नौकरी और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की मांग 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को सरकार द्वारा लागू किए जाने के बाद से बढ़ी है। तब राजनीतिक कारणों से सामाजिक न्याय का जो नारा उछाला गया उसका उद्देश्य देश के दलित और पिछड़े वर्ग को आरक्षण का झुनझुना थमा कर उसे एक वोट बैंक के रूप में भुनाने की कोशिश की गई। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देश में तूफान खड़ा हो गया था। मंडल आयोग की बंद दबी पड़ी सिफारिशों को खोलकर तत्कालीन सरकार और राजनीतिक दलों ने पिछड़े वर्ग और दलित वर्ग में आरक्षण की मांग की जो चेतना जगाई, वह अब इन वर्गों के लिए आर्थिक रूप से जरूरी हो गई। देश में आरक्षण विरोधी और आरक्षण समर्थक आमने-सामने आ गए थे। सड़कों पर आरक्षण विरोधी युवा आत्मदाह करने लगे थे। इस आग ने अनेक युवाओं की जान ली। आरक्षण के मामले में हमारा चिंतन बिल्कुल भी इस तरह का नहीं है कि देश के कई वर्षों से दमित और पीड़ित समाज को मुख्यधारा का अंग बनाया जाए परन्तु आज आरक्षण के प्याले को हर कोई छूना चाहता है। संभ्रांत, राजनीतिक रूप से वर्चस्व वाले और धनाढ्य माने जाने वाली जातियों ने भी आरक्षण की मांग को लेकर जोरदार आंदोलन शुरू किए। इस छीना-झपटी में आरक्षण के प्याले में दरारें आने लगी हैं और यही वातावरण की जहरीली गैसों के सम्पर्क में आने से विषपायी हो चुका है। कुछ समझ में नहीं आ रहा कि किसे कितना आरक्षण चाहिए। कौन है जिसे आरक्षण नहीं चाहिए।
विडम्बना यह है कि सत्ता में बैठे लोग केवल वोट बैंक की राजनीति के चलते झूठ के ऊपर सत्य का क्लेवर चढ़ाने के विशेषज्ञ रहे हैं लेकिन भारत की न्यायपालिका ने हमेशा इस तथाकथित सत्य का आवरण हटा कर झूठ को झूठ साबित किया है। संविधान की नजर में अगर मानव एक है तो ये शोषित, पीड़ित और प्रताड़ित शब्दों का प्रयोग क्यों? आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का विकास राष्ट्र और समाज का दायित्व है तो फिर प्रतिभाओं को पीछे धकेलना कहां तक उचित है। आरक्षण के नाम पर प्रतिभाओं का भविष्य अंधकारमय बनाना अनुचित है।
अब मराठा समुदाय को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण देने वाले महाराष्ट्र के कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि इस साल महाराष्ट्र में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। हालांकि जिन लोगों को इसका लाभ मिल गया है, उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला अंतिम निर्णय के लिए पांच या उससे अधिक जजों की वृहद पीठ को भेजा है, जिसका गठन प्रधान न्यायाधीश एस.के. बोेबड़े करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण और एक बड़ा सवाल उठाया है। पीठ ने पूछा है कि क्या राज्य सरकारों को आरक्षण की 50 फीसदी सीमा लांघने का अधिकार है? सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ अब इस सवाल का जवाब तय करेगी।
महाराष्ट्र में सबसे ताकतवर मराठा समुदाय ने जब आरक्षण की मांग को लेकर हुंकार भरी थी तो आंदोलन हिंसक हो उठा था। लगभग सभी दलों ने उन्हें आरक्षण का झुनझुना थमाया था। पूर्ववर्ती भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार में देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री थे तो एक मराठा लाख मराठा के नारे के साथ 58 मूक मोर्चे निकले थे तो फडणवीस सरकार हिल गई थी। तब महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समाज को आरक्षण देने के लिए समिति का गठन किया था। फडणवीस सरकार ने मराठों के लिए 16 फीसदी आरक्षण दिया लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है। पिछले विधानसभा चुनावों में भी मराठा समुदाय को चुनावी फायदे के लिए सभी दलों ने उनसे आरक्षण दिलाने का वायदा किया था।
पिछले महीने ही शिवसेना नीत महाराष्ट्र सरकार ने मराठा आरक्षण आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपए मुआवजा देने और मृतकों के परिजनों को राज्य परिवहन निगम में रोजगार देने का ऐलान किया था। आरक्षण आंदोलन के दौरान 42 लोगों की मौत हो गई थी। अब महाराष्ट्र के सभी दल अपने ही बुने हुए चक्रव्यूह में फंस गए हैं कि किया तो क्या किया जाए। बाम्बे हाईकोर्ट ने तो महाराष्ट्र सरकार के मराठा आरक्षण देने के फैसले को सही ठहराते हुए सरकारी नौकरियों में 12 प्रतिशत और शिक्षा संस्थानों में 13 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान लागू करने को कहा था। उसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय का राजनीति में काफी वर्चस्व है। पूरी मराठा लॉबी काफी प्रभावशाली है। याचिकादाता का कहना है कि मराठा आरक्षण बिना आधार ही दिया गया है जो कि आरक्षण 50 फीसदी तक रखने की अधिकतम सीमा का उल्लंघन है।
राज्यों की ओर देखा जाए तो मौजूदा व्यवस्था में सबसे ज्यादा आरक्षण हरियाणा में दिया जाता है, यहां कुल 70 फीसदी आरक्षण है जबकि तमिलनाडु में 68, महाराष्ट्र में 68 और झारखंड में 60 फीसदी आरक्षण है। आंध्र में तो कुल 50 फीसदी आरक्षण दिया जाता है, इसमें महिलाओं को 33.33 फीसदी आरक्षण है। पूर्वोत्तर की बात की जाए तो अरुणाचल, मेघालय, नगालैंड, मिजोरम में अनुसूचित जनजाति के लिए 80 फीसदी आरक्षण है। अब तो सवर्ण जातियों में भी दस फीसदी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था है। सुप्रीम कोर्ट की वृहद पीठ अब इस बात का फैसला करेगी कि क्या राज्य सरकारों को 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को लांघने का अधिकार है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट तर्कसंगत फैसला सुनाएगा। जब हम बुद्धि कौशल की बात करते हैं तो हमें अपनी बौद्धिक क्षमता पर भरोसा होना चाहिए। हमें युवाओं में ऐसा स्वाभिमान पैदा करने की जरूरत है ताकि वह सीना ठोक कर कह सकें-हमें नहीं चाहिए आरक्षण। देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए और समाज में आत्मविश्वास की भावना पैदा की जानी चाहिए तभी इस समस्या का अंत होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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