देश में लोग किसी अफवाह या अन्य कारणों से हिंसक भीड़ में तब्दील हो रहे हैं और लगातार मॉब लिंचिंग यानी पीट-पीट कर हत्याएं की जा रही हैं, उससे सवाल उठ रहा है कि लोगों के दिमाग में सिर्फ उत्तेजना और उन्माद ही क्यों हावी है। क्या लव जेहाद, गाैरक्षा और अन्य संवेदनशील मुद्दों के नाम पर लम्बे अर्से से जो वातावरण तैयार किया गया क्या उसी के चलते हिंसा के रूप में अभिव्यक्ति हो रही है। जुनैद, पहलू खान, मुन्ना अंसारी, मोहम्मद इखलाक और तबरेज जैसे लोगों को भीड़ ने अपना निशाना बनाया। ऐसी ही हिंसा लगातार बढ़ रही है।
हैरानी तब होती है जब हिंसा करने वाले लोग ही खुद को हिंसा से पीड़ित बताते हैं और इतिहास और कुतर्कों का सहारा लेकर अपने कुकृत्यों को न्यायोचित ठहराते हैं। किसी भी निर्दोष व्यक्ति की हत्या उन्हें जायज और सामान्य लगती है। इस तरह की हिंसा राजनीतिज्ञों के लिए फायदेमंद होती है क्योंकि इससे उनका वोेट लामबंद होता है। पुलिस प्रशासन और सियासी लोगों की सांठगांठ हमेशा से रही है लेकिन आम आदमी का उन्मादी हो जाना बहुत खतरनाक हो चुका है। उन्माद की मानसिकता वाली भीड़ पर नियंत्रण पाना बहुत मुश्किल होता है और इसका खामियाजा निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ता है।
झारखंड में कुछ महीने पहले तबरेज अंसारी नाम के युवक की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, जिसको लेकर बवाल मचा था। पहले तो आरोपियों पर पुलिस ने हत्या की धारा ही नहीं लगाई। जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट और जांच से सच्चाई सामने आई तो आरोिपयों पर दफा 302 लगाई गई। अब बच्चा चोरी की अफवाह में भीड़ ने 70 वर्ष के बुजुर्ग को इतना पीटा कि उसने दम तोड़ दिया। इन दिनों पूरे झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाहों ने जो पकड़ा हुआ है। बुजुर्ग का कसूर इतना था कि उसने खेल रहे कुछ बच्चों से बात की तो कुछ लोगों को लगा कि बुजुर्ग बच्चा चोर है। भीड़ इतनी उग्र हो गई कि बुजुर्ग की उम्र का भी उनको ध्यान नहीं रहा।
पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि कोई भी व्यक्ति अपने आप में कानून नहीं बन सकता और लोकतंत्र में इसकी इजाजत भी नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कर्ट ने भीड़ के हाथों हत्या को एक अलग अपराध की श्रेणी मेंं रखकर इसकी रोकथाम के लिए नया कानून बनाने की बात कही थी लेकिन अब तक ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। कभी गाैरक्षा के नाम पर कभी बच्चा चोरी ताे कभी चोरी, तो कभी धर्म के नाम पर हत्याएं हो रही हैं। अब सवाल उठता है कि कहां से आती है इतनी भीड़? एक रिसर्च के दौरान यह पाया गया कि यह एक सामाजिक मनोविज्ञान है, जिसके पहले लोगों को किसी विषय पर जबर्दस्ती भड़काया और उकसाया जाता है और फिर उसके गुस्से का इस्तेमाल किया जाता है।
आज इस तरह की मारपीट के सभी मुद्दों पर सबसे ज्यादा मदद किसी चीज से मिलती है तो वो है सोशल मीडिया। सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसकी मदद से चंद मिनटों में ही लोगों को एक जगह इकट्ठा किया जाता है और लोग मॉब लिंचिंग भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। भारत के इस डिजिटल होते दौर में जहां एक ओर फायदे बढ़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर समाज में हिंसा का उन्माद बढ़ रहा है। ऐसी घटनाएं लगभग हर राज्य में हो रही हैं। एक तरह से अराजकता की आंधी चल रही है। मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के गांव भावरखेड़ी में खुले में शौच कर रहे दो बच्चों को पीट-पीट कर मार डालने की घटना ने एक समाज के स्तर पर हमारे सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।
जिस परिवार के पास ठीक से रहने के लिए भी घर नहीं था, उसके बच्चे शौचालय के अभाव में बाहर चले गए तो उनको मिली मौत। बच्चों की हत्या करने वाले व्यक्ति के भीतर आखिर निष्ठुरता कहां से आई? हैरानी की बात तो यह है कि कुछ घटनाओं के आरोपियों का सार्वजनिक समारोहों में स्वागत भी किया जाता है। समाज में बढ़ती इस तरह की हिंसा लोकतांत्रिक और सभ्य राष्ट्र के लिए शर्मनाक है। ऐसा लगता है कि देश में कानून व्यवस्था का कोई अर्थ नहीं रह गया। हर आदमी भीतर से खौफजदा है कि राह चलते न जाने क्या विवाद हो जाए और लोग उसे पीट-पीट कर मार डालें। ऐसे अपराधियों से निपटने के लिए कानून तो काफी हैं लेकिन सब बेअसर साबित हो रहे हैं। अराजकता की आंधी को रोकने के लिए सख्त कानून बनाए जाने की जरूरत है।