सीरिया पर अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के हमले को तृतीय विश्व युद्ध की आहट के रूप में देखा जा रहा है। अमेरिका और रूस में तनाव काफी बढ़ गया है और सीरिया को लेकर समूचा विश्व बंटा हुआ नजर आ रहा है। रूसी राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन असद सरकार के समर्थक हैं। डर इस बात का है कि रूस ने अमेरिकी हमलों का कड़ा जवाब दिया तो स्थिति काफी भयावह हो सकती है, जो तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ सकती है।
फिलहाल सीरिया में ‘मिनी वर्ल्ड वार’ ही चल रही है। जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो पुतिन उनके दोस्त थे, लेकिन सीरिया संकट ने न केवल उनकी दोस्ती को तोड़ा बल्कि महाशक्तियों को बिल्कुल आमने-सामने तनावपूर्ण स्थिति में खड़ा कर दिया। सीरिया का संकट मानवता के लिए गम्भीर संकट है। सीरिया की लड़ाई में कूदी महाशक्तियों की लड़ाई मूलतः कहीं भी अपने मूल उद्देश्यों या जनहित से नहीं जुड़ी है बल्कि यह एक वर्चस्व की लड़ाई है, जिसके परिणाम दुनिया को भुगतने पड़े हैं और भविष्य में भी भुगतने पड़ेंगे।
एक अनुमान के अनुसार सीरिया के गृहयुद्ध में 4 लाख से ज्यादा नागरिक मारे जा चुके हैं, वहीं 50 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थी बनने को मजबूर हुए। हजारों लोग तो किसी न किसी तरह यूरोपीय देशों में पहुंचने की चाह में समुद्र में डूबकर मारे गए। 50 लाख शरणार्थियों के कारण यूरोप के लिए शरणार्थी संकट काफी गम्भीर हो गया था। सवाल यह है कि सीरिया का युद्ध कैसे शुरू हुआ और कैसे यह महाशक्तियों का अखाड़ा बना?
संघर्ष शुरू होने से पहले अधिकतर सीरियाई नागरिकों के बीच बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव और तानाशाह बशर-अल-असद की दमनकारी नीतियों के खिलाफ आक्रोश व्याप्त था। असद ने जनांदोलन को क्रूर तरीके से दमन करना चाहा तो महाआक्रोश फूट पड़ा। समय के साथ-साथ आन्दोलन तेज होता गया, विरोधियों ने हथियार उठा लिए।
असद ने विद्रोह को विदेश समर्थित आतंकवाद करार देते हुए इसे कुचलने का संकल्प लिया था। 2012 आते-आते सीरिया बुरी तरह गृहयुद्ध में प्रवेश कर गया। अनेक विद्रोही गुटों ने एक समानांतर व्यवस्था स्थापित कर ली और सीरिया के काफी भूभाग पर अपना नियंत्रण बना लिया। सुन्नी बहुल सीरिया में राष्ट्रपति बशर-अल-असद शिया हैं, इसलिए संघर्ष को शिया-सुन्नी संघर्ष के तौर पर भी देखा गया। जिहादी गुटों को भी शिया-सुन्नी दरार रास आई। हयात ताहिर-अल-शम ने अलकायदा से जुड़े संगठन अल-नुसरा फ्रंट से गठबंधन कर लिया। इसी गठबंधन ने इदलिव पर नियंत्रण कायम कर लिया।
इसी दौरान कुख्यात आतंकी संगठन आईएस पूरी ताकत से उभरा और उसने उत्तरी आैर पूर्वी सीिरया के काफी हिस्सों पर नियंत्रण पा लिया। फिर शुरू हुआ विद्रोही गुटों और सरकारी बलों में संघर्ष। कुर्दिश चरमपंथी भी इसमें कूद पड़े। पहले रूस कूदा और फिर बाद में अमेरिका। ईरान, लीबिया, इराक, अफगानिस्तान से हजारों की संख्या में शिया लड़ाके सीरिया की तरफ से लड़ने के लिए पहुंचे ताकि उनकी पवित्र जगह की रक्षा की जा सके। रूस अब तक असद की सरकार को बचाने के लिए खुलकर साथ देता आया है।
