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जातिगत जनगणना का अर्थ?

जातिगत जनगणना को लेकर केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में जो शपथ पत्र दाखिल किया है उसके कई आयाम हैं। हालांकि इस शपथ पत्र में मोदी सरकार ने साफ कर दिया है कि 2021 में जाति के आधार पर जनगणना कराये जाने का उसका कोई इरादा नहीं है

जातिगत जनगणना को लेकर केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में जो शपथ पत्र दाखिल किया है उसके कई आयाम हैं। हालांकि इस शपथ पत्र में मोदी सरकार ने साफ कर दिया है कि 2021 में जाति के आधार पर जनगणना कराये जाने का उसका कोई इरादा नहीं है और यह फैसला उसने बहुत सोच- समझ कर विवेकपूर्ण ढंग से किया है क्योंकि भारत जैसे बहुजातीय व विविधता से भरे समाज में इस प्रकार की जनगणना कराया जाना उस संवैधानिक स्थापना के विरुद्ध होगा जो स्वतन्त्र भारत में जातिविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य लेकर चली है। इसके साथ ही इस प्रकार की जनगणना कराये जाने में अनेकानेक एेसी व्यावहारिक समस्याएं भी हैं जिनसे जनगणना कराये जाने का उद्देश्य ही पटरी से उतर सकता है। केन्द्र सरकार के ये तर्क निर्रथक नहीं हैं इनके पीछे ठोस वैज्ञानिक कारण हैं अतः इन तर्कों को कोई भी जनमूलक समतावादी समाज का समर्थक व्यक्ति सिरे से खारिज नहीं कर सकता है, खास कर वे राजनीतिक दल जो जातिगत जनगणना कराये जाने की मांग पर अड़े हुए हैं। 
पहला मूल प्रश्न यह है कि पिछड़ी जातियों की गणना प्रत्येक राज्य अपने हिसाब से करता है। संसद के वर्षाकालीन सत्र में ही सरकार ने इस आशय का संविधान संशोधन विधेयक पारित कराया है जिसे विपक्ष की पूरी सहमति मिली थी। हालांकि 2018 से पहले भी यही स्थिति थी मगर इस वर्ष मोदी सरकार ने संशोधन करके राष्ट्रपति को पिछड़ी जातियों को अधिसूचित करने का अधिकार दे दिया था जिसे पिछले सत्र में संविधान संशोधन करके पहले जैसी स्थिति में कर दिया गया। राज्यों के पास पिछड़ी जातियों को चिन्हित करने का जो अधिकार है उसमें प्रादेशिक सरकारें इस वर्ग की जातियों का निर्धारण अपने-अपने स्थापित पैमानों पर करेंगी। जिसकी वजह से हर राज्य का पिछड़ी जातियों का पैमाना अलग होगा। इसके साथ ही इन जीतियों में भी उपजातियां और फिर उसके बाद गोत्र का दायरा इनकी संख्या को अनगिनत बना डालेगा जिसकी गणना करना जनगणना करने वाले ‘संगणक’ को ही चकरा देगा। ​िफलहाल केवल अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों की संख्या ही जनगणना में ली जाती है और शेष जनता की गिनती धर्म के आधार पर होती है। सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक हैसियत भी इस जनगणना में दर्ज की जाती है। 
यदि हम पिछड़े वर्ग की जातियों की गणना भी शुरू कर देंगे तो एेसी दल-दल में फंस जायेंगे जिसमें भारत का हर नागरिक अपनी पहली पहचान जाति को ही बनाना पसन्द करेगा जबकि बाबा साहेब अम्बेडकर स्वतन्त्र भारत की सामाजिक एकता व न्याय के लिए जातिविहीन समाज की स्थापना को बहुत जरूरी मानते थे। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत के स्वतन्त्र होने के बाद 1951 में जो पहली जनगणना कराई गई थी उसमें जातिगत जनगणना की नीतिगत तौर पर विदाई कर दी गई थी। पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने यह फैसला बहुत सोच-समझ कर दूरदर्शिता दिखाते हुए लिया था और उस समय बाबा साहेब अम्बेडकर भी नेहरू सरकार में कानून मन्त्री थे। हालांकि इसी वर्ष उन्होंने हिन्दू कोड बिल के अटक जाने के मुद्दे पर नेहरू सरकार से इस्तीफा दे दिया था परन्तु दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने से भारत के सामाजिक समीकरणों में परिवर्तन आया जो पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के फैसले से जमीन पर उतरा। इस फैसले ने भारत में जातिगत आधार को मजबूत करने का काम किया। सामाजिक न्याय के नाम पर यह कार्य जिस तरह किया गया उससे ग्रामीण खेतीहर जातियों का ही आपस में ही बंटवारा हो गया। 
साठ के दशक में प्रख्यात समाजवादी चिन्तक व नेता स्व. डा. राममनोहर लोहिया ने नारा दिया था कि ‘जाति तोड़ों-दाम बांधों’। मगर जिस सामाजिक न्याय मन्त्रालय की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में जातिगत आधार पर जनगणना न कराये जाने का शपथ पत्र दिया गया है उसी मन्त्रालय का जिम्मा भारत में जाति कुप्रथा का उन्मूलन भी है। प्रत्येक वर्ष अन्तर्जातीय विवाहों के लिए देश के हर प्रदेश को बजट दिया जाता है, मगर इसमें से कितना खर्च हो पाता है?  बल्कि इसके विपरीत देश के हर कोने से जाति सीमा तोड़ कर विवाह करने वाले युवा दम्पत्तियों की ‘आनर किलिंग’ की खबरें हमारी संवेदना को झिंझोड़ जाती हैं और हम जाति का पिटारा लेकर बैठे रहते हैं। जो लोग तर्क देते हैं कि अंग्रेज जातिमूलक जनगणना कराया करते थे वे भूल जाते हैं कि 1919 के ‘भारत सरकार अधिनियम’  में अग्रेजों ने भारत को विभिन्न जातीय (नस्लों) व समुदायों और जातियों का एक भौगोलिक क्षेत्र माना था जिसे 1935 में पं. मोती लाल नेहरू ने भारत के संविधान का प्रारूप लिखते हुए विभिन्न अंचलों व प्रदेशों की विविध संस्कृति का एक संघ राज्य सिद्ध किया और अंग्रेजों ने 1935 में जब ‘भारत सरकार कानून’ लागू किया तो मोतीलाल जी के सिद्धान्त को ही माना। मगर अंग्रेज इस कदर छल-कपट करते थे कि उन्होंने 1947 में भारत के दो टुकड़े मजहब के आधार पर कर डाले जबकि 1935 के कानून के अनुसार भारत का विभाजन नहीं हो सकता था । इस बीच 1946 में अंग्रेजों ने भारत की प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव भी कराये थे मगर 1946 में तत्कालीन वायसराय लार्ड वावेल ने कह दिया कि ये चुनाव 1935 के कानून के तहत नहीं बल्कि 1919 के कानून के तहत कराये गये हैं जिसमें भारत विभिन्न नस्लों व जातियों का एक समुच्य था। अतः जातिगत जनगणना के भयंकर परिणामों को हमें पहचानना चाहिए। मोदी सरकार का केवल विरोध के लिए विरोध नहीं करना चाहिए। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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