्वाधिक है बल्कि इसलिए है कि इसकी समूची संसदीय प्रणाली की प्रशासनिक व्यवस्था संविधान के प्रति जवाबदेह है और संविधान के अनुरूप शासन चलते देखने की जिम्मेदारी इसकी ‘स्वतन्त्र न्याय प्रणाली’ पर इस प्रकार डाली गई है कि वह राजनीतिक बहुमत के बूते पर चलने वाली सरकारों द्वारा नियन्त्रित सत्ता के प्रत्येक प्रतिष्ठान की केवल संविधान की अनुपालना करने की समीक्षा पूरी बेबाकी और निर्भयता के साथ कर सके।
भारत की राजनीतिक बहुदलीय प्रशासनिक व्यवस्था को न्याय के समक्ष दंडवत करने के जो अधिकार संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने स्वतन्त्र न्याय प्रणाली की स्थापना करके सर्वोच्च न्यायालय को दिये थे, उनकी तसदीक आजादी के बाद कई बार हो चुकी है और हर बार भारत के महान न्यायमूर्तियों ने सिद्ध किया है कि न्याय ‘आंख पर पट्टी बांध’ कर ही किया जाता है जिससे ‘सबल’ और ‘निर्बल’ की भौतिक स्थिति का उन पर लेशमात्र भी प्रभाव न पड़ सके। पं. नेहरू के कार्यकाल तक में कई बार न्याय प्रणाली ने अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया परन्तु 1975 में इसने तब सारी मर्यादाओं को नये शिखर पर पहुंचा दिया जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के रायबरेली से लड़े गये चुनाव को अवैध करार देते हुए ऐलान किया कि वह चाहें तो 20 दिनों के भीतर सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकती हैं।
हालांकि इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण व राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन के अध्यादेशों को भी गैर-कानूनी घोषित कर दिया था मगर तब इन्दिराजी ने संसद के माध्यम से संविधान संशोधन पारित करा कर इन्हें संवैधानिक बनाया था। इसके बाद भी कई अवसर आये हैं जब सर्वोच्च न्यायालय ने संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को संविधान की कसौटी पर कसा है। इनमें से एक मामला ऐसा भी था जो सीधे प्रधानमन्त्री की कलम द्वारा किया गया था और इसे विद्वान न्यायमूर्तियों ने ‘असंवैधानिक’ करार दिया था। यह मामला डा. मनमोहन सिंह की सरकार के समय का था जब उन्होंने पहले से ही भ्रष्टाचार के मामले में फंसे एक अफसर की नियुक्ति देश के ‘मुख्य सतर्कता आयुक्त’ के रूप में कर दी थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस नियुक्ति को असंवैधानिक बताया जिससे संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के आंचल पर भी छींटे पड़ने की आशंका पैदा हो गई थी क्योंकि राष्ट्रपति भवन में ही मुख्य सतर्कता आयुक्त को पद व गोपनीयता की शपथ स्वयं तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटील ने दिलाई थी। तब मनमोहन सरकार को नये सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति करनी पड़ी थी। कहने का मतलब सिर्फ यह है कि भारत की व्यवस्था किसी को भी ‘निरापद’ स्थिति नहीं देती है। यहां तक कि राष्ट्रपति व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक को भी। अतः देश की सबसे अधिक शक्तिशाली और ऊंची तथा सबसे ज्यादा विवादास्पद जांच एजेंसी सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय को भी अपनी हर कार्रवाई के लिए न्यायपालिका की गहरी जांच-पड़ताल से होकर गुजरना पड़ता है, परन्तु इस जांच एजेंसी के सामने बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली में नई-नई चुनौतियां आ रही हैं।
मुझे अच्छी तरह याद है कि डा. मनमोहन सिंह की दर्जन से ज्यादा दलों की यूपीए सरकार के सामने जब संकट की घड़ी आया करती थी तो विपक्ष में बैठे भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी संसद तक में खड़े होकर यह कहा करते थे कि मनमोहन सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी ‘सीबीआई’ है। वजह यह थी कि उत्तर प्रदेश के दो क्षेत्रीय दलों बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी के नेताओं क्रमशः सुश्री मायावती व मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति के मामलों की जांच चल रही होती थी और संकट के समय लोकसभा में ये दोनों ही दल कांग्रेस की सरकार का परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन कर देते थे, लेकिन हद तब पार हो गई जब सर्वोच्च न्यायालय ने मनमोहन सरकार के दौरान सीबीआई को ‘पिंजरे में बन्द तोता’ कहा। संयोग से तब देश के गृहमन्त्री पी. चिदम्बरम ही थे जो आजकल आईएनएक्स मीडिया मामले में दोहरे आरोपों के घेरे में हैं।
यह कैसा अजीब इत्तेफाक है कि सीबीआई ने उन्हीं चिदम्बरम को अपने आरोपों के घेरे में पिछले 62 दिन से तिहाड़ जेल में रहने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय से आदेश लिया जिन्हें मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने सिरे से खारिज करते हुए सीबीआई को फटकार लगाई। सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि ऐसी रत्ती भर भी आशंका नहीं है कि श्री चिदम्बरम ने सबूतों के साथ कोई छेड़छाड़ की हो या इसकी संभावना हो, अतः उन्हें जमानत पर रिहा होने का पूरा अधिकार है। मैं आईएनएक्स मामले की कानूनी पेचीदगियों में नहीं जा रहा हूं बल्कि केवल न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और निर्भयता व शुचिता की बात कर रहा हूं। प्राकृतिक न्याय की मांग थी कि जब आईएनएक्स मामले में सभी साक्ष्य और सबूत दस्तावेजी हैं तो उनसे छेड़छाड़ होने का प्रश्न कैसे उठ सकता था?
अतः न्यायपालिका ने नीर-क्षीर-विवेक का परिचय देते हुए देश के आम लोगों को विश्वास दिलाया है कि वह न्याय आंख पर पट्टी बांध कर ही करेगा और यह नहीं देखेगा कि पक्ष में कौन है और विपक्ष में कौन। अर्थात वादी कौन है और प्रतिवादी कौन? यही भारत के लोकतन्त्र की वह अन्तर्निहित ताकत है जिस पर इस देश के लोगों का सदियों से यकीन इस लोकोक्ति का वाचन करते हुए रहा है कि ‘ऊपर भगवान और नीचे पंच परमेश्वर’। दरअसल हमारे संविधान निर्माताओं के सामने संविधान लिखते समय यह स्पष्ट था कि दो सौ साल तक अंग्रेजों की साम्राज्यवादी व एकाधिकार मूलक नीतियों की वजह से आम नागरिकों में जिस आत्म सम्मान व गौरव का ह्रास हुआ है
उसकी पुनर्स्थापना केवल स्वतन्त्र न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका से ही हो सकती है जो शासक और शासित में भेदभाव न करते हुए इंसाफ को प्रतिष्ठापित करे। इसीलिए हमारे पुरखों ने इंसाफ की कोई सीमा निर्धारित नहीं की और लोकतन्त्र के हर शासक को न्याय के समक्ष नतमस्तक होने के इंतजाम बांधे। अतः स्वतन्त्र भारत के शुरूआती चुनावी दौर में यह नारा निरर्थक ही आम जनता के मुंह पर नहीं रहता था कि ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर पर इंसाफ हमारा नारा है।’ दुखद यह रहा कि कांग्रेस ने ही अपने लम्बे सत्ता काल में लोकतन्त्र के सभी महत्वपूर्ण स्तम्भों के साथ सौदेबाजी की फनकारी को जन्म दिया।