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दूध का दूध और पानी का पानी

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आज से संसद का वर्षाकालीन सत्र शुरू हो रहा है। यह सत्र कई मायनों में महत्वपूर्ण होगा विशेषकर इसे देश में व्याप्त अराजकता जैसी परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर आम जनता मंे वह विश्वास पैदा करना होगा जिससे उत्तर से लेकर दक्षिण तक समूचा समाज मजहब,जातिगत व क्षेत्रगत भावनाओं को दरकिनार करके मजबूत राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ सके। कोई भी देश तभी मजबूत बनता है जब इसके लोग सामाजिक, आर्थिक व वैचारिक तौर पर मजबूत होते हैं। इस सन्दर्भ में सबसे ज्यादा महत्व समाज के उस वर्ग का होता है जो किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना प्रत्येक नागरिक की मूलभूत जीवन जीने की जरूरतों को अपनी मेहनत से उपलब्ध कराता है और उसके बल पर अपनी आजीविका कमाता है।

इसमें सबसे ऊपर किसान आता है और कृषि क्षेत्र व ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े परंपरागत दस्तकार से लेकर मजदूर, कारीगर, बुनकर व फनकार और छोटे दुकानदार आते हैं। इन लोगों के मजहब व जातियां अलग-अलग हो सकती हैं मगर इनका विस्तार पूरे भारत मंे इस प्रकार है कि हर प्रदेश में वहां की भौगोलिक स्थितियों के अनुसार इनकी समूचे समाज के भरण-पोषण की भूमिका में कोई अन्तर नहीं आता है। बदलते भारत में यही तबका आज सबसे ज्यादा उपेक्षा का शिकार इसलिए हो रहा है कि हमारी विकास करने की वरीयताओं में परिवर्तन इस प्रकार आया है कि हमने गांवों की कीमत पर शहरों के चमकीले और अन्धाधुंध विकास को अपना मूल मन्त्र बना लिया है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि आज भी इस देश में शहरों में बिकने वाली ‘पेयजल’ की एक लीटर की बोतल की कीमत से गांवों के दुग्ध उत्पादक किसान के एक लीटर ‘दूध’ की कीमत कम है। महाराष्ट्र राज्य में दूध उत्पादन करने वाले किसान अपना आन्दोलन पिछले कई दिनों से चला रहे हैं और सरकार से मांग कर रहे हैं कि उसके दूध की कीमत कम से कम 27 रु. प्रति लीटर तो तय हो जिससे वह इस डेयरी के धन्धे में लगा रह सके। सरकार ने उसके दूध की कीमत 16 रु. प्रति लीटर तय की हुई है मगर शहर में जब उसका दूध संसाधित संयन्त्रों से गुजर कर वहां रहने वाले नागरिकों के पास पहुंचता है तो उसे न्यूनतम 40 रु. प्रतिलीटर की कीमत अदा करनी पड़ती है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जो कम्पनियां या फैक्टरियां केवल पानी को ही संसाधित करके उसे बाजार में 20 रु. प्रति लीटर बेच देती हैं उनकी आय और दूध बेचने वाले किसान की आय में कितना बड़ा जमीन-आसमान का अन्तर होगा।

यह किसान गाय या भैंस पाल कर और उसके लालन-पालन का पूरा खर्च उठा कर ही दूध का उत्पादन करता है और इसके बावजूद उसकी आमदनी पानी बेचने वाली फैक्टरी के मुकाबले दस गुना कम ही नहीं होती बल्कि कभी-कभी उसे नुकसान उठा कर भी दूध की आपूर्ति करनी पड़ती है क्योंकि उसके जीवन के आसरे के लिए कोई दूसरा स्रोत नहीं होता। यह सवाल गोरक्षा से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि गाेपालक किसान को ही यदि आर्थिक संरक्षण नहीं मिलेगा तो गाय को कैसे मिल सकेगा? जब गाय से प्राप्त दूध का मूल्य किसान को इतना लाभ देने वाला नहीं मिलेगा कि वह इसके भरोसे अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके तो वह गाय क्यों पालेगा? अतः वक्त का तकाजा है कि देश के सभी गोरक्षा संगठनों को एकजुट होकर महाराष्ट्र पहुंच जाना चाहिए और किसानों की मांगों के साथ एकजुटता दिखानी चाहिए क्योंकि जब गोपालक किसान ही संकट में घिर जायेगा तो गाय पर आने वाले संकट को किस प्रकार टाला जा सकेगा? क्या मजाक बना हुआ है इस राज्य मंे कि पिछले तीन महीने में 639 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

