श्रीमती प्रियंका गांधी ने चुनावी माहौल में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दा राष्ट्रवाद और राष्ट्र भक्ति का उठाया है। यह मुद्दा वास्तव में भारत की अस्मिता से जुड़ा हुआ है। इसके साथ ही यह मुद्दा भारत के विकास और इसकी आजादी की जद्दोजहद से भी जुड़ा होने के साथ गांधी-नेहरू परिवार की प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ है। जब भी राष्ट्रवाद की बात होती है तो कुछ लोग इसे धर्म की चौखट में फिट करने की कोशिश करके भारतीयता का अपमान करते हैं और इस देश की विराटता को बौना बनाने की हिमाकत करते हैं।
प्रियंका गांधी ने इसी बात को बहुत खूबसूरती के साथ इस प्रकार कहा है कि ‘देश भक्ति प्रत्येक व्यक्ति को अपने सद् कार्य के प्रति समर्पण से बांधती है और समूचे राष्ट्र को मजबूत बनाती है जिससे सीमाओं पर तैनात सिपाही से लेकर खेतों में काम करने वाले किसान व मजदूर राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करते हैं।’ दरअसल राष्ट्रवाद केवल सैनिक जुनून का नाम नहीं है बल्कि राष्ट्रीय निर्माण का नाम है जिसमें सेना की अपनी विशिष्ट भूमिका है। मगर लोगों में भ्रम पैदा करने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ और ‘वंश वाद’ का विमर्श खड़ा करके ‘राष्ट्र निर्माण’ के महान लक्ष्य को किनारे करके सैनिक जुनून को ही जब राष्ट्रीय अखंडता और एकता का पर्याय बनाने की कोशिश की जाती है तो देश की आन्तरिक मजबूती को भी हाशिये पर डाल दिया जाता है।
लोकतन्त्र में वंशवाद का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि किसी भी राजनीतिज्ञ का वंश आम जनता की तसदीक के बिना न बढ़ सकता है और न फल-फूल सकता है। यदि ऐसा होता तो आजादी के आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश इंडिया में महात्मा गांधी, मोती लाल नेहरू के युवा पुत्र जवाहर लाल नेहरू को क्यों वरीयता देते? प. नेहरू अपने आन्दोलनकाल में देश की युवा पीढ़ी में जबर्दस्त लोकप्रिय थे। अतः श्रीमती प्रियंका गांधी यदि आज के दौर में कांग्रेस पार्टी के झंडे के नीचे उस राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रही हैं जिसने इस देश का निर्माण किया है और इस निर्माण में उनकी पुरानी पीढ़ियों के बुजुर्गों का निर्णायक योगदान है तो ऐसा वंशवाद आम जनता के बीच स्वीकार्यता प्राप्त करके अपने लोकतान्त्रिक होने का ही प्रमाण देता है लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी बहुत महत्वपूर्ण है।
संसदीय लोकतन्त्र में राजनीति जब व्यक्ति केन्द्रित होने लगती है तो सबसे ज्यादा चोट साधारण या आम व्यक्ति के आत्मसम्मान को ही पहुंचती है और उसके एक वोट का सबसे बड़ा संवैधानिक अधिकार किसी जागीरदार की जागीर में रहने वाली रियाया के हक की तरह हो जाता है क्योंकि इस व्यवस्था में चुनाव 543 संसद सदस्यों का होता है न कि सीधे प्रधानमन्त्री का। जनता द्वारा चुने गये ये 543 सांसद ही लोकसभा में पहुंचकर प्रधानमन्त्री का चुनाव करते हैं और वह प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमंडल का चयन करके देश की शासन व्यवस्था का संचालन करता है। अतः यह बहुत स्वाभाविक प्रतिक्रिया है कि जब भी सामूहिक नेतृत्व की भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था व्यक्ति केन्द्रित होती है तो उसका विरोध सामूहिक रूप से ही होता है।
