सर्वोच्च न्यायालय ने खनिज सम्पदा पर राज्यों द्वारा वसूले जाने वाली रायल्टी को कर न मानते हुए इसे राज्यों को वसूलने का अधिकार दिया है और साफ किया है कि अपने क्षेत्र की इस भू सम्पदा पर उनका पूरा अधिकार है। भारत में एेसे आधा दर्जन से अधिक राज्य हैं जहां की धरती के गर्भ में बहुमूल्य खनिज सम्पदा छिपी हुई है। इनमें झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्यप्रदेश व तेलंगाना प्रमुख हैं। इस खनिज सम्पदा में विभिन्न धातुएं भी होती हैं। यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने दिया है। फैसला 8-1 के बहुमत से आया है। पीठ में एकमात्र न्यायमूर्ति श्रीमती नागरत्ना ने बहुमत के फैसले से भिन्न राय रखते हुए इसे कर के रूप में स्वीकार किया और रायल्टी तय करने में केन्द्र को भी अधिकार दिये। इस ताजा फैसले से संसद द्वारा 1957 के खनिज व खान (विकास) अधिनियम के अनुसार एक कर है जिसे राज्य सरकारें अपनी मर्जी के मुताबिक नहीं लगा सकतीं। कर तय करने में केन्द्र सरकार की भूमिका को अलग नहीं रखा जा सकता। मगर ताजा फैसले में इस दलील को अस्वीकार कर दिया गया है और कहा गया है कि राज्यों को रायल्टी वसूलने का पूरा अधिकार संसद द्वारा बनाया गया 1957 का कानून विभिन्न उपधाराओं में देता है।
प्रमुख सवाल यह है कि देश भर में वस्तु व सेवाकर (जीएसटी) शुल्क प्रणाली लागू हो जाने के बाद राज्यों के पास राजस्व उगाही के बहुत सीमित अधिकार रह गये हैं। जीएसटी लागू होने के बाद राज्य बिक्री कर प्रणाली समाप्त हो जाने के बाद राज्य केवल मादक पदार्थों जैसे मदिरा व पेट्रोल या डीजल पर ही बिक्री कर लगा सकते हैं। उनके आय के साधन लगभग सूख से गये हैं और उन्हें जीएसटी में अपने हिस्से के लिए केन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है। जीएसटी प्रणाली संसद की परिधि से बाहर विकसित की गई वित्तीय व्यवस्था है। अतः जीएसटी के कार्यकलापों के बारे में संसद में भी विचार नहीं हो सकता है। हालत यह है कि विभिन्न राज्य जीएसटी शुल्क में अपने हिस्से के लिए केन्द्र के आगे गिड़िगड़ाते रहते हैं। एेसे माहौल में यदि खनिज सम्पदा से भरपूर राज्यों को अपने मन मुताबिक खनिज सम्पदा पर रायल्टी तय करने का अधिकार मिलेगा तो उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी होगी और वे अपने लोगों का विकास अधिक जोरदार तरीके से कर सकेंगे। यह विडम्बना ही है कि जिन राज्यों में खानों व खनिज सम्पदा का भंडार है वे देश के गरीब राज्यों में शुमार होते हैं और इनमें रहने वाले लोगों को अमीर धरती के गरीब लोग कहा जाता है। जबकि अपने प्रदेश की खनिज सम्पदा पर इन्हीं लोगों का पहला हक बनता है। इन राज्यों की राजनीति में कार्पोरेट क्षेत्र भी पर्दे के पीछे से बड़ी भूमिका निभाता है क्योंकि इन राज्यों की खनिज सम्पदा पर उसकी पैनी निगाह रहती है।
यही वजह है कि एेसे राज्यों में नक्सलवाद की समस्या पैदा होती है। इसके अपने अलग कारण हैं जिनकी समीक्षा अलग से की जा सकती है। मगर राज्यों को रायल्टी तय करने का अधिकार मिल जाने का अर्थ यह नहीं है कि वे अंधाधुंध तरीके से खनिजों पर रायल्टी वसूलें उन्हें एेसा करते हुए देश हित का भी ध्यान रखना होगा जिसकी तरफ न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अपने फैसले में ध्यान दिलाया है। उनका कहना है कि राज्यों को यह अधिकार मिल जाने से उनमें प्रतियोगिता का माहौल पैदा होगा, जिसका असर पूरे औद्योगिक क्षेत्र पर पड़ेगा और उत्पादित वस्तुएं महंगी हो सकती हैं। साथ ही राज्यों को अपने नागरिकों के हितों का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि खनिज दोहन में उनकी भी पूरी हिस्सेदारी हो तथा खनिज सम्पदा के दोहन से निर्मित होने वाले कल कारखानों में उन्हें भी व्यवसाय मिले। क्योंकि रायल्टी अधिकार मिलने से उनके राज्यों के लोग भी 'अमीर' होने चाहिए। इसके साथ ही इन राज्यों के आिदवासियों के अधिकारों का भी हनन न हो क्योंकि जल, जंगल, जमीन पर पहला अधिकार उन्हीं का होता है। 1989 के सात न्यायमूर्तियों के फैसले में तो कहा गया था कि संसद यदि चाहे तो राज्यों को रायल्टी वसूलने से बेदखल तक कर सकती है परन्तु ताजा फैसले से स्थिति पूरी तरह बदल गई है और अब यह राज्यों की जिम्मेदारी बन गई है कि वे अपने प्रदेशों के आदिवासियों के हितों का इस प्रकार ख्याल रखें कि उनकी हिस्सेदारी भी जल, जंगल, जमीन पर तय हो सके। सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला भारत के संघीय ढांचे को मजबूत बनाने वाला ही समझा जायेगा और जिसमें राज्यों के अधिकारों को वैधता प्रदान की गई है। वैसे भी भारत राज्यों का संघ (यूनियन आफ इंडिया) है। राज्य यदि मजबूत होते हैं तो केन्द्र भी मजबूत होगा । बेशक संविधान में केन्द्र को पहले से ही मजबूत रखा गया है मगर सर्वांगीण व समेकित विकास के लिए राज्यों का मजबूत होना भी बहुत जरूरी है जिसकी गुंजाइश भी भारतीय संविधान में है।