यहां हर रोज छह किसान आत्महत्या कर रहे हैं जबकि सरकार कह रही है कि उसने किसानों का ऋण माफ करने की नीति लागू कर दी है। हम क्यों भूल जाते हैं कि गांव के आदमी की औसत आमदनी आज भी शहर के आदमी की औसत आमदनी की आधी है। इस अन्तर को हम जब तक कम नहीं करेंगे तब तक यह देश मजबूत नहीं बन सकता क्योंकि गांवों का रहने वाला व्यक्ति ही भारत की फौज मंे भी अपनी युवा पीढ़ी को भेजता है और वह कुल जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत के लगभग है। लाल बहादुर शास्त्री का यह नारा केवल बोलने के लिए नहीं था कि ‘जय जवान-जय किसान’ बल्कि इसके पीछे भारत की जमीनी हकीकत थी। जब पं. नेहरू ने यह नारा दिया था कि ‘आराम हराम है’ तो अंग्रेजों द्वारा कंगाल किये गये भारत को गरीबी की दलदल से बाहर निकालने का लक्ष्य इस कदर साफ था कि हमने कल-कारखानों से लेकर बड़े-बड़े बांधों को अपने मन्दिर-मस्जिद समझा। हम कभी भी लक्ष्य से नहीं भटके।

अगर भटकते तो हम न आज परमाणु शक्ति होते और न ही हमारे किसानों ने हमें अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही निर्यातक देश बना दिया होता लेकिन संविधान के तहत कृषि राज्य सूची का विषय है और केन्द्र सरकार की इस सम्बन्ध मंे सारी योजनाओं का क्रियान्वयन राज्य सरकारों को ही करना होता है मगर महाराष्ट्र में गजब का खेल हो रहा है। जो प्रधानमन्त्री कृषि बीमा योजना घोषित की गई थी उसमें इस राज्य के किसानों को प्री​िमयम भरने के बाद उनकी फसल बर्बाद होने पर उन्हें एक रुपये से लेकर पांच रुपये तक का मुआवजा दिया गया है। एेसे किसानों की संख्या हजारों में है, ये सभी छोटे किसान हैं। धरती का भगवान कहे जाने वाले किसान का इससे बड़ा अपमान और कुछ नहीं हो सकता। इसका मतलब यही निकलता है कि इस योजना का लाभ बीमा कम्पनियों को ही मिल रहा है।

क्या मजाक है कि किसान के पूरे खेत की फसल की कीमत एक रु. या दो रु. आंक ली जाये मगर हम तो इसे राष्ट्रीय समस्या मान रहे हैं कि कौन सी पार्टी हिन्दुओं की है और कौन सी मुसलमानों की? हम अपने बनाये संसार में जीना चाहते हैं और साबित करना चाहते हैं कि भारत अब भी वहीं खड़ा है जहां 1947 में था। यह मतिभ्रम है जो मरीचिका की तरह गफलत पैदा कर रहा है। जमीनी हकीकत वह है जो दूध बेचने वाले बता रहे हैं और कह रहे हैं कि अगर दूध और पानी के मूल्य में इस कदर बेइमानी होती रही तो फिर ‘दूध से धुला’ और दूध का दूध व पानी का पानी कैसे होगा? कौन मिलेगा! भारत के नेताओं पर यह कर्ज चढ़ा हुआ है कि गांवों में रहने वालों की आमदनी में इजाफा उनकी ही मेहनत के बूते पर हो।

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