चीन के सन्दर्भ में भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का 7 नवम्बर, 1950 को प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को लिखा वह खुला पत्र आज 2020 में भी उतना ही मौजू है जितना कि 70 साल पहले था। तिब्बत को हड़पने की चीन की कार्रवाई पर सरदार ने स्पष्ट लिखा था कि ‘चीन हमारे साथ शान्ति की बात करके हमें धोखे में रख रहा है और उसकी नीयत ठीक नहीं लगती है कोई भी समझदार आदमी इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि एंग्लो-अमेरिकी सामरिक गठजोड़ की रणनीति से चीन को किसी प्रकार का खतरा हो सकता है अतः चीन यदि ऐसा सोचता है तो हमारे ऊपर कतई विश्वास नहीं करता और हमें एंग्लो-अमेरिकी रणनीति या कूटनीति का मोहरा समझता है। चीन के साथ आपके सीधे सम्बन्ध होने के बावजूद यदि उसका रवैया ऐसा है तो इसका मतलब यही निकलता है कि बेशक हम उसे अपना मित्र समझें मगर वह हमें अपना मित्र नहीं मानता उसकी कम्युनिस्ट मानसिकता कि जो कोई भी उसके साथ नहीं है, उसका शत्रु है। हमारे लिए ऐसा सार्थक संकेत है जिसका हमें संज्ञान लेना चाहिए।
पिछले कुछ महीनों से सोवियत संघ के अलावा हम अकेले ऐसे देश हैं जो राष्ट्रसंघ में चीन के प्रवेश को लेकर व्यापक वकालत कर रहा है इसके बावजूद वह हमें शक की नजर से ही देखता है’ पत्र बहुत लम्बा है जिसमें सरदार की कूटनीति के बारे में स्पष्ट और पारदर्शी सोच उजागर होती है। चूंकि जवाहर लाल जी प्रधानमन्त्री होने के साथ ही विदेशमन्त्री भी थे अतः सरदार ने उन्हें ही खत लिख कर चेताना जरूरी समझा था। आज के सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि चीन समझ रहा है कि वह प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को भी उसी तरह भुलावे में रख सकता है जिस तरह उसने 1962 में पं. नेहरू को रख कर भारत पर आक्रमण कर दिया था।
मगर अब 21वीं सदी चल रही है और भारत बहुत बदल चुका है। इस समय एेसा प्रधानमन्त्री नई दिल्ली में बैठा हुआ है जो चीन के राष्ट्रपति शी-जिन-पिंग को अहमदाबाद में ‘झूला’ तो झुला सकता है मगर सीमा पर किसी तरह की ‘पेंगबाजी’ बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसलिए चीन लद्दाख की सीमा से लेकर उत्तराखंड व अरुणाचल को छूती नियन्त्रण रेखा पर यदि सैनिक हरकत दिखायेगा तो उसका उसी तरह जवाब दिया जायेगा। संयोग से श्री नरेन्द्र मोदी चाणक्य के उस सिद्धान्त को मानने वाले हैं जिसके अनुसार शासक के ‘एक हाथ में जल और दूसरे में अग्नि’ रहनी चाहिए। अतः चीन को अपने कदम नापतोल कर रखने होंगे. वैसे गौर से देखा जाये तो चीन कोरोना वायरस के चलते पूरी दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है जिसके चलते उसके आर्थिक मंसूबे ढह रहे हैं। बिना शक इस समय वह अमेरिका के बाद दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है और सामरिक सामर्थ्य में भी पीछे नहीं है परन्तु अपने पड़ौसी देश भारत के साथ वह ‘कूटनीति में सामरिक बल’ का प्रयोग नहीं कर सकत। ऐसा करना उसके लिए घातक होगा और दुनिया में उसे और ज्यादा अलग-थलग कर देगा। इस हकीकत से चीन भी नावाकिफ नहीं है इसीलिए वह केवल सीमा पर अपनी तरफ सैनिक जमावड़ा बढ़ा कर भय पैदा करना चाहता है क्योंकि वह जानता है कि भारत से सैनिक संघर्ष की स्थिति में पूरा दक्षिण एशिया व भारतीय उपमहाद्वीप और हिन्द महासागर शोलों में घिर जायेगा। चीन