उत्तर–पूर्व के राज्य मेघालय में लोकतन्त्र कड़ी परीक्षा से गुजरने की दहलीज पर आकर खड़ा हो गया है। इसकी वजह चुनावों में मिला वह खंडित जनादेश है जिसमें किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है। एेसी परिस्थिति में चुने हुए विधायकों की बोली लगने का खतरा भी पैदा होता रहा है मगर किसी भी राज्य में एेसे हालात न बनें यह देखने का काम राज्यपाल के ऊपर होता है क्योंकि वह संविधान के शासन की स्थापना का संरक्षक होता है। संविधान में राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया है कि वह चुने हुए सदन के माध्यम से एेसी सरकार देंगे जो स्थाई हो और विधानसभा का बहुमत उसके पक्ष में हो। परन्तु यह कार्य करते समय राज्यपाल को लोगों द्वारा दिए गए उस जनादेश का सम्मान करना होगा जो नई विधानसभा का गठन करता हैै। बिना शक लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली में सर्वाधिक महत्व उस संख्या बल का होता है जो चुनावों से निकले जनादेश से निकलती है, मगर यह संख्या जनादेश के खंडित आने की वजह से चुनाव बाद के एेसे नए राजनीतिक समीकरणों को जन्म दे सकती है जो विधानसभा में बहुमत का भरोसा दिलाता है मगर इसका स्थायित्व सन्देह के घेरे में हो। क्योंकि विधायक पांच वर्ष के लिए चुने जाते हैं अतः किसी भी नई सरकार के जीवन को भी इसी दृष्टि से देखा जाता है।
मेघालय के राज्यपाल गंगा प्रसाद पर अब यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आ गई है कि वर्तमान राजनीतिक अस्पष्टता के वातावरण में किस तरह साफगोई की तस्वीर खींचते हैं जो समाचार मिल रहे हैं उनके अनुसार विधानसभा में उभरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए अपना दावा सबसे पहले पेश कर दिया है जबकि दूसरे नम्बर की एनपीपी ने अन्य छोटे दलों के समर्थन से अपना दावा पेश किया है। इनमें भाजपा के भी दो विधायक शामिल हैं अतः ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है, परन्तु लोकतन्त्र में हमें सभी तरह के उदाहरण मिल जाते हैं। इन उदाहरणों की शुचिता राजनीतिक पूर्वाग्रहों के दायरे में न बन्ध सके इसका ध्यान राज्यपाल को अवश्य रखना पड़ता है। इस सन्दर्भ में कुछ संवैधानिक व्यवस्थाएं और प्रक्रियाएं भी हैं जैसे किसी भी राज्य में स्पष्ट जनादेश न आने या त्रिशंकु विधानसभा के गठन की स्थिति में 1983 में गठित सरकारिया आयोग द्वारा केन्द्र–राज्य सम्बन्धों के सन्दर्भ में स्पष्ट व्यवस्था करके राज्य के राज्यपाल पर जिम्मेदारी डाली थी कि वह मतदाताओं की इच्छा को देखते हुए नई सरकार बनाने का पहला अवसर सदन में उभरी सबसे बड़ी पार्टी को देकर अपने संवैधानिक दायित्व और पद की पवित्रता और गरिमा को स्थापित करेंगे इसके बाद बोम्मई प्रकरण में सर्वोच्च न्यायलय ने 1988 में दिये गए अपने फैसले में भी इस आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए फैसला दिया कि बहुमत का निर्णय केवल विधानसभा के पटल पर ही होगा। जाहिरतौर पर ये परंपराएं जनादेश की अवमानना रोकने की गरज से स्थापित की गईं, किन्तु यह सवाल अक्सर खड़ा किया जा रहा है कि यदि चुनाव के बाद कोई एेसा नया गठबन्धन बन जाता है जिसका संख्याबल सबसे बड़ी पार्टी से ज्यादा ही न हो बल्कि उसका बहुमत भी बनता हो तो राज्यपाल का दायित्व क्या होगा?
इस सन्दर्भ में राज्यपाल का विवेक संविधान की उस ताकत से बंधा होगा जो उन्हें विधि सम्मत सरकार के गठन का दायित्व सौंपता है। राज्यपाल का प्रमुख और प्राथमिक दायित्व चुनाव प्रक्रिया से उपजे जनादेश के गणित को समझते हुए सरकार गठन का होगा और इस प्रकार करना होगा कि उन पर किसी प्रकार का आक्षेप न लग सके। विधानसभा के भीतर किसी भी राजनीतिक दल के सभी सदस्य एक इकाई होते हैं और भारत की चुनाव प्रणाली के तहत इन दलों के सदस्यों की विजय विभिन्न प्रतिद्वंद्वियों में सबसे ज्यादा मत लेने पर ही होती है अतः विधानसभा के भीतर भी वही दल विजयी माना जायेगा जिसके सदस्यों की संख्या सबसे ज्यादा होगी। इसलिए त्रिशंकु सदन में सरकार बनाने का सबसे पहला हक भी उसी का होगा। परन्तु इस सिद्धान्त पर हमेशा अमल हुआ हो, एेसा भी नहीं है। मगर यह सिद्धांत बताता है कि भारत के लोकतन्त्र के मूलाधार चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता से ही सरकार गठन की प्रक्रिया भी प्रत्यक्ष रूप से बंधी हुई है। बिना शक इसके विपरीत भी संवैधानिक मन्तव्य प्रतिपादित होते रहे हैं। तीन उत्तर पूर्वी राज्यों के शनिवार को जो चुनाव परिणाम आए हैं उनमें त्रिपुरा और नागालैंड में नई सरकार बनने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं है। बेशक नागालैंड में एनपीएफ सबसे बड़ी पार्टी है मगर चुनावों से पूर्व गठबन्धन बना कर लड़ने वाली भाजपा और एनडीपीपी के गठजोड़ के सदस्यों की संख्या उससे ज्यादा है अतः सरकार बनाने का पहला हक इसी गठजोड़ का है। मगर मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा आई है जिसकी वजह से यहां सरकार गठन की प्रक्रिया उलझ गई है। सबसे बड़ा उलझाव यह है कि हर परिस्थिति में सांझा सरकार का ही गठन होगा इसके स्थायित्व के चरित्र का ध्यान राज्यपाल को रखना होगा।