श्रीमती प्रियंका गांधी इसी सामूहिक विरोध का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में आम मतदाता को उसके एक वोट के अधिकार की कीमत के बारे में सजग कर रही हैं और समझा रही हैं कि यह वोट उनके आत्मसम्मान का रखवाला बनेगा न कि कोई ऐसा व्यक्ति जो उन्हें अपनी रियाया समझता हो क्योंकि लोकतन्त्र के मालिक वे हैं न कि कोई हुकूमत में बैठा मनसबदार उनका इंदिरा गांधी की पोती होना मायने इसलिए रखता है क्योंकि इन्दिरा जी इस देश की एेसी प्रधानमन्त्री रही हैं जिन्होंने राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रवाद व देश भक्ति की परिभाषा को अपने कार्यों से परिभाषित करते हुए देश की एकता व अखंडता को नये आयाम दिये।
इस मामले में इंदिरा जी ने कभी भी प्रतीकात्मक छाया खड़ी नहीं की बल्कि जमीन पर ठोस काम करके केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के लोगों को भी चौंका दिया। इसका एक ही उदाहरण काफी है कि जब बांग्लादेश विजय के बाद 1972 में उन्होंने चीन की सीमा से लगे ‘सिक्किम’ देश को भारतीय संघ का 22वां राज्य बनाया तो भारत के भीतर से ही इसके खिलाफ आवाजें उठीं। सबसे मुखर आवाज उठाने वाले उस समय स्व. मोरारजी देसाई थे जो तत्कालीन संगठन कांग्रेस के नेता थे। उनके साथ ही भारतीय जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी व संसोपा के जार्ज फर्नांडीज ने भी दबे स्वरों से इसकी निन्दा की। मगर इन्दिरा जी ने तब दो टूक घोषणा कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को देखते हुए सिक्किम का भारतीय संघ में विलयित होना बहुत जरूरी है और इस बारे में कोई समझौता नहीं किया जा सकता।
सिक्किम की जनता को भारत में वे ही अधिकार प्राप्त होंगे जो अन्य राज्य के लोगों के हैं और उनकी निजी स्वतन्त्रता का पूरा सम्मान करते हुए इस राज्य के लोगों की अपनी सरकार होगी न कि ‘चौग्याल’ का निरंकुश शासन। इंदिरा गांधी का यह राष्ट्रवाद था जो उन्होंने लोकतन्त्र की सीमा में विस्तार करते हुए किया न कि किसी सैनिक जुनून को पैदा करके और पूरी दुनिया ने उनके इस कार्य को वैधता प्रदान की और राष्ट्रसंघ ने भी भारत के इस कदम को बाद में मान्यता प्रदान कर दी और चीन को चुपचाप तमाशा देखने के लिए बाध्य कर दिया। ऐसा ही कार्य प. जवाहर लाल नेहरू ने भी 1961 में गोवा को पुर्तगाली गुलामी से छुड़ा कर किया था। 19 दिसम्बर 1961 गोवा के मुक्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है।
प. नेहरू ने केवल 36 घंटे में भारतीय सेना के ‘आपरेशन विजय’ से गोवा को भारतीय संघ में मिलाया था और सैकड़ों साल का पुर्तगाली शासन समाप्त कर दिया था। नेहरू की आलोचना में गला सुखाने वाले लोग इस आपरेशन विजय को भूल जाते हैं मगर देखिये क्या करामात उन्हीं की बेटी इन्दिरा गांधी ने ठीक दस साल बाद 16 दिसम्बर 1971 को ही उन्होंने पाकिस्तान को बीच से चीर कर बांग्लादेश बनवा दिया। क्या प. नेहरू और इंदिरा गांधी के इस राष्ट्रवाद की तुलना हम ‘खोंखियाते’ आत्म प्रशंसावाद से कर सकते हैं जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रतीक गढ़ कर मुल्क में सेना की बहादुरी को ही राजनैतिक विषय बनाया जा रहा है। प्रियंका गांधी का वंश यही है और उनका राष्ट्रवाद भी यही है जो बातें कम और काम ज्यादा करता है और जो भी करता है जमीन पर ठोस दस्तावेजों के साथ करता है। इसमें न धर्म है न हिन्दू है न मुसलमान केवल भारत और भारतीयता है और मुल्क को सलाम है और हिन्दोस्तानी का एहतराम है।