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चुनावी चौसर में ‘गुम’ मतदाता!

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यह उक्ति प्रसिद्ध है कि राजनीति में सब संभव है। यह भी राजनीतिज्ञ कहते दिखते हैं कि इसमें कोई भी स्थायी मित्र अथवा दुश्मन नहीं होता। यह अधूरा सच है क्योंकि लोकतान्त्रिक संसदीय चुनाव प्रणाली में हमेशा वैचारिक ध्रुवों के इर्द-गिर्द ही राजनैतिक एकीकरण की प्रक्रिया को अमली जामा पहनाया जाता है, किन्तु यह भी अर्ध सत्य है क्योंकि हमारे सामने ही ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें कल तक के कट्टर विरोधी आज घी-शक्कर हुए पड़े हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण माननीय नीतीश कुमार, राम विलास पासवान और आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री चन्द्रबाबू नायडू हैं। अतः निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजनीति संभावनाओं का खेल है।

लोकतन्त्र इस संभावनाओं के खेल की इजाजत इस प्रकार देता है कि हर सूरत में उसके जनादेश का आदर हो। इस सिलसिले में हमें भारत की उस चुनाव प्रणाली का जायजा लेना होगा जो उसी प्रत्याशी को विजयी घोषित करती है जिसका अपने प्रतिद्वन्दी प्रत्याशियों से एक वोट भी ज्यादा हो। आजादी के बाद हमने जिस बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली को अपनाया था उसमें इससे बेहतर और कोई व्यवस्था हो ही नहीं सकती थी क्योंकि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक व भौगोलिक विविधता को देखते हुए इसमें उपजे राजनैतिक विकल्पों को सीमित नहीं किया जा सकता था। यही वजह थी कि 1952 के भारत के पहले आम चुनावों में ही राजनैतिक दलों की संख्या सात सौ से ऊपर पहुंच गई थी। वस्तुतः यह हर क्षेत्र व वर्ग के लोगों की सत्ता में सीधी भागीदारी का रास्ता था जिसे लोकतन्त्र ने उन्हें मुहैया किया था।

हमारे संविधान निर्माताओं विशेषकर बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने राष्ट्रपति प्रणाली को अस्वीकार करते हुए साफ किया कि किसी एक व्यक्ति के भरोसे भारत का भाग्य छोड़ने का मतलब होगा आम जनता में अंग्रेजों द्वारा स्थापित सत्ता की वह प्रणाली काबिज रखना जिसमें सामान्य व्यक्ति अंग्रेज अफसरों को ही माई-बाप मानकर चलता था जबकि संसदीय प्रणाली उसे अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से सत्ता में सीधी भागीदार बनायेगी और इस प्रकार गठित सरकार में उसके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही शासन चलाते हुए जवाबदेह होंगे। यह जवाबदेही इस प्रकार होगी कि नगर पालिका से लेकर विधानसभा और संसद तक में बैठे हुए सभी जनप्रतिनिधि (पक्ष व विपक्ष समेत) सत्ता के विकेन्द्रीकरण को आकार देते हुए इसमें जनभागीदारी सुनिश्चित करेंगे परन्तु बाबा साहेब ने एक और महत्वपूर्ण ताकीद की थी कि संसदीय प्रणाली में भी व्यक्ति पूजा का चलन अन्ध भक्ति का स्वरूप ले सकता है जिसे हतोत्साहित करके ही हम संसदीय प्रणाली को मजबूत बना सकते हैं।

बाबा साहेब का कथन तब सत्य हुआ जब 1975 में सर्वाधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय प्रधानमन्त्री मानी जाने वाली स्व. इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लागू कर दी। इसकी वजह उन्होंने विपक्षी दलों द्वारा देश मंे अराजक माहौल पैदा करने को बताया था परन्तु यह अर्ध सत्य था क्योंकि स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्षी दल इकट्ठा होकर उन स्थापित लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का पालन करने के लिए इंदिरा जी पर जोर डाल रहे थे जिनका सम्बन्ध संवैधानिक नैतिकता से था। हमारा संविधान ऊपर से लादा हुआ कोई दस्तावेज नहीं है बल्कि स्वयं भारत के लोगों द्वारा अपने ऊपर लागू किया गया वह ‘फरमान’ है जिसे 1945-46 में जनता के चुने हुए नुमाइन्दों ने ही संविधान सभा में पहुंच कर तैयार किया था। इस सभा में उस समय के राजे-रजवाड़ों से लेकर गरीब-गुरबों के प्रतिनिधि तक थे। अतः इसकी अवहेलना का अधिकार सत्ता के शिखर तक पर बैठे किसी व्यक्ति को नहीं दिया गया और तय किया गया कि संसद को इस मामले में सर्वाधिकार प्राप्त रहेंगे जो आम जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था होगी।

