भारत में गांधीवादी समाजवाद के पुरोधा डा. राममनोहर लोहिया ने जब यह कहा कि लोकतन्त्र में सरकार श्रमिक वृत्ति से चलनी चाहिए वणिक वृत्ति से नहीं तो उनका सीधा मतलब था कि इस व्यवस्था में पांच साल के लिए चुन कर आयी सरकार स्वयं श्रमिक दिहाड़ी नियमों से बन्धी होती है। उनका सीधा अर्थ था कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार उसी जनता की लोकप्रिय जायज मांगों की अवहेलना नहीं कर सकती है। डा. लोहिया का यह भी मत था कि लोकतन्त्र में सम्पत्ति का बंटवारा न्यायोचित रूप से इस प्रकार होना चाहिए कि खेतीहर से लेकर श्रमिक समाज का आर्थिक सशक्तीकरण लगातार होता रहे और एक समय ऐसा आये कि किसी ग्रामीण दस्तकार और मान्यता प्राप्त इंजीनियर की आने वाली पीढि़यों में असमानता का भाव न रहे। इसके लिए उन्होंने सभी की एक समान शिक्षा पर बल दिया परन्तु सबसे महत्वपूर्ण यह है कि गांधीवादी सोच और इससे उपजी समाजवादी विचारधारा यह मानती है कि भारत में वह गरीबी सबसे पहले दूर होनी चाहिए जिसमें बुनकर दूसरों के लिए सुन्दर कपड़ा बुनता है मगर स्वयं फटे बदन रहता है। मोची दूसरों के जूते बनाता है मगर स्वयं नंगे पांव रहता है। यह स्थिति अन्य पारंपरिक व्यवसायों के बारे में भी थी। इसके केन्द्र में राष्ट्रीय सम्पत्ति का समुचित बंटवारा ही था।
दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि भारत में अभी तक जो भी विकास हुआ है वह इसके करोड़ों लोगों की मेहनत के भरोसे ही हुआ है। औद्योगीकरण से लेकर कम्प्यूटरीकरण तक में इसके लोगों की भूमिका ही प्रमुख रही है और यहीं पर श्रमिक व पूंजीपति के बीच सम्बन्धों की सार्थकता का हमें पता चलता है। यह सार्थकता तब तक नहीं बन सकती थी जब तक कि श्रम को भी पूंजी में वृद्धि का एक औजार न समझा जाता। इसी सिद्धान्त पर स्वतन्त्र भारत में श्रमिक कानून बनाये गये जिससे औद्योगिक व असंगठित क्षेत्र के मध्यम व मंझोले उद्योगों में लगे मजदूरों की हालत में उत्तरोत्तर सुधार होता जाये और परस्पर सहयोग के माहौल में भारत में बड़े से लेकर छोटे उद्योगों का विकास होता रहे। इसके परिणाम भी हमें प्राप्त हुए और 1970 तक लगभग साढ़े तीन प्रतिशत की औसत विकास वृद्धि दर के साथ ही भारत दुनिया के औद्योगिक राष्ट्रों में से एक बन पाया। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी क्योंकि इसी दौरान भारत में दुनिया का बहुत बड़ा मध्यम वर्ग विकसित हुआ जिसकी क्रय क्षमता पर विश्व की बड़ी-बड़ी कम्पनियों की नजर लगी रही परन्तु 1970 से लेकर 1990 तक के बीच में भारत की राजनीति में जो उथल-पुथल मची उसने इसकी सुगठित अर्थव्यवस्था की तरफ आक्रामकता का रुख अख्तियार किया (इसके बहुत से कारण रहे जिनमें इसी दौरान भारत का स्व. इंदिरा गांधी के नेतृत्व में विश्व मानचित्र में एशिया की महाशक्ति के रूप मे उभरना भी शामिल रहा, यह भारत के परमाणु सम्पन्न राष्ट्र होने के साथ ही बांग्लादेश बनने पर दक्षिण एशिया की राजनीति बदलना था) लेकिन इंदिरा जी के समय में ही जिस प्रकार खुली आर्थिक नीतियों की अलम्बरदार राजनीतिक पार्टियों