सर्वोच्च न्यायालय ने आज जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए स्पष्ट निर्देश दिया है कि इंटरनेट अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का ही अंग है और सरकार इसे मनमाने ढंग से मुल्तवी नहीं रख सकती। इसके साथ ही धारा 144 को लागू करने के सरकार के अधिकार को भी न्यायालय के तीन न्यायमूर्तियों की पीठ ने निरापद नहीं माना है और स्पष्ट किया है कि लोकतान्त्रिक रूप से असहमति या प्रतिरोध अथवा विरोध या असन्तोष या शिकायत प्रकट करने पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु इस धारा को मनमानी सुविधा के अनुसार लागू नहीं किया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकार से साफ कर दिया है कि यह धारा लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकार निरस्त करने के हथियार के तौर पर प्रयोग नहीं की जा सकती और इसका प्रयोग अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार को स्थगित करने के लिए नहीं किया जा सकता। जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में इंटरनेट सेवाओं को बहाल करने के लिए न्यायालय ने समीक्षा समिति बनाने का निर्देश दिया है जो एक सप्ताह के भीतर यह काम करके नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार से लैस करने पर विचार करेगी।
न्यायालय ने इसके साथ यह भी स्पष्ट किया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य में हुए संरचनागत बदलाव से नागरिकों के मूल व मौलिक अधिकारों का कोई लेना-देना नहीं है, संरचनात्मक बदलाव लोकतान्त्रिक ढांचे के नजरिये से देखा जायेगा। जाहिर है कि जम्मू-कश्मीर राज्य का लगभग छह महीने पहले अनुच्छेद 370 हटा कर जो विशेष दर्जा समाप्त किया है उससे नागरिकों के उन मूल अधिकारों पर कोई अन्तर नहीं पड़ता है जो भारत का संविधान प्रत्येक भारतीय नागरिक को देता है।
इंटरनेट आधुनिक समय में जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करता है और सूचना लेने-देने का प्रमुख औजार है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में साफ कर दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मतलब केवल विचारों की खुली अभिव्यक्ति ही नहीं है बल्कि इन विचारों से दूसरे नागरिकों को अवगत कराना भी है और इसके लिए इंटरनेट सशक्त माध्यम है। शिक्षा से लेकर व्यापार व स्वास्थ्य सेवा से लेकर पर्यटन तक के क्षेत्र में इंटरनेट आज नागरिकों की जरूरत बन चुका है।
जम्मू-कश्मीर के कश्मीर वादी के इलाके के लोग पिछले छह महीने से इंटरनेट सेवाओं के बिना ही रह रहे हैं। संचार प्रणाली को बेदम करके हम किसी क्षेत्र की पुनर्संरचना की कल्पना नहीं कर सकते। अतः सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों का यह कहना कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर कोई भी प्रतिबन्ध खतरों के अनुपात में जायज होना चाहिए और इसके पीछे पुख्ता वजह होनी चाहिए और वे तर्क होने चाहिएं जिन्हें न्यायिक स्तर पर सही ठहराया जा सके।
बेहिसाब तरीके से लगाये गये प्रतिबन्ध सामान्य परिस्थितियों में जायज नहीं कहे जा सकते और उनकी न्यायिक समीक्षा होनी चाहिए। अतः प्रशासन को बजाय बेधड़क तौर पर प्रतिबन्ध लगाने के अन्य वैकल्पिक उपायों पर विचार करना चाहिए। अतः मौलिक नागरिक अधिकारों पर लगाये गये उस प्रतिबन्ध को हद से बाहर माना जायेगा जिसे बिना किसी वाजिब वजह के लागू किया गया हो। मौलिक अधिकार आपातकाल के समय ही निरस्त किये जा सकते हैं।
न्यायमूर्तियों ने यह भी साफ कर दिया कि वर्तमान संचार सेवा अधिनियम-2017 के तहत इंटरनेट सेवाओं का अनिश्चिकाल के लिए स्थगन नहीं किया जा सकता है। इसके तहत कुछ लघु अवधि के लिए ही स्थगित संभव है। इस कानून में निश्चित समयावधि के निर्दिष्ट न होने की वजह से ही सरकार इंटरनेट सेवाओं को लगातार मुल्तवी रख रही है। अतः संसद को इस कानून की इस खामी को दूर करना चाहिए।
इससे स्पष्ट है कि भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका ने सरकार को आइना दिखाते हुए तस्वीर साफ कर दी है कि लोकतन्त्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को केवल शासन की सुविधा के लिए मुल्तवी करना संभव नहीं है। सरकार को आदेश देने से पहले सोचना होगा कि उसका हुक्म न्यायपालिका में जाकर कहां टिकेगा। यही भारत के लोकतन्त्र की विशेषता और महानता है कि इसे चुस्त-दुरुस्त बनाये रखने की व्यवस्था इसके भीतर ही बनी हुई है।
इस लोकतन्त्र के चारों खंभों में से जब भी कोई खंभा बेलगाम या निरंकुश होने का प्रयास करता है तो दूसरा खंभा उठ कर उसका कद नाप देता है। इन सभी खंभों में स्वतन्त्र न्यायपालिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वह संविधान के अक्षरों के दर्पण में सरकारी फरमानों के मायने देखती है। अतः हर जिले के जिलाधीश को अपने किसी भी इलाके में धारा 144 लगाने से पहले उसकी सही और वाजिब वजह भी बतानी होगी और भारत की बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली के तहत प्रदेशों की सरकारों को भी असहमति को सम्मानजनक जगह देनी होगी।