न्याय की ध्वजा फहरती रहे!

न्याय की ध्वजा फहरती रहे!
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भारतीय संस्कृति में धर्म और दायित्व आपस में किस प्रकार एक-दूसरे के पर्याय हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने प्रस्तुत किया। गुजरात के द्वारकाधीश मन्दिर में दर्शन करने के बाद मन्दिर के शिखर पर भक्तों द्वारा ध्वजा या झंडा फहराने की परंपरा को उन्होंने अपने न्यायिक धर्म से जोड़ा और कहा कि भारत में न्याय की ध्वजा सर्वदा ऊंची फहरती रहनी चाहिए। श्री चन्द्रचूड़ सपत्नीक सोमनाथ भी गये और उन्होंने यहां पूजा-अर्चना भी की। यह सबक सबसे ज्यादा वर्तमान दौर के सभी दलों के राजनीतिज्ञों को सीखने की जरूरत है जो मन्दिर-मन्दिर जाने के बावजूद अपने धर्म (दायित्व) की परवाह नहीं करते। श्री चन्द्रचूंड ने कहा कि सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि आम भारतीयों को जिला अदालतों से न्याय मिले। जिला स्तर पर न्याय की ध्वजा निर्बाध रूप से फहरनी बहुत आवश्यक है जिससे आम नागरिक न्याय पा सके। क्योंकि शुरूआत में अधिसंख्य नागरिक जिला अदालतों में ही जाते हैं। उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय तक जाने वाले बहुत कम नागरिक ही होते हैं। जिला अदालतों में यदि सत्य की जीत होती है तो न्याय प्रतिष्ठापित होता है अर्थात यदि इन न्यायालयों में न्याय होता है तो सत्य की विजय होती है और उसकी प्रतिस्थापना बुनियादी स्तर पर होती है।
भारत ने आजादी से पहले ही तय कर लिया था कि स्वतन्त्रता मिलने के बाद उसका लोक ध्येय 'सत्यमेव जयते' होगा। यह उवाच खोजने वाले भारत रत्न पं. मदन मोहन मालवीय थे। वह वेद-शास्त्रों के महाज्ञाता भी थे। कांग्रेस पार्टी के भीतर वह अपने जीवन की शुरूआत व अन्त दोनों में रहे और बीच में हिन्दू महासभा में भी रहे। स्वतन्त्र भारत का लक्ष्य सत्यमेव जयते रहेगा। इस विचार पर कांग्रेस के सभी हिन्दू-मुसलमान, सिख, ईसाई व पारसी नेता एकमत थे। अतः आजादी के बाद इस शुभ आख्यान को सर्वसम्मति से अपना लिया गया। भारत की संस्कृति इसके साथ यह भी कहती है कि 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्'। इसका अर्थ यही होता है कि सत्य ही शिव है और शिव सुन्दर है अर्थात सत्य ही ईश्वर है जो सुन्दर होता है। महात्मा गांधी भी इस तथ्य की पैरोकारी पूरे जोर के साथ करते थे। बापू कहते थे-जहां सत्य है वहीं ईश्वर है और जहां अहिंसा है वहीं अल्लाह है। इसका मतलब यही निकलता है कि जहां सत्य होगा वहीं न्याय होगा और जहां अहिंसा होगी वहीं ईश्वर होगा। क्योंकि केवल अहिंसा के मार्ग से ही सत्य की खोज कर सकते हैं। हिंसा होते ही हम ईश्वर को भुला देते हैं क्योंकि वही पूरे ब्रह्मांड की रचना करने वाला है (एेसा सभी आस्तिक या ईश्वर में विश्वास रखने वाले मानते हैं)। उसकी महान रचना मनुष्य को दुख या क्लेश अथवा शोक पहुंचा कर अथवा उसका कत्ल करके हम ईश्वर के अस्तित्व को ही चुनौती देते हैं। क्योंकि मनुष्य अथवा कोई भी जिन्दा प्राणी वैज्ञानिक सत्य से ही पृथ्वी पर आया है। उसके साथ न्याय करके ही हम सत्य को जीवित रख सकते हैं। हिंसा इस पूर्ण सत्य को अर्ध सत्य में परिवर्तित कर देती है। इसके बाद जो भी न्याय होगा वह पूर्णता में न होकर एकांगी ही कहा जायेगा। पूरी दुनिया में मृत्यु दंड दिये जाने के खिलाफ जो दलील दी जा रही है उसका यह दार्शनिक पक्ष है जिसे सम्राट अशोक ने ईसा से तीन शताब्दी पहले पहचानते हुए मृत्यु दंड पर रोक लगा दी थी। अतः श्री चन्द्रचूड़ का द्वारकाधीश मन्दिर जाकर यह कहना कि न्याय की ध्वजा मन्दिर पर फहर रही ध्वजा के अनुरूप ही फैरती रहनी चाहिए, वास्तव में 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' का ही वर्तमान समय में रूपान्तरण है। श्री चन्द्रचूड़ निजी तौर पर एक हिन्दू हैं और द्वारकाधीश व सोमनाथ मन्दिर जाकर उन्हें यदि धर्म अर्थात दायित्व का बोध होता है तो यह उनके धार्मिक होने का पक्का सबूत है।
भारत में धार्मिक होने का अर्थ यही है कि एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए और यह तभी हो सकता है जब हम सब अपने दायित्व का शुद्ध अन्तःकरण से पालन करें। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ का द्वारकाधीश व सोमनाथ मन्दिरों पर ऊंची फहरती ध्वजा को देख कर यह कहना ''मैंने द्वारकाधीश जी के मन्दिर के शिखर पर फहरती ध्वजा को आज प्रातःकाल जब देखा तो इससे मुझे काफी प्रेरणा मिली। यह ध्वजा पुरी के जगन्नाथ मन्दिर पर फहरती ध्वजा जैसी ही थी। मगर हमारी परंपराओं की एक समानता को देखिये जो हमें एकता के सूत्र में बांधती है। हमारे जीवन में ध्वजा का विशेष मतलब होता है। इसका मतलब यह है कि हम सबको एक सूत्र में बांधने वाली कोई शक्ति हमसे ऊपर है जो वकील से लेकर जजों व नागरिकों को एकता के धागे में बांधती है। यह एकता में बांधने वाली मानवीयता ही है जो कानून या संविधान के शासन से संचालित होती है"। बहुत स्पष्ट है कि ध्वजा सत्य के अर्थात न्याय के भाव को बुलन्द रखने का सन्देश देती है। इसी सत्य या न्याय की ध्वजा को मुख्य न्यायाधीश हर जिला अदालत में फहरते देखना चाहते हैं। प्रायः श्री चन्द्रचूड़ अपने बयानों से हमारे ज्ञानचक्षु खोलने की कोशिश करते रहते हैं। उनकी शान में 'गालिब' के शेर में यही कहा जा सकता है,
''कह सके कौन कि ये जलवागिरी किसकी है
पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने।''

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