सोमवार को महाशय जी का जन्मदिन था। सारे अखबारों में उनके
बेटे-पुत्रवधू द्वारा उनकी याद में पूरे पेज एडवरटाइज से भरे थे। महाशय जी की बहुत
याद आ रही थी। वरिष्ठ नागरिकों का काम करते हुए कोई भी दिन ऐसा नहीं होगा जब उनको
हम याद न करते हों। विशेषकर उनकी यह पंक्तियां हमेशा कानों में रहती हैं – किरण घर
विच इक बुड्ढा नहीं सम्भाला जाता, तू ऐने बुड्ढयां
दा कि करेंगी…फिर जैसे ही साल बीतते रहे हर बार पूछते तू थकी ता नहीं। यही नहीं
जो भी मैं काम करती वो सबसे पहले पहुंचते। चाहे मैडिकल कैम्प हो, बुजुर्गों को आर्थिक सहायता हो या कोई रंगारंग प्रोग्राम हो। मुझे
याद है 2008 में हमने ललित होटल में पहला फैशन शो
किया तो वो शो स्टोपर बने। शहंशाह गाने पर उनकी एंट्री हुई। क्या तालियां थीं, क्या उनका जोश था। मजेदार बात थी उन्होंने स्पेशल ड्रेस तैयार की थी
और बच्चों की तरह बार-बार मुझे फोन करके पूछते थे, किरण
कौन सा सूट पहनूं। वो हमेशा उत्साह बनाए रखते थे। उन्होंने तन-मन-धन से वरिष्ठ
नागरिकों की सेवा की। कभी भी कोई प्रोग्राम करते वो सबसे पहले स्पोंसर करते थे और
सबको अपनी किताबें बांटते थे। मुझे अपनी पहली पुस्तक आशीर्वाद का विमोचन याद है, जब भैरों सिंह शेखावत जी उपराष्ट्रपति थे। वो मुख्य अतिथि के तौर पर
विज्ञान भवन आए थे तो उन्हें देखकर झट से कहा था, अरे
मैंने सोचा आपकी तो कहीं फोटो टंगी होगी और उस पर हार चढ़ा होगा, आप तो इस उम्र
में भी बहुत एक्टिव हो। वाकई उनको देखकर कोई कह नहीं सकता था, वो खुद अपना विज्ञापन करते
थे, खुद डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टर थे। उन्होंने मुझे
एक बेटी से ज्यादा प्यार किया, इज्जत दी। मुझे
अपने पिता की कमी नहीं महसूस होने दी। यहां तक कि मेरे बेटे की आर्य समाज मंदिर
जी. के. में शादी हुई तो उन्होंने नाना की मिलनी की। जब उन्होंने देखा कि शादी एक
रुपए से और मिलनी भी एक रुपए से हुई तो उन्होंने मुझे और अश्विनी जी को बहुत
शाबाशी दी और कहा कि तुम सच्चे आर्य समाजी हो। अश्विनी जी के जाने पर एक पिता की
तरह रोये और सारी रस्में कीं। पल-पल मेरा हौंसला बढ़ाते रहे कि वह हमेशा तेरे साथ
हैं। अब तुम्हें दुगनी ताकत के साथ काम करना है। उन्होंने आर्य समाज के लिए बहुत
कार्य किए। बहुत फंक्शन करते थे। स्कूल के बच्चों को जोड़ते थे और बड़े-बड़े
कार्यक्रम कभी तालकटोरा स्टेडियम में तो कभी सिरीफोर्ट में करते तो मुझे जरूर
बुलाते और बुुलवाते थे। मैं हमेशा उन्हें कहती कि इतने ज्ञानियों के बीच मुझे
क्यों बोलने के लिए कहते हो। मुझे इतना कुछ नहीं आता, तो
झट से कहते ओ बाबा समझा कर तुम्हारी बहुत जरूरत है और जाते-जाते मुझे उनका पंचकूला
प्रोजैक्ट है उसमें मुझे ट्रस्टी बना गए। उन्हें अपना जन्मदिन मनाने का बहुत शौक
था वो हर साल अपना जन्मदिन मनाते थे और बड़े सतर्क रहते थे। मुझे याद है कि 94वां जन्मदिन था, सिरीफोर्ट में
उन्होंने मुझे अपने साथ वाली कुर्सी पर बिठाया हुआ था, लोग
फूलों के गुलदस्ते, शालें लेकर आ
रहे थे, वे सब मुझे पकड़ा रहे थे, खुश हो रहे थे। एक व्यक्ति सोने की चेन, फूलों
के हार के साथ लेकर आया तो उन्होंने मुझे हार और अपने गले में चेन डाल ली (अभी
उनके लिए चेन के कोई मायने नहीं थी)। मैं हंस पड़ी तो फिर बोले बाबा समझा कर। मुझे
मालूम था कि उन्होंने वह चेन किसी गरीब कन्या की शादी में दे देनी थी। कहने का भाव
है कि वह इस उम्र में भी बहुत अलर्ट थे। कोरोना के समय जब हमने आनलाइन प्रोग्राम
और कम्पीटिशन रखा तो उसमें भी उन्होंने हर एक्टिविटी में हिस्सा लिया। उनको उस समय
चलने में तकलीफ थी परन्तु फिर भी उन्होंने कुर्सी पर बैठे-बैठे डांस किया। हर समय
विनय आर्य जी उनके साथ रहते थे और उनकी बात सबको समझाते थे। क्योंकि उनकी बात समझ
नहीं आती थी। उनकी क्या-क्या बातें साझा करूं। बहुत सी बाते हैं जो इस उम्र के
लोगों को प्रेरित करती हैं। सबसे अच्छी बात है कि उनके बेटे और बहू उनकी याद में
बहुत से बुजुर्गों को एडोप्ट कर रहे हैं और उनकी तरह सेवा करने की कोशिश में रहते
हैं। मैं ऐसे बहू-बेटे को नमन करती हूं। परन्तु उनकी बहुत याद आती है। यही दिल कहता है कोई लौटा दे मेरे बीते हुए
दिन।