भारत की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सार्वजनिक संस्थानों ने कम ही समय में भारत की अर्थव्यवस्था में गहरी जड़ें जमा ली हैं। भारत जैसे देश में सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को स्थापित करने की आवश्यकता के सम्बन्ध में कोई दो राय नहीं हो सकती। सार्वजनिक सेवाओं से जुड़े संस्थान ही समाज के कल्याण के लिए अपनी सेवाएं दे सकते हैं। निजी संस्थानों का मूल उद्देश्य तो लाभ कमाना होता है। लोग वहीं निवेश करते हैं जहां उन्हें लगता है कि उनका धन दोगुना हो जाएगा। रेलवे को पहले कभी भी लाभ-हानि की दृष्टि से नहीं चलाया जाता था। रेलवे विभाग लोगों को अपनी सेवाएं देता था, अब तो पूरे देश में रेलवे का विस्तार हो चुका है। करोड़ों यात्री ट्रेनों में सफर करते हैं लेकिन अब रेलवे को भी लाभ-हानि की दृष्टि से चलाया जा रहा है। सारा जोर इस बात पर है कि रेलवे अपना घाटा कैसे पूरा करे। दुर्भाग्य यह है कि सार्वजनिक संस्थानों की कार्यकुशलता नहीं बढ़ रही। कर्मचारियों की अक्षमता, तकनीकी ज्ञान और अनुभव की कमी के कारण ढीलापन और दायित्वहीनता के चलते देश की सार्वजनिक सेवाएं खोखली हो चुकी हैं। इतना ही नहीं, इन संस्थानों में भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार भी छिपा हुआ है। दिल्ली में मैट्रो परियोजना की शुरूआत राजधानी की परिवहन व्यवस्था को सुधारने के लिए की गई थी। दिल्ली परिवहन निगम यात्रियों का बोझ सहन करने काबिल नहीं था इसलिए जरूरी था कि लोगों को भीड़भाड़ से मुक्ति दिलाने के लिए कोई वैकल्पिक परियोजना तैयार की जाए।
दिल्ली परिवहन निगम का बढ़ता घाटा भी चुनौती बना हुआ था। मैट्रो परियोजना पर सबसे पहला विचार दिल्ली के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता स्वर्गीय जगप्रवेश ने दिया था जिस पर काम मदन लाल खुराना के मुख्यमंत्री रहते शुरू हुआ। उद्देश्य यही था कि दिल्ली के लोगों को ट्रैफिक जाम से मुक्ति मिले। मैट्रो रेल शुरू होने का अनुभव काफी सुखद रहा और यह परियोजना देशभर के लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन गई। लोगों को सामान्य किराये पर अपने गंतव्य तक पहुंचने की सुविधा मिली। मैट्रो ट्रेन परियोजना की सफलता को देखते हुए राजधानी के विभिन्न क्षेत्रों में इसका विस्तार हुआ। राजधानी की हर वर्ष बढ़ती आबादी के कारण मैट्रो ट्रेनों में भी दिल्ली की लोकल ट्रेनों की तरह भीड़भाड़ बढ़ती गई। कभी-कभी तो हालत ऐसी हो जाती है कि मैट्रो ट्रेन में भी यात्रियों का दम घुटने लगता है। ‘कैटल क्लास’ शब्द जेहन में उतरने लगते हैं। सार्वजनिक सेवाएं सस्ती होनी चाहिएं लेकिन डीएमआरसी ने 10 अक्तूबर को किराया बढ़ा दिया। किराया बढऩे के बाद 5 किलोमीटर से ज्यादा सफर तय करने वाला हर यात्री प्रभावित हुआ जबकि 32 किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा के लिए अधिकतम किराया 60 रुपए हो गया। दिल्ली मैट्रो का किराया दुनिया के बड़े शहरों की मैट्रो के मुकाबले ज्यादा है।
बीजिंग , न्यूयार्क और पेरिस जैसे शहरों की मैट्रो के किराये से तीन गुना ज्यादा किराया दिल्ली मैट्रो का है। जो आमदनी का प्रतिशत दिल्ली मैट्रो के सफर पर खर्च किया जाता है वह 23.39 फीसदी है यानी बीजिंग , न्यूयार्क और पेरिस जैसे शहरों से तीन गुना ज्यादा है। किराया बढऩे के बाद यात्रियों की संख्या घट रही है। रोजाना तीन लाख यात्री घट गए हैं। किराया बढ़ाने का फैसला उलटा पड़ चुका है। यात्रियों की संख्या घटी सो घटी, पिछले एक वर्ष में स्मार्ट कार्ड की बिक्री में भी गिरावट दर्ज की गई है। पिछले वर्ष जुलाई, अगस्त, सितम्बर और अक्तूबर में मैट्रो ने रोजाना करीब 15650 कार्डों की बिक्री की थी। इस साल इसी अवधि में यह आंकड़ा गिरकर 12,250 पर पहुंच गया। लोग विदेशों में अपनी निजी कारें छोड़ सार्वजनिक सेवाओं का इस्तेमाल इसलिए करते हैं क्योंकि वह उन्हें किफायती और सुविधाजनक लगती हैं। अगर लोगों को लगेगा कि सेवाएं महंगी हैं तो फिर वे दूरी बना लेते हैं। एक तरफ दिल्ली में वायु प्रदूषण काफी हद तक बढ़ा हुआ है। दिल्ली परिवहन निगम यात्रियों का बोझ झेलने में सक्षम नहीं। आखिर लोग जाएं तो कैसे जाएं, इसलिए उन्हें अपने निजी वाहनों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। अब तो दिल्ली परिवहन निगम भी किराया बढ़ाने पर भी विचार कर रहा है। बसों की संख्या भी घट रही है। सार्वजनिक का अर्थ होता है जो जन-जन से जुड़ी हो, अगर सेवाएं जन-जन से जुड़ी न हों तो फिर इनका फायदा ही क्या? तब तो मैट्रो ट्रेन देखा जाने वाला शोपीस बनकर रह जाएगी। डीएमआरसी को चाहिए कि वह लाभ के लिए वैकल्पिक योजनाओं पर काम कर सकती है लेकिन यात्रियों की संख्या में कटौती से उसे नुक्सान ही पहुंच रहा है।