बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव में महागठबंधन के भीतर पार्टी सुप्रीमो मायावती को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है। लोकतंत्र में हर पार्टी को अपने नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की आजादी है, इसलिए बसपा कार्यकर्ताओं ने मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है। लोकतंत्र में वैसे तो अधिक सीटों वाला दल ही सरकार बनाता है लेकिन कभी-कभी कम सीटों वाली पार्टी भी सरकार बना लेती है। उत्तर प्रदेश में बसपा के संस्थापक कांशी राम के समय में 67 सीटों वाली बसपा की सरकार बनी और 150 सीटों वाली भाजपा ताकती रह गई थी। झारखंड में मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बन गए, उनकी पार्टी की केवल एक सीट थी, 42 सीटों वाला दल सरकार बनाने में नाकामयाब रहा। कर्नाटक में कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने, उन्हें कांग्रेस ने भी समर्थन दिया। बसपा के पास कर्नाटक में एक सीट है। बसपा विधायक भी कुमारस्वामी सरकार में मंत्री हो गए। भारत के लोकतंत्र में कुछ भी हो सकता है।
लगातार चुनावी पराजयों से राजनीति के हाशिए पर पहुंची मायावती फिर सुर्खियों में हैं। उन्होंने न केवल मुख्यधारा में वापिसी की है, बल्कि एकाएक भाजपा विरोधी मोर्चे की धुरी के रूप में उनकी चर्चा होने लगी है। यह चर्चा अकारण ही नहीं है। अब जबकि मायावती को पार्टी कार्यकर्ताओं ने पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है तो सवाल उठाया जा रहा है कि अब महागठबंधन का क्या होगा? प्रधानमंत्री पद अभी भी दूर की कौड़ी है। मायावती ने राहुल गांधी को उनकी मां की तरह विदेशी कहने वाले पार्टी कोआर्डिनेटर को पद से हटा दिया है, इससे लगता है कि वह गठबंधन की पक्षधर हैं। 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में मायावती कितनी महत्वपूर्ण हैं, यह उपचुनावों के परिणामों से साबित हो जाता है। गोरखपुर, फूलपुर से लेकर कैराना और नूरपुर की प्रतिष्ठा वाले लोकसभा-विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को हराने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने कहीं घोषित तौर पर तो कहीं मौन संकेत देकर अपने धुर विरोधी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष बबुआ अखिलेश यादव को समर्थन दिया। बुआ आैर बबुआ की जोड़ी ने भाजपा को चित्त कर दिया। यह वास्तविकता है कि मायावती के प्रतिबद्ध मतदाताओं के लिए उनका एक इशारा ही काफी है। बुआ के महत्व को समझते हुए बबुआ ने कह दिया कि मायावती से उनका गठबंधन 2019 के चुनावों तक चलेगा भले ही उन्हें कुछ सीटों की कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।
उपचुनाव के परिणामों से सपा-बसपा कार्यकर्ताओं में नई जान आ गई। इसी चुनाव फार्मूले से अब तक अजेय समझे जाने वाले नरेन्द्र मोदी को पराजित करने का सूत्र विपक्ष के हाथ लगा। कर्नाटक में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में सफलता मिली। बेंगलुरु में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के मंच के बीचोंबीच सोनिया गांधी ने मायावती को गले लगाया। मायावती का उत्तर प्रदेश के बाहर भी प्रभाव है। हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उनके दलित वोटरों की संख्या काफी है। मध्यप्रदेश के 2013 के विधानसभा चुनाव में बसपा को सीटें तो चार िमली थीं लेकिन वोट प्रतिशत 6.29 था। छत्तीसगढ़ में भी बसपा का प्रभाव है। यद्यपि राजस्थान में कांग्रेस आज भी प्रभावशाली है मगर 2019 के लिए भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए तीनों राज्यों में कांग्रेस को मायावती का साथ लेना ही होगा। कांग्रेसी नेताओं कमलनाथ और अन्य ने गठबंधन के लिए मायावती से मुलाकात भी की है। मायावती एक मंझी हुई राजनेता और सख्त सौदेबाज हैं। देखना होगा कि क्या होता है।
कुछ महीने पहले तक मायावती राजनीति की मुख्यधारा से बाहर हो गई लगती थीं। उत्तर प्रदेश में 2012 के चुनाव में वे मात्र 19 विधायकों तक सिमट गई थीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में एक सीट भी बसपा को नहीं मिली थी। उनके पुराने साथी साथ छोड़ गए थे। राजनीतिक विश्लेषक लिखने लगे थे कि मायावती की राजनीति का अंत हो गया है लेकिन मायावती ने अपना जनाधार बचाने के लिए शोर-शराबे के बीच राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। अपने वक्तव्यों को धारदार बनाया, पार्टी कैडर को मजबूत बनाया। मायावती को राजनीतिक पराजय जरूर मिली लेकिन बसपा के वोट बैंक में कोई ज्यादा गिरावट नज़र नहीं आई।
कुछ दलित उपजातियां भाजपा की तरफ झुकीं जरूर लेकिन प्रमुख दलित जातियां उनके साथ डटी रहीं। मायावती देश का सबसे बड़ा जातिवादी चेहरा हैं। उत्तर प्रदेश में सपा को 22.20 प्रतिशत वोट िमले थे, बसपा को 19.60 फीसदी और कांग्रेस को 7.50 फीसदी। यदि तीनों दल साथ आ जाएं तो कुल वोटों का प्रतिशत 49.3 फीसदी हो जाता है। इस समीकरण को देखने के बाद बताने की जरूरत नहीं कि चुनाव परिणाम कैसे रहेंगे।
एक पुरानी कहावत है- हाथी चले बाजार, हथिनी करे शृंगार। अब देखना यह है कि महागठबंधन क्या स्वरूप लेता है। गठबंधन से फायदा सपा और कांग्रेस को ही होगा। विपक्षी एकता की राह में एक बड़ी बाधा प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की है। राहुल गांधी की स्वीकार्यता अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टक्कर में कहीं नहीं है। चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। यदि कोई विपक्षी गठबंधन बनता है और वह भी नेता घोषित किए बिना तो चुनाव बाद भी गठबंधन की संभावनाएं बनी रहेंगी। कुछ भी हो मायावती का विपक्षी एकता का दाव काफी मायावी है। 2019 के चुनाव के संग्राम से पहले वह भाजपा विरोधी राजनीति के केन्द्र में विराजमान नज़र आ रही हैं। राजनीतिक टिप्पणीकार तो 2019 का चुनाव संग्राम चायवाला बनाम दलित की बेटी के रूप में देखने लगे हैं। फैसला देश की जनता ही करेगी क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कद इतना बड़ा हो चुका है कि उनके मुकाबले का कोई व्यक्तित्व नज़र नहीं आता।