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मायावती और मूर्तियां

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बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश में सत्ता में रहते राज्य के अलग-अलग शहरों में अपनी, अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम और हाथी की मूर्तियां के लगाए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट क अपना जवाब दे दिया है। अपने जवाब में मायावती ने सभी दलों द्वारा स्थापित मूर्तियों का उल्लेख करते हुए जबर्दस्त दलित कार्ड खेला है। मायावती ने यह भी सवाल उठाया है कि अगर भगवान राम की मूर्ति सरकारी खर्चे से बनवाई जा सकती है तो फिर उनकी मूर्तियों पर आपत्ति क्यों है? मायावती के तर्कों से कुछ लोग सहमत हो सकते हैं और कुछ लोग असहमत। सच तो यह भी है कि बाकी राजनीतिक दलों ने भी नेताओं की प्रतिमाएं लगाई हैं। सवाल सिर्फ दलित नेताओं की मूर्तियों पर ही क्यों उठते हैं। मूर्तियों पर खर्च किए गए पैसों पर सवाल भी नहीं उठे। इस दृष्टि से देखा जाए तो सरदार पटेल की मूर्ति स्टेच्यू ऑफ यूनिटी पर होने चाहिए जिस पर 3 हजार करोड़ खर्च हुए हैं। अपने जवाब में मायावती ने शीर्ष अदालत को यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अदालत इस बात पर फैसला नहीं कर सकती कि पैसा किस पर खर्च किया जाए, किस पर नहीं।

सन् 2009 में रविकांत और सुकुमार नाम के दो वकीलों ने याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने करोड़ों रुपए उत्तर प्रदेश में प्रतिमाएं लगाने में खर्च किए। इससे सरकारी खजाने को 1400 करोड़ से अधिक का नुक्सान हुआ। इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि जनता के पैसे से किसी पार्टी विशेष या खुद की और चुनाव चिन्ह हाथी की प्रतिमा के लिए खर्च नहीं किए जा सकते इसलिए मायावती को सरकारी खजाने में पैसा लौटाना चाहिए। यह सही है ​कि सरकार का राजस्व कहां खर्च किया जाए और कहां नहीं, इस बारे में संविधान मौन है। संविधान में इस सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं कहा गया। सरकार शिक्षा पर खर्च करे या अस्पताल पर या फिर प्रतिमाओं पर, इस बात को भी अदालतें तय कहीं करतीं। सरकारें ऐसे बहुत से काम करती हैं जिनका जनहितों से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता परन्तु क्या करें।
राहजनी को भी अक्सर रहनुमा ने लूटा है,
किसको राहजन कहिये, किसको रहनुमा कहिये।
देशभर में महापुरुषों की मूर्तियां लगी हुई हैं। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि प्रतिमाएं महानपुरुषों के मूल्यों आैर आदर्शों का प्रचार करना है। इन प्रतिमाओं की स्थापना और मायावती द्वारा लगवाई गई प्रतिमाओं में अन्तर इतना है कि उन्होंने तानाशाहों की तरह अपने जीते जी अपनी ऊंची प्रतिमाएं स्थापित कर डालीं। दुनिया के अनेक तानाशाह अपने जीते जी अपनी मूर्तियां स्थापित करवाते रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां उन्हें याद करें लेकिन लोकतंत्र में राजनीतिक नैतिकता को ध्यान में रखते हुए कोई जीते जी अपनी प्रतिमा नहीं लगवाता। अगर मायावती अपनी प्रतिमाओं को एक दलित महिला के संघर्ष की प्रतीक बताती हैं तो यह हास्यास्पद ही है। मायावती का मूर्ति प्रेम आत्ममुग्धता है। वह खुद को दलितों का मसीहा मानती हैं तो उनकी मूर्ति का होना तो बनता है।

शायद वह सोचती होंगी कि उनकी प्रतिमा लग जाने से दलितों का आत्मविश्वास बढ़ सके। लोगों को लगे कि उनके जैसा ही एक व्यक्ति भी इतनी ऊंचाइयां छू सकता है जबकि हकीकत तो यह थी कि उन्होंने यह सब दलित वोटों के लिए ही किया था। मायावती का जन्म भले ही दलित परिवार में हुआ है, उनका बचपन किसी शानो-शौकत के साधारण ढंग से बीता हो लेकिन उनकी सम्पत्ति और जीवनयापन के ढंग पर सवाल उठते रहे हैं। मायावती की बढ़ती सम्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि यह उनके समर्थकों से उपहारस्वरूप मिली है। मायावती के जन्मदिन के कार्यक्रम भी काफी चर्चा में रहे हैं। मीडिया में महंगे हीरे-जवाहरात पहले जन्मदिन का केक काटने की भी आलोचना भी खूब हुई थी हालांकि उन्होंने बाद में जन्मदिन साधारण ढंग से मनाना शुरू कर दिया। यह भी सही है कि मायावती के समर्थक गांवों के गरीब लोग हैं जो मीडिया से प्रभावित नहीं होते। इन आलोचनाओं के बावजूद मायावती इनके लिए लोकप्रिय नेता हैं। कोई भी मायावती द्वारा जीते जी अपनी मूर्तियां लगवाने को सही नहीं ठहरा सकता लेकिन मूर्तियां लगवाने की वजह ज्यादा राजनीतिक होती है।

मूर्तियों की कोई पार्टी नहीं होती। गांधी जी की मूर्तियों को भी साल में एक या दो बार साफ किया जाता है। महापुरुषों के जन्मदिन आैर पुण्यतिथि पर ही मालाएं पहनाई जाती हैं और सालभर वह गंदगी से घिरी रहती हैं। फैसला सुप्रीम कोर्ट को करना है कि वह जो भी फैसला ले, सबके लिए समान होना चाहिए। देश में मूर्तियां और स्मारक बनवाने को लेकर कुछ पैमाने भी तय करने की जरूरत है। एक मूर्ति की स्थापना सही है तो दूसरे की गलत कैसे हो सकती है।

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