तीनों तरफ ही अमेरिका से स्पर्धा में घिरा हुआ है और भारत जैसा विशाल देश इन दोनों के बीच प्रतिरोधक (बफर) की स्थिति में है। इसी वजह से चीन भारत को कूटनीतिक रूप से अपने खेमे में खड़ा करने के उपक्रम में लगा हुआ है मगर नरेन्द्र मोदी ने कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं कि वह इस ‘शतरंज’ की बाजी को समझ ही न सकें अतः उन्होंने भी चीन को उसकी भाषा में ही समझाने की ‘बिसात’ बिछा दी है क्योंकि चीन कभी भी भारत से युद्ध करने का खतरा मोल नहीं ले सकता।
असल में चीन को तब भी गहरा झटका लगा था जब 2006 में बतौर रक्षामन्त्री पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी एक सप्ताह की चीन यात्रा पर गये थे। वहां जाकर उन्हें इस तथ्य पर आश्चर्य हुआ था कि चीन ने नियन्त्रण रेखा के अपने क्षेत्र में जबर्दस्त सड़क निर्माण और विकास कार्य किया था। सामरिक दृष्टि से यह बहुत ही संजीदा काम था। अतः प्रणवदा ने भारत आते ही घोषणा की थी कि भारत चीनी सीमा के अपने क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था के आधारभूत ढांचे को मजबूत करेगा और तभी से सभी सीमावर्ती इलाकों में सड़क निर्माण का कार्य जोरों से शुरू कर दिया गया था। जिसके तहत अरुणाचल प्रदेश से लेकर उत्तराखंड व लद्दाख में सीमावर्ती सड़कों का निर्माण हुआ। इसमें लद्दाख के क्षेत्र में 255 कि.मी. लम्बी वह सड़क बहुत महत्वपूर्ण है जिसका निर्माण पूर्व में चीन के अवैध हस्तक्षेपों के बावजूद पिछले साल पूरा हुआ। यह सड़क अक्साई चीन तक काराकोरम पास के निचले हिस्से तक जाती है और इसे ‘दरबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी’ मार्ग कहा जाता है। इसके माध्यम से चीन की बढ़त को थामा जा सकता है। चीन भलीभांति जानता है कि भारत का यह कार्य पूरी तरह वैध है इसीलिए वह अपनी दादागिरी हर उस मौके पर दिखाने से बाज नहीं आता जब कूटनीतिक संसार में वह पिछले पायदान पर खड़ा हो जाता है। मगर नरेन्द्र मोदी ने ‘शी-जिन-पिंग’ की आंखों में आंख डाल कर बीजिंग में ही स्प्ष्ट कर दिया था कि भारत दोस्ती का जवाब दोस्ती से देगा और दगाबाजी को बर्दाश्त नहीं करेगा। सम्बन्ध जो भी होंगे वे बराबरी के स्तर पर ही होंगे। लेकिन पिछले दिनों मोदी सरकार ने चीन की आर्थिक साम्राज्यवादी लिप्सा को देखते हुए ही जिस तरह विदेशी निवेश के नियमों को सख्त किया उससे चीन भीतर ही भीतर जल-भुन सा गया और उसके बाद उसने सीमा पर हरकतें शुरू कर दीं। लेकिन गीदड़ भभकियों से हिन्दोस्तान के जांबाज जवान न पहले कभी पीछे हटे हैं और न भविष्य में हटेंगे। भारत अपने राष्ट्रहितों को सर्वोपरि रख कर ही चीन को उसकी सीमा के भीतर रखने में कामयाब इसलिए है क्योंकि यह चीन की नीयत को भली भांति समझता है। नरेन्द्र मोदी की खूबी यही है कि वह राष्ट्रहित में कड़े से कड़ा फैसला लेने से कभी पीछे नहीं हटते। पाकिस्तान को अपने कन्धों पर बैठाये घूमने वाले चीन को सोचना चाहिए कि नेपाल को बरगलाने से भी उसकी दाल गलने वाली नहीं है क्योंकि नेपाली जनता भारत के महत्व को समझती है। चीन और नेपाल की कम्युनिस्ट सरकारें इन सम्बन्धों को खराब नहीं कर सकतीं। चीन को चाहिए कि वह सीमा विवाद हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए दोनों देशों के बीच बने ‘वार्ता तन्त्र’ को इस तरह सक्रिय करे जिससे दो पड़ौसी आपसी सहयोग के साथ विकास कर सकें।