रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के यूरोपीय दौरे पर सबकी नजरें लगी हुई हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक सामरिक, कूटनीतिक स्थिति पर प्रभाव डाला है और युद्ध के साइड इफैक्ट्स नजर आ रहे हैं। भारत की चिंता इसलिए भी बढ़ी है कि पश्चिमी देशों का ध्यान चीन से हटकर रूस पर केन्द्रित हो चुका है। भारत पर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने इस बात के लिए काफी दबाव डाला कि वह रूस से आर्थिक संबंधों में कटौती करे लेकिन भारत ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। यूरोपीय दौरे का मकसद यह भी है कि भारत यूरोप के साथ अपने संबंधों काे और मजबूत करे और बदली हुई दुनिया में ऐसी राजनीति की साझा सोच का निर्माण करे ताकि यूरोप भारत प्रशांत क्षेत्र में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए। यह भी सच है कि अब भारत को पहले से ज्यादा यूरोप की जरूरत पड़ेगी। चाहे वह रक्षात्मक क्षमताओं का निर्माण हो या अपने आर्थिक और तकनीकी बदलाव का मसला हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा का पहला चरण सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्ज से रूस-यूक्रेन युद्ध और अन्य वैश्विक मुद्दों पर बातचीत हुई और दोनों देशों में सस्टेनेबैल डवैल्पमैंट यानी सतत् विकास से जुड़े कई द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर भी हुए। इस समझौते के तहत भारत को क्लीन एनर्जी के इस्तेमाल काे बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2030 तक 10.5 अरब डालर की सहायता मिलेगी। दोनों देशों ने ऊर्जा एवं पर्यावरण दोनों क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने का ऐलान करते हुए हरित हाईड्रोजन टास्क फोर्स की स्थापना का भी फैसला किया है। जर्मनी में इस बात को लेकर बड़ी बहस चल रही थी कि क्या जून में होने वाली जी-7 की बैठक में भारत को बुलाया जाए या नहीं।
पिछले कुछ दिनों से यह कहा जा रहा था कि भारत के रूस समर्थक रुख को देखते हुए जर्मन भारत को जी-7 से बाहर करने का मन बना चुका है लेकिन जर्मन चालंसर ने भारत को जी-7 की बैठक में बुलाने का फैसला कर लिया है और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आमंत्रित भी किया है। इससे एक बार फिर यह साफ हो गया है कि पश्चिमी देशों द्वारा भारत को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। भारत-जर्मनी के संयुक्त बयान में साफतौर पर कहा है कि दोनां देश हिन्द प्रशांत क्षेत्र को स्वतंत्र मुक्त और समावेशी बनाए जाने पर बल देते हैं। साथ ही दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान को इसका केन्द्र मानते हैं। बयान में रूस के यूक्रेन पर हमले की कड़ी आलोचना की है। दोनों देशों ने दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक नियम आधारित अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के महत्व को रेखांकित किया है। विश्लेषकों का मानना है कि संयुक्त बयान के जरिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिन्द प्रशांत क्षेत्र में दादागिरी दिखा रहे चीन को कड़ा संदेश दे दिया है। चीन दक्षिण चीन सागर से लेकर हिन्द महासागर तक दादागिरी दिखा रहा है। चीन की सेना (पीएलए) न केवल लद्दाख में भारतीय इलाके पर आंखें गड़ाए हुए है बल्कि ताईवान को लगातार डरा रही है। चीन की इस दादागिरी के बीच ही जर्मनी की नौसेना लगातार हिन्द प्रशांत महासागर में अपने अभियान तेज कर रही है।
इसी वर्ष जनवरी में जर्मनी का युद्धपोत मुम्बई पहुंचा था। भारतीय नौसैनिक पोत भी अगले वर्ष जर्मनी जाएगा। संयुक्त बयान में यूक्रेन पर रूसी हमले की जर्मन आलोचना को जगह दिया जाना भी रूस को एक कड़ा संदेश है। भारत और रूस ने पिछले साल ही संबंधों के 70 वर्ष पूरे किए हैं। वर्ष 2000 से ही जर्मन भारत का कूटनीतिक साझीदार रहा है। यद्यपि जर्मनी और भारत इस बात पर सहमत हैं कि रूस को अलग-थलग नहीं किया जा सकता और बेहतर यही होगा कि उससे जुड़े रहकर इस बात पर जोर दिया जाए कि वह नियमों में रहकर काम करे।
पिछले एक दशक के दौरान जर्मनी भारत का भरोसेमंद और यूरोपीय देशों में सबसे करीबी देश बनकर उभरा है। इसका श्रेय भारत द्वारा जर्मनी के सभी राजनीतिक पक्षों से बराबर संवाद करने और जर्मनी में एंजेला मर्केल के लगातार चांसलर बने रहने को जाता है। दोनों देशों में विभिन्न परियोजनाओं पर बातचीत चलती रहती है और भारत ने जर्मनी को रक्षा उद्योग के साझीदार के तौर पर आकर्षित किया है। दोनों के संबंधों में अभी भी विस्तार की सम्भावनाएं हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है। इससे भारत-जर्मन सहयोग की भावना एक बार फिर मजबूत हुई है।