जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए सरगर्मियां तेज हो गई हैं। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद वहां पहली बार चुनाव हो रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं। कांग्रेस और नेशनल काॅन्फ्रेंस ने चुनावों के लिए गठबंधन कर लिया है। लाख कोशिशों के बाद भी महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी गठबंधन में शामिल नहीं हो पाई। कांग्रेस और नेशनल काॅन्फ्रेंस ने सीटों का बंटवारा भी कर लिया है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी मिशन कश्मीर के लिए जुट गई है और उसने अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव लाते हुए मुस्लिम उम्मीदवारों पर भरोसा जताया है। चुनावी गतिविधियों के बीच महबूबा मुफ्ती ने खुद चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है। हालांकि उनकी पार्टी पीडीपी चुनाव लड़ रही है। उनके चुनाव लड़ने से इंकार करने पर चुनावी गणित पर चर्चा होने लगी है। क्या महबूबा मुफ्ती ने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ली है? क्या उन्हें लगता है कि चुनावों में उनकी पार्टी की जीत की सम्भावनाएं न के बराबर हैं? महबूबा के चुनाव न लड़ने के कई मायने निकाले जा रहे हैं। जिस पीडीपी ने कभी भाजपा के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई हो अब उसी पीडीपी की प्रमुख महबूबा मुफ्ती का चुनाव न लड़ने का ऐलान आश्चर्यजनक लगता है। चुनाव न लड़ने की घोषणा करते हुए महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि अगर वह मुख्यमंत्री बन भी गईं तो भी वह केन्द्र शासित प्रदेश में अपनी पार्टी का एजैंडा पूरा नहीं कर पाएंगी।
असल में महबूबा ने कहा है कि मैं बीजेपी के साथ एक सरकार की मुख्यमंत्री रही हूं जिसने 12000 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी वापस ले ली थी। क्या हम अब ऐसा कर सकते हैं? मैंने प्रधानमंत्री मोदी के साथ सरकार की मुख्यमंत्री के रूप में अलगाववादियों को बातचीत के लिए आमंत्रित करने के लिए एक पत्र लिखा था। क्या आप आज ऐसा कर सकते हैं? मैंने जमीनी स्तर पर संघर्ष विराम (लागू) करवाया। क्या आप आज ऐसा कर सकते हैं? महबूबा ने यह भी कहा कि ऐसे मुख्यमंत्री पद का कोई मतलब नहीं जब एक चपरासी के तबादले के लिए उन्हें उपराज्यपाल के दरवाजे पर जाना पड़े। महबूबा ने यह कहकर निशाना साधा कि नेशनल काॅन्फ्रेंस और कांग्रेस दोनों पार्टियां सत्ता हथियाने के लिए एक साथ आती रही हैं। यद्यपि चुनावों में महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्जता मुफ्ती चुनावी मैदान में उतर रही हैं। चुनावी विशेषज्ञों का कहना है कि महबूबा मुफ्ती चुनाव में 'खेला' करने में लगी हुई है। जम्मू-कश्मीर के गुपकार घोषणा पत्र में उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती साथ-साथ खड़े नजर आए थे लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि महबूबा मुफ्ती को उमर अब्दुल्ला दुश्मन नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा प्रमुख मायावती जिस तरह से अखिलेश यादव पर निशाने साधती है उसी तरह महबूबा भी उमर अब्दुल्ला को टारगेट करती है और कभी-कभी परोक्ष रूप से कांग्रेस पर भी प्रहार करती है। अगर देखा जाए तो नेशनल काॅन्फ्रेंस और पीडीपी के घोषणापत्र में कोई ज्यादा फर्क नहीं है तो िफर महबूबा को चुनाव लड़ने से परहेज क्यों है।
अब सवाल यह है कि क्या महबूबा भाजपा को फायदा पहुंचाने का खेल खेलना चाहती है। जिस तरह मायावती चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारती है उससे साफ जाहिर होता है कि वह बसपा से ज्यादा किसी और को फायदा पहुंचाना चाहती है। क्या महबूबा ऐसा ही करना चाहती है। क्या इससे भाजपा को फायदा होगा? यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे। डेमोक्रेटिक प्रगतिशील आजाद पार्टी के अध्यक्ष गुलाम नबी आजाद ने भी अपने स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए प्रचार करने से इंकार कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर उनकी अनुपस्थिति में उम्मीदवारों को चुनावी सम्भावनाओं पर असर पड़ने की सम्भावना हो तो वे अपनी उम्मीदवारी वापिस भी ले सकते हैं। ऐसे में गुलाम नबी आजाद की पार्टी की चुनावी सम्भावनाएं लगभग न के बराबर हैं।
भाजपा नेशनल काॅन्फ्रेंस आैर कांग्रेस गठबंधन को चुनौती देने के लिए अपनी बदली हुई रणनीति पर काम कर रही है। घाटी में वह केवल आठ सीटों पर चुनाव लड़ रही है आैर उसकी योजना कुछ मजबूत निर्दलीय उम्मीदवारों को समर्थन देने की है। हालांकि टिकट बंटवारे को लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं के बगावती स्वर सुनाई दे रहे हैं। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में 30 सीटें जीतने का टारगेट रखा है।
आर्टिकल 370 के हटाए जाने के बाद हुए परिसीमन में जम्मू को 6 एक्स्ट्रा सीटें मिलीं लेकिन कश्मीर की सिर्फ एक ही सीट बढ़ी है। इस तरह जम्मू क्षेत्र की सीटें अब 37 से बढ़कर 43 हो गई है। जबकि कश्मीर क्षेत्र की 46 सीटों से बढ़कर 47 हो गई हैं। बीजेपी को परंपरागत रूप से जम्मू रीजन की तुलना में कश्मीर रीजन में बहुत ज्यादा समर्थन हासिल नहीं है। कश्मीर के रीजन में हिंदू वोटों का प्रभाव बहुत नहीं है। लिहाजा इस बार बीजेपी ने अपनी रणनीति बदली है। कश्मीर घाटी में मुस्लिम उम्मीदवारों पर भी दांव लगाया गया है, क्योंकि इन सीटों पर मुस्लिम वोटर ही निर्णायक भूमिका में हैं लेकिन राजनीति के जानकार लोगों का कहना है कि हाल के सालों में बीजेपी का कैडर यहां बढ़ा है। प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के पूर्व सदस्य भी इस बार निर्दलीय उम्मीदवारों के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं। जमात-ए-इस्लामी चुनावों का बहिष्कार करती रही है। हैरानी की बात है कि चुनाव प्रक्रिया में विश्वास नहीं करने वाले दल और सैकड़ों निर्दलीय इस बार चुनाव लड़ रहे हैं। मतदाताओं के सामने काफी विकल्प मौजूद हैं। देखना होगा िक जम्मू-कश्मीर का आवाम किसको सत्ता में लाता है या िफर खंडित जनादेश देता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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