रूस ने वहां असद विरोधी आतंकी गुटों पर हवाई हमले शुरू किए हालांकि यह कहा जाता रहा है कि रूस पश्चिमी देशों के समर्थन वाले विद्रोही गुटों को निशाना बना रहा है। रूस की मदद से ही असद सरकार को विद्रोहियों के कब्जे वाले एलप्पो शहर का नियंत्रण मिला। ईरान ने अरबों डॉलर खर्च कर असद सरकार को बचाने में मदद की। अमेरिका शुरू से ही कहता रहा है कि सीरिया की बर्बादी के लिए असद जिम्मेदार हैं।
2014 में अमेरिका ने सीरिया पर कई हवाई हमले किए। सुन्नी बहुल सऊदी अरब भी ईरान के खिलाफ विद्रोहियों की मदद करता रहा। यह भी आरोप है कि सऊदी अरब ने असद सरकार को पलटने के लिए ही आईएस की भरपूर मदद की। रूस ने सीरिया में अपना सैन्य अड्डा भी बनाया हुआ है। बशर-अल-असद का साथ तुर्की और चीन भी दे रहे हैं। अमेरिका का रवैया काफी दोहरा है। वह इराक आैर सीरिया में आईएस का समूल नाश करने के लिए काम कर रहा है लेकिन असद विरोधी आईएस और अलकायदा को सीरिया में हर तरह से मदद दे रहा है।
महाशक्तियों के आतंकवाद सेे युद्ध के नाम पर वर्चस्व की लड़ाई को समझा जाना चाहिए। ट्रंप को लगता है कि असद की सरकार को खदेड़कर पूरे मध्य एशिया से रूस के प्रभुत्व के खत्म किया जा सकता है जबकि मास्को को लगता है कि बशर-अल-असद की सरकार के माध्यम से ही मध्यपूर्व में उसका प्रभुत्व बना हुआ है। महाशक्तियों के वर्चस्व की लड़ाई से पूरी दुनिया त्रस्त हो रही है। जहां तक असद सरकार पर अपने ही देश में विरोधियों पर कैमिकल हथियारों से हमले का सवाल है, इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि वहां कैमिकल हथियारों का इस्तेमाल हुआ है।
अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन का कहना है कि यह हमला कैमिकल हथियारों के जखीरे को नष्ट करने के लिए था लेकिन अंतर्राष्ट्रीय कानून ऐसे हमलों की अनुमति नहीं देता। दुनिया जानती है कि अमेरिका ने कैमिकल हथियारों के नाम पर इराक को तबाह करके रख दिया था। संयुक्त राष्ट्र भी अमेरिका का दुमछल्ला बना रहा था। सुरक्षा परिषद की आम सहमति वाली कार्यप्रणाली काे दरकिनार कर तीन देश सीिरया पर हमला करके जनहित में कार्य करने का दावा कर रहे हैं, इससे समस्या और गम्भीर हो गई है।
सात सालों से सीरिया पर हमलों में 13 देश शामिल रहे हैं यानी 13 देश सीरिया से उलझे हुए हैं। युद्ध से जर्जर हो चुके सीरिया की हालत काफी खौफनाक हो चुकी है। जो धार्मिक संत भारत में मन्दिर-मस्जिद विवाद के चलते भारत में सीरिया जैसे हालात पैदा होने की आशंका जाहिर कर रहे थे, उन्हें शायद सीरिया के हालात का अनुमान ही नहीं है। भारत ने अब तक इस संकट से दूरी बनाई हुई है।
अमेरिका से भले ही भारत के सम्बन्ध अब अच्छे हैं लेकिन भारत रूस की मैत्री को भी नजरंदाज नहीं कर सकता। अमेरिका और रूस को संयम से काम लेना चाहिए और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का पालन होना चाहिए ताकि सीरियाई लोगों के दुःखों का अंत हो। इस संकट को मानवता के दृष्टिकोण से हल किया जाना चाहिए। युद्ध के परिणाम बहुत भयानक होते हैं, इसलिए समूचे विश्व को इसे रोकना ही होगा।