राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 25 अगस्त, 2005 को पारित हुआ था। यह कानून हर वित्तीय वर्ष में इच्छुक ग्रामीण परिवार के किसी भी अकुशल वयस्क को सार्वजनिक कार्य वैधानिक न्यूनतम भत्ते पर करने के लिए 100 दिनों के रोजगार की कानूनी गारंटी देता है। इस योजना का उद्देश्य गांवों का विकास और ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को रोजगार प्रदान करना है। इस योजना के द्वारा गांवों को शहरों के अनुसार सुख सुविधा प्रदान करना है, जिससे ग्रामीणों का पलायन रुक सके। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) का 31 दिसम्बर, 2009 को नाम बदल कर महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना किया गया था।
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोबारा यूपीए की सरकार का सत्ता में आने के पीछे इस योजना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस योजना के सफल क्रियान्वयन से ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी। इस योजना के तहत गांवों में जल संरक्षण, सूखे की रोकथाम के लिए वृक्षारोपण, बाढ़ नियंत्रण, भूमि विकास, आवास निर्माण, लघु सिंचाई, बागवानी, ग्रामीण सम्पर्क मार्ग निर्माण और कोई भी ऐसा कार्य जिसे केन्द्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लेकर अधिसूचित करती है किए जाते हैं।
कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन के दौरान लाखों मजदूर बेरोजगार होकर गांवों में पहुंच चुके हैं। ऐसी स्थिति में नरेगा का महत्व काफी बढ़ गया है। मई माह में 2.19 करोड़ लोगों ने रोजगार गारंटी योजना का इस्तेमाल िकया है। यह आंकड़ा पिछले 8 वर्षों में सबसे ज्यादा है। मई माह में 41 करोड़ श्रम कार्य दिवस सृजित हुए जबकि पिछले वर्ष यह आंकड़ा 36.95 करोड़ कार्यदिवस का था। बुवाई के मौसम में श्रमिकों की मांग और बढ़ेगी।
वित्त मंत्री निर्मला सीता रमण ने लॉकडाउन के दौरान आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत मनरेगा के लिए 61 हजार करोड़ के बजट के अतिरिक्त 40 हजार करोड़ का प्रावधान किया। 20 करोड़ लोगों के जनधन खातों में भी पैसे पहुंचाए गए। मनरेगा के तहत मजदूर की दिहाड़ी 210 रुपए तय की गई।
लॉकडाउन के बाद ही देश में बेरोजगारी की दर बढ़ती चली गई। 29 मार्च को भारत में यह दर 23.81 फीसदी थी और अप्रैल के अंत में दक्षिण भारत के पुड्डुचेरी में यह दर 75.8 फीसदी हो गई। इसके बाद तमिलनाडु में 49.8, झारखंड में 47.1, बिहार में 46.6, हरियाणा में 43.2, कर्नाटक में 29.8, उत्तर प्रदेश में 21.5 और महाराष्ट्र में 20.9 फीसदी थी। कोरोना की सबसे बड़ी मार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और नौकरीपेशा लोगों पर पड़ी है। प्रवासी मजदूर पीड़ा झेलते हुए गांवों को लौट रहे हैं लेकिन उनके पास न तो रोजगार है और न ही बैंक खातों में इतना पैसा कि वे एक-दो महीने घर का खर्च चला सकें। रोजगार और भोजन एक चुनौती बन चुका है। कोरोना वायरस के फैलते संक्रमण के बीच देश खुल तो गया लेकिन अभी सम्भलने में वक्त लगेगा। प्रवासी मजदूरों की स्थिति पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में कहा है कि अगर गांव, कस्बे और राज्य आत्मनिर्भर होते तो ऐसी समस्या नहीं होती, जैसी अब देखने को मिल रही है। कोरोना संकट ने हमें सबसे बड़ी सीख यह दी है कि देश के गांवों काे आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए। बेहतर यही होगा कि केन्द्र आैर राज्य सरकारें गांवों के विकास को प्राथमिक एजैंडा बनाए, गांवों का विकास शहरी क्षेत्रों की तर्ज पर किया जाए। सभी काम मनरेगा के तहत कराए जाएं। मनरेगा के तहत वर्ष में दो सौ दिन का रोजगार सुनिश्चित किया जाए और मजदूर की दिहाड़ी भी तीन सौ रुपए की जानी चाहिए। मजदूर की दिहाड़ी इतनी हो कि राज्य सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन को स्पर्श तो कर सकें। मजदूरों की जेब में पैसा आएगा तो उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी। जब वह बाजार जाकर माल खरीदेगा तभी मांग बढ़ेगी। इससे उत्पादकों को भी बढ़ती मांग के अनुसार माल का उत्पादन करना पड़ेगा। इसके लिए उसे श्रम की जरूरत पड़ेगी, लोगों को काम मिलेगा।
इस समय मनरेगा योजना के तहत मजदूरों को बड़ी राहत दी जा सकती है। मजदूर अगर एक बार खड़ा हो गया तो फिर फैक्ट्रियां भी चलने लगेंगी। सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम आकार के उद्योगों (एमएसएमई) के लिए पैकेज दिया है। इससे उन्हें काफी फायदा मिलेगा लेकिन इनमें रोजगार बचाना बड़ी चुनौती है। अर्थव्यवस्था के आधार बने एमएसएमई को मजबूत बनाना जरूरी है, क्योंकि इनमें ही रोजगार के अवसर सृजित होंगे। अगर हम गांवों को आत्मनिर्भर बनाने में सफल हो गए तो महानगरों को आबादी के बढ़ते बोझ से बचाया जा सकेगा और मजदूरों के अपने घरों के पास ही काम मिलता रहेगा। बहुत सतर्कता से और रोजगार के नए मौकों को सृजित करने के लिए नई सोच के साथ काम करना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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