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संसद की गरिमा कायम रहे !

संसद के शीतकालीन सत्र में जिस तरह सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच अनावश्यक खींचतान हो रही है उससे संसदीय लोकतन्त्र की गरिमा प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती।

संसद के शीतकालीन सत्र में जिस तरह सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच अनावश्यक खींचतान हो रही है उससे संसदीय लोकतन्त्र की गरिमा प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। स्वतन्त्र भारत का संसदीय इतिहास गवाह है कि इसने हमेशा समय की मांग के अनुरूप न केवल अपनी सार्थकता साबित की है बल्कि गंभीर से गंभीर राष्ट्रीय विषय पर बहस व संवाद के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। सबसे ताजा प्रमाण 2008 में हुए ‘भारत- अमेरिका परमाणु करार’ जैसे विवादास्पद विषय पर चली संसद की कार्यवाही थी जिसमें हुई बहस विशेषकर तत्कालीन विदेश मन्त्री स्व. प्रणव मुखर्जी द्वारा दिया गया बहस का जवाब संसदीय संग्रहालय की धरोहर बन गया। इसी प्रकार राज्यसभा में भी कई मौकों पर इस उच्च सदन में बहस के नये कीर्तिमान गढे़ गये। चाहे विपक्ष के नेता हों या सत्ता पक्ष के दोनों ने ही वाद-विवाद के ऐसे स्तम्भ स्थापित किये कि पूरी दुनिया सदन में मौजूद सदस्यों की विद्वता का लोहा मानने से नहीं रुक सकी। मगर क्या कयामत है कि वर्तमान सत्र में इस मुद्दे पर शब्दों की तलवारें खिंच रही हैं कि देश की आजादी के दौरान किस राजनैतिक दल की क्या भूमिका थी? 
भारत की आजादी का पुख्ता इतिहास है जिसे कोई बदल नहीं सकता। बच्चा-बच्चा जानता है कि भारत ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के झंडे तले लड़ी जिससे हार कर अंग्रेजों ने 15 अगस्त, 1947 को भारत अाजाद कर दिया मगर मुहम्मद अली जिन्नाह की मुस्लिम लीग पार्टी के साथ साजिश करके इसके दो टुकड़े कर दिये और इसे भारत व पाकिस्तान में बांट दिया। इसके साथ ही दुनिया जानती है कि भारत के आजाद होने के बाद 1951 में भारतीय ‘जनसंघ’ की स्थापना डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की। बाद में जनसंघ ही तब्दील होकर 1980 में ‘भारतीय जनता पार्टी’ कहलाई जो कि वर्तमान में केन्द्र में सत्तारूढ़ है। जाहिर है कि आजादी की लड़ाई में जब इस पार्टी का वजूद ही नहीं था तो यह उसमें भाग कहां से लेती। यह आजाद भारत की पार्टी थी। जनसंघ के साथ और बाद में और भी कई राजनैतिक पार्टियां बनीं जिनका स्वतन्त्रता आन्दोलन से कोई लेना-देना नहीं था। जहां तक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सवाल है तो आजादी से पहले वह ‘हिन्दू महासभा’ में बेशक थे मगर 1950 के आ​िखर में जब उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के साथ भारत के हुए ‘नेहरू-लियाकत समझौते’ पर प. नेहरू की 15 अगस्त, 1947 को बनी राष्ट्रीय सरकार के उद्योग मन्त्री पद से इस्तीफा दिया तो उन्होंने 1951 के शुरू में ही हिन्दू महासभा से नाता तोड़ कर नई पार्टी भारतीय जनसंघ की नींव डाली जिसका सम्बन्ध नये स्वतन्त्र भारत की परिकल्पना करने वाले लोगों से ही था। यह भी स्पष्ट है कि हिन्दू महासभा के सिद्धान्तों से डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मतभेद थे, इसी वजह से उन्होंने नई पार्टी बनाई जबकि हिन्दू महासभा में उस समय ‘वीर सावरकर’ भी मौजूद थे। अतः कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के इस वक्तव्य का कोई विशेष महत्व नहीं है कि भारत की आजादी में भारतीय जनता पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही। जो पार्टी बनी ही आजादी के बाद वह किस तरह 1947 तक लड़ी गई आजादी की लड़ाई में अपनी शिरकत तय करती। 