का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ उससे भारत की अर्थ व्यवस्था के मानक बदलने लगे और 11 महीने के स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमन्त्रित्वकाल में भारत की स्थिति ऐसी हो गई कि इसके पास अपनी आयात जरूरतों को पूरा करने के लिए दस्ती विदेशी धन रहने लगा जो स्व. चन्द्रशेखर के छह महीने के कार्यकाल के दौरान पूरी तरह सूखने लगा और भारत को अपना सोना गिरवी रख कर विदेशी मुद्रा का प्रबन्ध करना पड़ा। इसके बाद भारत की अर्थव्यवस्था उस तरफ चल पड़ी जिसकी प्रतीक्षा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां 1965 के बाद से कर रही थीं क्योंकि इस वर्ष हुए भारत-पाक युद्ध के बाद भारतीय खजाने में मात्र दो सप्ताह की आयात जरूरतें पूरी करने की ही विदेशी मुद्रा थी जिसे स्वतन्त्र भारत में पहली बार 1966 में प्रधानमन्त्री बनने के बाद स्व. इंदिरा गांधी ने रुपए के मूल्य में अवमूल्यन करके बामुश्किल सम्भाला था परन्तु 1991 में चन्द्रशेखर सरकार गिर जाने पर भारत के सामने कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। अतः भारत ने अपना रास्ता बदल कर अपनी अर्थव्यवस्था को बाजारमूल बनाने का फैसला किया और उसके बाद से ही भारत के श्रम कानूनों में भी संशोधन का दौर शुरू हो गया लेकिन इस अर्थव्यवस्था ने भारत में गरीबी की परिभाषा को इस प्रकार बदल डाला कि बाजार की चकाचौंध से निकली सम्पन्नता ने छन कर नीचे गांवों की तरफ जाना शुरू किया और डा. लोहिया का यह दर्शन निस्तेज हो गया कि मोची खुद नंगे पांव रह कर दूसरों के जूते बनाता है। इस बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने जब पूरे विश्व को एक बड़े बाजार में बदला तो उत्पादों की विविधता से लेकर उनके मूल्य के असीमित विस्तार से भारत का कोई गांव अछूता नहीं रह सका जिसे टिकिल डाऊन थ्योरी कहा गया।
इस अर्थव्यवस्था में भारत के लोगों की उत्पादकता बढ़ी परन्तु सामाजिक सुरक्षा घटी। अस्थायी रोजगार अवसरों ने भारत में पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया मगर श्रमिक-मालिक सम्बधों में ऐसा असन्तुलन भी पैदा कर दिया कि कामगार की पहचान केवल उसकी उत्पादकता रह गई। श्रम कानून इसी नजरिये से बनाये जाने लगे। निश्चित रूप से इसकी शुरूआत कांग्रेस के शासनकाल में ही हुई परन्तु इतनी गुंजाइश जरूर रही कि श्रमिक व मालिक के बीच परस्पर विश्वास व भरोसे का तार न टूटे। हाल ही में संसद में पारित तीन श्रमिक कानूनों की विपक्ष जमकर आलोचना कर रहा है और इनके खिलाफ आंदोलन चलाने की मंशा भी जाहिर कर रहा है। इस मामले में बदले हालात में हमें सरकार की आलोचना से ऊपर उठ कर यह सोचना होगा कि किस प्रकार श्रमिकों के उन हितों की रक्षा की जाये जिनकी गारंटी ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ देता है। यह कार्य विपक्ष, सरकार और श्रमिक संगठन तीनों को ही मिल कर करना पड़ेगा क्योंकि एक नागरिक के तौर पर अधिकार तो पूंजीपति के भी होते हैं। उसे भी सम्पत्ति बनाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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