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मनरेगा और शिक्षण जगत!

कोरोना और लाॅकडाऊन के चलते देश की अर्थव्यवस्था पर जो चौतरफा कुप्रभाव पड़ा है उसके असर से वर्तमान वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों में गांवों में रोजगार गारंटी कानून ‘मनरेगा’ के तहत 83 लाख नये जाब कार्ड बनाये गये

कोरोना और लाॅकडाऊन के चलते देश की अर्थव्यवस्था पर जो चौतरफा कुप्रभाव पड़ा है उसके असर से वर्तमान वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों में गांवों में रोजगार गारंटी कानून ‘मनरेगा’ के तहत 83 लाख नये जाब कार्ड बनाये गये। इस दौरान शहरों से गांवों की ओर मजदूरों का पलायन हुआ जहां पहुंच कर उन्हें इस कानून के तहत अपना पंजीकरण करा कर रोटी का जुगाड़ करने के लिए मजबूर होना पड़ा मगर शहरों से गांवों की ओर पलायन उन लोगों का भी हुआ जो पेशेवर या स्किल्ड कारीगर थे। इनमें कुछ तकनीकी व उच्च शिक्षा प्राप्त व्य​िक्त भी थे। इन सभी को मनरेगा के तहत मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ा। यह तस्वीर का मात्र एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि शहरों से गांवों को गये सभी लोगों का पंजीकरण मनरेगा के तहत हुआ हो , इसकी गारंटी नहीं की जा सकी क्योंकि इसके लिए आवश्यक आधार कार्ड आदि की औपचारिकताएं अधिसंख्य लोग पूरी नहीं कर पाये और अंत में उन्हें फिर से शहरों की तरफ लौटने को ही मजबूर होना पड़ा, जहां आर्थिक बदहाली की वजह से छोटे व मध्यम दर्जे के उद्योग लगभग बन्द हो चुके हैं। शहरों में एेसे लोगों की संख्या अचानक बढ़ गई है जो दैनिक मजदूरी करने को तैयार हो रहे हैं। इनमें पढ़े-लिखे लोगों की संख्या भी काफी है। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि भारत और इंडिया का फर्क इस तरह मौजूद है कि गांवों और कस्बों में पढे़-लिखे युवा अच्छी नौकरियों में जाने को योग्य नहीं हो पा रहे हैं। 
आज 5 सितम्बर शिक्षक दिवस भी है। अतः हमें इस मुद्दे पर गंभीरता के साथ मनन करना चाहिए कि जब एक तरफ सरकारी नौकरियों में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के चलते कमी आ रही है तो कार्पोरेट क्षेत्र को ग्रामीण क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय दायित्व निभाने को आगे आना चाहिए और शिक्षा के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने में अपना योगदान इस प्रकार करना चाहिए कि यह लाभ या मुनाफे का जरिया न बने। आज भारत में एक शिक्षक का वेतन किसी मकान की चिनाई करने वाले मिस्त्री के बराबर भी नहीं है। शिक्षण के क्षेत्र में मेधावी छात्रों का संकट एक एेसी समस्या है जिसका प्रभाव आने वाली पीढि़यों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। जिस देश में अच्छे शिक्षक ही नहीं होंगे उस देश की नई पीढ़ी को किस प्रकार सभ्य, सुसंस्कृत और संस्कारवान बनाया जा सकता है। अच्छे शिक्षक हमें तभी प्राप्त होंगे जब इस पेशे को आर्थिक रूप से हम सक्षम बनायेंगे मगर देशभर के निजी विद्यालयों में शिक्षकों का जिस प्रकार शोषण होता है उसकी मिसाल मिलना कठिन है। कस्बों और छोटे शहरों के कथित अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में प्राइमरी से लेकर हाई स्कूल तक के शिक्षकों को पांच से दस हजार रुपए के बीच वेतन दिया जाता है और उनसे आठ-आठ घंटे तक काम लिया जाता है।  इतने कम वेतन में काम करने को मजबूर किये गये शिक्षक फिर प्राइवेट ट्यूशन का रास्ता अपनाते हैं जिससे शिक्षा का बाजारीकरण का चक्र बहुत ही कटु रूप में पूर्ण होता है।
 समाजवादी विचारक स्व. डा. राममनोहर लोहिया का स्पष्ट मत था कि किसी भी शिक्षक का वेतन एक सरकारी गजेटेड अफसर के बराबर होना चाहिए और इनमें भी प्राइमरी शिक्षक को वरीयता दी जानी चाहिए क्योंकि वही किसी बालक की नींव तैयार करता है। प्राइमरी शिक्षक की भूमिका किसी नागरिक को तैयार करने में सबसे महत्वपूर्ण होती है।  छोटे से बालक में शिक्षा के बीज यही शिक्षक रोपता है। यूरोपीय देशों में प्राइमरी शिक्षक का सम्मान किसी विश्व विद्यालय के प्रोफेसर से कम नहीं किया जाता मगर भारत में उसे हिकारत से देखा जाता है।  इस नजरिये में बदलाव करते हुए हमें प्राइमरी शिक्षक को उतना ही सम्मान देना होगा जितना स्नेह हम अपने छोटे बालक से करते हैं। इसके साथ यह भी जरूरी है कि शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाया जाये जिससे पूरे देश में एक समान शिक्षण ढांचा तैयार हो और गांव के एक ठठेरे का मेधावी बालक इंजीनियर बन सके और छोटे दुकानदार का बेटा आईएएस अफसर बन सके। यह सब तभी होगा जब शहर के किसी बड़े अफसर के बेटे और चपरासी के बेटे को एक समान शिक्षा का अवसर प्राप्त होगा। नई शिक्षा नीति में शिक्षा के क्षेत्र में सकल उत्पाद का छह प्रतिशत से अधिक खर्च करने की बात कही गई है मगर इसे जमीन पर उतारने के लिए हमें बजटीय प्रावधानों में क्रान्तिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी परिवर्तन तभी कारगर होगा जब शिक्षक की स्थिति में बदलाव आयेगा।  शिक्षक की स्थिति में तभी बदलाव आयेगा जब उसकी आर्थिक हालत परिवर्तित होगी और सामाजिक सम्मान बढ़ेगा मगर निजीकरण और आर्थिक उदारीकरण ने शिक्षा का बाजारीकरण कर डाला है जिसकी वजह से मजदूर का बेटा मजदूर ही बन रहा है और अफसर का बेटा अफसर और शिक्षण के क्षेत्र में कोई और आकर्षक विकल्प नहीं बचा है। ये व्यावहारिक सच है, इसे हमें स्वीकार करना होगा।  हमने क्या कभी इस ओर ध्यान दिया है कि कोरोना प्रकोप व लाॅकडाऊन के चलते हमारे शिक्षकों की हालत क्या हुई? इस दौरान स्कूल बन्द होने का असर उन पर क्या पड़ा? हकीकत यह है कि शिक्षकों की हालत भी मजदूरों से बदतर ही रही। जब प्रख्यात लेखक सरदार पूर्ण सिंह ने अपनी प्रसिद्ध लेखमाला ‘श्रम की महत्ता’ की लिखी थी तो  उसमें स्पष्ट किया था कि शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम को समाज की सामन्ती प्रवृत्तियां एक ही तराजू में रख कर तोलती हैं। वे मजदूरी करने वाले को ‘बेलदार’ कहती हैं तो अध्यापक को ‘मास्टर’ कहती हैं  जबकि दोनों का ही काम नव निर्माण करना होता है। आजाद भारत में 73 साल बाद भी हम न तो बेलदार को प्रतिष्ठा दिला पाये और न मास्टर को। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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