अतः हमारा संविधान किसी भी सूरत में किसी भी स्तर पर अराजकता पैदा होने की सभी संभावनाओं को समाप्त करता है और एेलान करता है कि हर सूबे से लेकर देश का शासन चलाने वाली सरकार ‘सामूहिक’ दायित्व के कर्त्तव्य से बन्धी रहेगी। संविधान का यह प्रावधान ही राजनीतिक प्रशासकीय व्यवस्था को विस्तार देते हुए उसे आम जनता से जोड़ता है मगर लोकतन्त्र में इसका फैसला अन्ततः मतदाता ही करते हैं और व्यक्तिमूलक लोकशाही व पार्टी मूलक लोकशाही को सत्ता पर बैठाते हैं परन्तु इनमें से कोई भी दायरा सामूहिक नेतृत्व की जिम्मेदारी से अलग नहीं होता। अतः चुनावों के मौके पर हर विभाग के मन्त्री को अपने-अपने कार्य का लेखा-जोखा आम जनता के सामने रखना पड़ता है और बताना पड़ता है कि उसकी सदारत में देश के लोगों की स्थिति में कितना सुधार आया। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य व कृषि से लेकर रोजगार आदि तक के मामलों के सरपराह बने मन्त्रियों की पहली जिम्मेदारी बनती है कि वे मतदाताओं को बतायें कि उनके अधिकार क्षेत्र के विभागों मंे कितनी प्रगति हुई है।

लोकतन्त्र तभी मजबूत और ऊर्जावान बना रह सकता है कि जबकि सत्ता पर बैठे हुए लोगों से बेबाकी के साथ सवाल पूछे जायें और उनका सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त किया जाये। भारतीय सेना की किसी एक कार्रवाई के पीछे कुल सत्तर मन्त्रियों की फौज जयकारा लगाकर हरगिज यह नहीं कह सकती कि उन्होंने बड़ी मेहनत से अपना काम किया है मगर गजब का चुनावी माहौल बना हुआ है देश में कि हर रोज एक नया एजेंडा तैर रहा है। हैरत तो यह है कि इस एजेंडे में मतदाता का कहीं नामोनिशान नहीं है और वह हैरान है कि मेरे वोट से ही सरकार बनेगी और हजारों प्रत्याशियों का भाग्य बने-बिगड़ेगा, मगर मेरे ही भाग्य के बारे में कोई जुबां खोलने को तैयार नहीं है। सितम तो ये है कि हम उस मुद्दे पर उलझ रहे हैं जिसे लेकर कहीं कोई विवाद ही नहीं है। देशभक्ति या राष्ट्रभक्ति को हम नागरिकों की निजी पहचान के आधार पर खांचों में फिट कर रहे हैं और इस धुन में भूलते जा रहे हैं कि सीमा पर लड़ते फौजी और खेत में हल चलाते किसान की अजमत राष्ट्र के लिए एक समान ही है।

अगर किसान अन्न पैदा करना बन्द कर दे तो समूचा देश दुबला हो जायेगा और उद्योग धन्धे चौपट हो जायें तो युवा वर्ग तड़प उठेगा। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये हमें इसके हर भाग की पूरी तन्मयता से देखभाल करनी पड़ेगी। जाहिर है कि जब आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई होती है तो सरकारी अमला ही हरकत में आकर गुनहगारों की गर्दन दबोचता है और आम नागरिकों को निर्भय करता है। आन्तरिक सुरक्षा से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी करना सरकार का पहला दायित्व होता है जिसकी वजह से इन विभागों में योग्य से योग्यतम मन्त्री नियुक्त किये जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो नवम्बर 2008 में मुम्बई पर आतंकवादी हमला होने के बाद तत्कालीन गृहमन्त्री श्री शिवराज पाटिल की छुट्टी क्यों की जाती? मगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत जब यह कहते हैं कि बिना युद्ध हुए ही सीमा पर भारी संख्या में फौजी क्यों मर रहे हैं ? तो हमें इस पर विचार करना तो पड़ेगा और रक्षामन्त्री की तरफ देखना पड़ेगा।

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