जम्मू-कश्मीर की मुख्यमन्त्री महबूबा मुफ्ती के इस बयान पर गौर करने की जरूरत आज इसलिए बहुत ज्यादा है कि केन्द्र की मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा होने में अब एक साल से कुछ ज्यादा ही समय रह गया है और जम्मू-कश्मीर रियासत में हालात 2014 से भी बदतरी की तरफ मुड़ गए हैं। श्रीमती महबूबा का यह कहना कि जम्मू-कश्मीर को जंग का अखाड़ा न बनाया जाए दरअसल आम कश्मीरियों के उस दर्द की कैफियत है जिसे वे पिछले 70 सालों से सहते आ रहे हैं। सबसे पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि इस रियासत के नागरिक दिल से हिन्दोस्तानी हैं जिसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि जब भी पाकिस्तान की तरफ से इस रियासत में बद अमनी फैलाने की कोशिश फौजी या दूसरे जरियों से की गई है तब-तब आम कश्मीरी ने हिन्दोस्तान की तरफदारी में अपनी आवाज बुलन्द की है। इस राज्य की गंगा-जमुनी तहजीब के सिपहसालार के तौर पर कश्मीरी अपना फर्ज निभाने से पीछे नहीं हटे हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत पिछले दिनों अमरनाथ यात्रियों पर पाकिस्तानी दरिन्दों का हुआ हमला था जिसके खिलाफ हिन्दू यात्रियों को हर सहूलियत देने के लिए आम कश्मीरी मुस्लिम नागरिक उठ कर खड़े हो गये थे।
मगर एेतिहासिक तौर पर कश्मीर की रियाया शुरू से ही पाकिस्तान के वजूद के खिलाफ रही है। मजहब को आधार बनाकर भारत के दो टुकड़े करने वाले पाकिस्तानी हुक्मरानों को कश्मारियों का यह मिजाज शुरू से ही खटकता रहा जिसकी वजह से कश्मीर को लहूलुहान करने की नीयत से पाकिस्तान ने अपने वजूद में आने के साथ ही काम करना शुरू कर दिया और कश्मीर को मुल्क का बंटवारा करने के बाद विवादास्पद क्षेत्र बनाने की हरचन्द कोशिश की। इसमें जो लोग कश्मीरियों का कसूर मानते हैं वे अपनी अक्ल पर ताला डाल कर सोचते हैं क्योंकि अक्तूबर 1947 में जब इस रियासत के महाराजा हरि सिंह ने पूरी सल्तनत का भारतीय संघ में विलय किया था तो पूरी रियासत के किसी एक भी नागरिक ने इसका विरोध नहीं किया था। यहां तक कि तब के प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने महाराजा हरि सिंह द्वारा दिए गए विलयपत्र पर रियासत की सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक पार्टी नैशनल कान्फ्रैंस के नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के भी हस्ताक्षर कराये थे। यह महाराजा का ही प्रस्ताव था कि विशेष शर्तों पर भारत में विलय की गई उनकी रियासत के प्रधानमन्त्री के औहदे पर शेख अब्दुल्ला को ही नियुक्त किया जाए।
एक ‘हिन्दू’ महाराजा का यह फैसला अपनी रियासत के लोगों की लोकतान्त्रिक इच्छा का सम्मान ही नहीं था बल्कि पाकिस्तान के मुंह पर करारा तमाचा भी था क्योंकि शेख अब्दुल्ला हिन्दू-मुसलमान की लकीरों से ऊपर पूरे जम्मू-कश्मीर के लोगों के लोकप्रिय नेता थे मगर इसके बाद इतिहास ने बहुत करवटें लीं और कश्मीर का मसला पाकिस्तानी हुक्मरानों की बदनीयत व बदगुमानी की वजह से उलझता चला गया और इसने कश्मीर के नाम पर अपने मुल्क की रियाया को सब्जबाग दिखाने शुरू कर दिए और यहां की फौज ने कश्मीर को अपनी रोजी-रोटी का जरिया बना डाला और कश्मीर में जेहादी मुहीम तक छेड़ने की राह पर चलना शुरू कर दिया। यह काम पाक की फौज की शह पर इस तरह अंजाम दिया जाने लगा कि उसकी फौजें भारत से लगी सरहदों पर इसे सैनिक संघर्ष में बदलने लगीं। यह सिलसिला तकरीबन पिछले दस वर्ष से इस तरह चल रहा है जिसके दर्ज किए बिना किसी पाक फौजी का रोजनामचा पूरा नहीं होता है। जाहिर है इसका असर सरहदों पर बैठी जम्मू-कश्मीर की जनता पर ही होता।
महबूबा का दर्द यही है और इस हकीकत के बावजूद है कि वह रियासत में उस भाजपा पार्टी के साथ मिलकर सरकार चला रही हैं जो कश्मीर के मुद्दे पर अलग नजरिया रखती है। दरअसल यह सरकार ही खुद रियासत में एेसे प्रयोग के तौर पर वजूद में आई जिससे यहां के लोगों के अंदरूनी मसले पूरी तरह हल हो सकें। रियासत से जो अलगाववादी आवाजें आती हैं उन्हें भारत के संविधान के दायरे में लेकर इस तरह बेनकाब किया जाए कि उनकी पाक परस्ती का पर्दाफाश हो सके मगर हकीकत यह है कि पाकिस्तान उस शिमला समझौते से भागने की तरकीबें लगातार ढूंढता रहा जो उसने 1971 में हमसे किया था। इस मुल्क में फौजी हुकूमतों के आने-जाने से शिमला समझौते के वजूद पर किस तरह असर पड़ सकता है? पाकिस्तान की अन्दरूनी सियासत से भारत को कोई लेना-देना नहीं है।
वहां फौज का सिक्का चलता है या लोगों की चुनी हुई सरकार का, इससे भारत को लेना-देना इतना ही है कि यह मुल्क अपने लिखे हुए को सही तरीके से पढ़े और अपनी रियाया को इस बारे में बताए। भारत में भी चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, उसका भी लेना-देना शिमला में दोनों मुल्कों के बीच हुए अहद से है। बस इतनी सी बात है कि हम पाकिस्तान को खींच कर उसी मेज पर लाएं जहां उसने दस्तखत करके लिखा था कि वह सभी मसले बातचीत से हल करने की कसम खाता है। अगर इस बीच वह चोरी-छिपे परमाणु बम बनाने में कामयाब भी हो गया है तो अपने ही लिखे अहद को किस तरह उड़ा सकता है ? इसीलिए मैंने कल लिखा था कि हमें कूटनीति के जरिये से ही नामुराद पाकिस्तान को बेनकाब करना होगा और इसकी ‘कमजर्फ’ फौज के खूनी इरादों पर ‘खाक’ डालनी होगी।