जनसंघ आजाद भारत के नये संसदीय लोकतन्त्र में अपनी हिन्दुत्व परक राष्ट्रवादी विचारधारा के आधार पर लोगों का समर्थन चाहती थी। इसी विचारधारा के तहत उसने बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का मन्त्र भी पेश किया जो कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष मिश्रित अर्थव्यवस्था की मध्यमार्गी विचारधारा के विपरीत था। इन्हीं विचारधाराओं की स्वतन्त्र भारत में लड़ाई होती रही और चुनावी जय-पराजय सुनिश्चित होती रही। अतः कांग्रेस अध्यक्ष के इस बयान पर कि कांग्रेस ने देश की आजादी की लड़ाई में अनगिनत कुर्बानियां दी हैं जबकि सत्तारूढ़ पक्ष से एक आदमी भी आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं था, संसद का एक दिन बर्बाद कर देना किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता। संसद के प्रत्येक सदस्य को बजाय तू-तू , मैं-मैं करने के आजादी का इतिहास पढ़ लेना चाहिए था। संसद से बाहर यदि श्री खड़गे ने ऐसा वक्तव्य दे दिया था तो वह पूरी तरह राजनैतिक था और भाजपा को उसका राजनैतिक जवाब पेश करके कांग्रेस को चुप करा देना चाहिए था। मगर संसद में व्यक्तिगत अप्रसांगिक टिप्पणियों के आधार पर जब वाकयुद्ध होता है तो सदन का कीमती वक्त ही जाया होता है और संसद इसके लिए कदापि नहीं बनी है। 
देश के ज्वलन्त मुद्दों पर यदि लोगों द्वारा चुना हुआ सर्वोच्च सदन ही चर्चा नहीं करेगा तो लोगों की समस्याओं का हल फिर किस सदन से निकलेगा। यदि राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर ही संसद चर्चा करने से भागेगी तो राष्ट्रीय प्रश्नों का हल किस सदन से निकलेगा? यह सनद रहनी चाहिए कि भारत-अमेरिका परमाणु करार पर शासकीय विधानों के अनुसार संसद में बहस करानी जरूरी नहीं थी क्योंकि यह दो सार्वभौमिक व संप्रभु देशों के बीच एक समझौता था जिसके बारे में सरकार की जिम्मेदारी केवल संसद को सूचित करने की थी मगर 2008 में इस पर संसद में बहस कराना इसलिए जरूरी समझा गया क्योंकि समझौते से भारत की आने वाली पीढि़यों का भविष्य बंधा हुआ था। इसी वजह से तब श्री प्रणव मुखर्जी ने सदन में खड़े होकर कहा था कि ‘हमें अपने ऊपर विश्वास होना चाहिए क्योंकि देश की जनता ने हमें चुनकर भेजा है। हम जो भी करेंगे देश के हित में करेंगे’। स्व. मुखर्जी बाद में देश के राष्ट्रपति भी बनें, मगर वह 2008 में संसद में यह वचन बोल कर संसदीय लोकतन्त्र के अमर मन्त्र की व्याख्या बहुत ही साधारण शब्दों में स्थापित कर गये थे। अतः भारत के लोकतन्त्र को संसद ने सर्वदा ही आभा मंडित करने का कार्य किया है। व्यर्थ की चख-चख से हम इसकी मर्यादा व गरिमा को ही घटाते हैं। विपक्ष को भी ध्यान रखना चाहिए कि वह अर्थहीन व अप्रसांगिक आलोचना करके अपना ही सम्मान घटाता है और कच्चे बोल-बोल कर नाहक ही अपने नथुने फुलाता है। 

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