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शरद यादव की पार्टी का ‘विलय’

पिछली संसद के कार्यकाल तक देश के ग्रामीण समाज के धुरंधर नेता माने जाने वाले शरद यादव ने अपनी पार्टी लोकतान्त्रिक जनता दल का श्री लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल में विलय करके विपक्ष की राजनीति को सशक्त करने का प्रयास किया है। दुखद यह है कि श्री यादव जब से बीमारी से उठे हैं सक्रिय राजनीति में भाग लेने में असमर्थ हैं परन्तु उनका दिल हमेशा गरीबों व पिछड़ों के लिए  ही धड़कता रहता है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि श्री यादव कृषि क्षेत्र की समस्याओं के सुविज्ञ जानकार हैं और जानते हैं कि भारत के कृषक समाज की मूल समस्याएं स्व. चौधरी चरण सिंह के जमाने से क्या रही हैं क्योंकि वह स्वयं चौधरी साहब के एक जमाने में परम शिष्य रहे हैं। यदि उनका स्वास्थ्य ठीक रहता तो वह देश में हुए किसान आन्दोलन को वह दिशा देते जिससे किसानों के सशक्त होने का कारगर रास्ता निकलता और विभिन्न किसान संगठन केवल कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर ही न डटे रहते लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी का राष्ट्रीय जनता दल में विलय करके एक ही सन्देश देने की कोशिश की है कि भाजपा के विरोध में केवल जातिगत संगठन या गठजोड़ करके  वैकल्पिक राष्ट्रीय राजनैतिक विमर्श खड़ा नहीं किया जा सकता।

बिहार के सन्दर्भ में राष्ट्रीय जनता दल को उनके इस कदम से बेशक मजबूती मिलेगी मगर लालू जी के सुपुत्र और बिहार के विपक्ष के मजबूत नेता तेजस्वी बाबू को यह भी सोचना होगा कि बिहार से बाहर भी दुनिया है और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष बुरी तरह बिखरा पड़ा है। विपक्षी दल जब अखिल भारतीय स्तर पर एक दूसरे का सहारा नहीं बनेंगे तब तक मजबूत विपक्ष का खाका नहीं खिंचेगा। श्री शरद यादव की राजनीति सकल समाजवादी विचारों की राजनीति रही है और लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों के प्रति उनकी पूरी निष्ठा रही है। पेशेवर इंजीनियर होने के बावजूद उन्होंने 1973 में ही राजनीति को इसलिए चुना था जिससे भारत में सामाजिक न्याय की अलख जगाई जा सके। इस मामले में श्री यादव को पुरोधा इस वजह से माना जा सकता है क्योंकि उन्होंने देश में इमरजेंसी लगने से पहले ही जबलपुर विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय होते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इदिरा गांधी की कथित अधिनायकवादी राजनीति का पुरजोर विरोध किया था जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें एक छात्र नेता के रूप में जेलों की सैर करनी पड़ी थी। मगर जेल में ही रहते हुए उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव लड़ा था और विजयी हुए थे। इसके बाद जबलपुर की ही कांग्रेस की सबसे मजबूत सीट से उपचुनाव जीत कर 1974 में लोकसभा में आये थे। इसके बाद शरद यादव ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और वह कांग्रेस विरोध के युवा प्रतीक बने रहे।

संसद के दोनों सदनों में अपने ओजस्वी भाषणों में उन्होंने गांव और गरीब की वकालत इस तरह की कि आम आदमी उनमें अपनी जुबान देखने लगा। शरद यादव का यही सबसे बड़ा गुण था जिसने उन्हें 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के बने जनता दल में विशिष्ट स्थान प्रदान किया लेकिन 1990 में जब जनता दल के टुकड़े हुए और इसके बाद लालू जी ने भी अपना अलग राष्ट्रीय जनता दल बना लिया तो शरद जी के नेतृत्व में ही जनता दल (यू ) का गठन हुआ। इसी पार्टी ने बाद में केन्द्र में वाजपेयी सरकार बनने के बाद स्व. जार्ज फर्नांडीज की पार्टी समता पार्टी का भी विलय हो गया परन्तु बाद में बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के साथ शरद जी के मतभेद इस तरह उभरे कि नीतीश कुमार खेमे ने न केवल शरद जी से जनता दल (यू) की अध्यक्षता ले ली और उन्हें पार्टी से बागी करार दे दिया बल्कि उनकी राज्यसभा सदस्यता भी ले ली लेकिन शरद जी ने स्थितियों का डट कर मुकाबला किया और 2018 में अपनी अलग पार्टी ‘लोकतान्त्रिक जनता दल’ में विलय किया है। हालांकि श्री शरद यादव को भी कुछ लोगों ने जातिवादी घेरे में डालने की कोशिश की मगर सत्य यह है कि वह जातिवाद के घनघोर विरोधी रहे हैं जिसका प्रमाण यह है कि उहोंने मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान लोकसभा में जातिवाद पर ही बहस कराने की कई बार मांग की थी और कहा था कि इस  मुद्दे पर संसद में बहस कराई जानी चाहिए जिससे भारत में प्रगतिशील विचारों को अमली जामा पहनाने में सुविधा हो और सामाजिक गैर बराबरी दूर करने के वैकल्पिक वैज्ञानिक पैमानों पर भी काम किया जा सके। परिवार में मां को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के शरद यादव बहुत बड़े सिपाही रहे हैं और संसद में कई बार उन्होंने खुलकर वकालत की है कि परिवार की मां को आर्थिक रूप से मजबूत बना कर ही सामाजिक बदलाव की तरफ बढ़ा जा सकता है। उनके विचार जमीन की हकीकत से जुड़े हुए माने जाते हैं जिन्हें राष्ट्रीय जनता को सिद्धान्त रूप से स्वीकार करना चाहिए। कुल मिलाकर श्री यादव की पार्टी के राष्ट्रीय जनता दल में विलय से लालू जी का पार्टी का वैचारिक फलक विस्तारित होगा।