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मजबूत जमीन की ‘मोदी- नोमिक्स’

भारत की अर्थव्यवस्था में सुस्ती को लेकर जो लगातार चिन्ता व्यक्त की जा रही है वह पूरी तरह एकपक्षीय इसलिए है क्योंकि आबादी के उस आधे हिस्से को इस आकलन में पूरी तरह नजरन्दाज करने की भूल की जा रही है

भारत की अर्थव्यवस्था में सुस्ती को लेकर जो लगातार चिन्ता व्यक्त की जा रही है वह पूरी तरह एकपक्षीय इसलिए है क्योंकि आबादी के उस आधे हिस्से को इस आकलन में पूरी तरह नजरन्दाज करने की भूल की जा रही है जिसकी नियति अभावों में जीने की रही है। यह आश्चर्यजनक है कि मोदी सरकार के पिछले पांच साल के कार्यकाल के दौरान पिछड़े व गरीब समझे जाने वाले समाज की क्रय क्षमता में इजाफा हुआ है और जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में कहीं कोई वृद्धि दर्ज नहीं हुई है। 
सकल घरेलू उत्पादन की दर में वर्तमान वित्त वर्ष की पहली तिमाही में पांच प्रतिशत वृद्धि की दर दर्ज होने पर अर्थशास्त्री जो चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं वह संगठित क्षेत्र के उत्पादों से जुड़ी हुई है जिसमें सीमेंट, लोहा, आटोमोबाइल व टिकाऊ उपभोक्ता सामग्री आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं परन्तु इसमें हम मोबाइल फोन की बिक्री में आयी वृद्धि का संज्ञान नहीं ले रहे हैं जो कि समाज के गरीब तबके की आर्थिक क्षमता में वृद्धि होने का स्पष्ट प्रमाण है। 
खाद्य सामग्री के मूल्यों में स्थिरता और नरमी को भी हम नजरन्दाज करके मोदी सरकार की कटु आलोचना का मार्ग इस वजह से ढूंढ रहे हैं क्योंकि संगठित क्षेत्र में गिरावट दर्ज हो रही है और शेयर बाजार में कुछ नरमी आ रही है परन्तु साथ ही स्वर्ण धातु की कीमतों में लगातार इजाफा हो रहा है और यह शेयर बाजार के मजबूत होने के समानान्तर ही चला है। रुपये के मूल्य में भी डालर के मुकाबले नरमी दिखाई पड़ रही है जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार मंे कच्चे पेट्रोलियम तेल के मूल्यों में घट-बढ़ का दौर जारी है। 
विशुद्ध आर्थिक नजरिये से देखा जाये तो ये विरोधाभासी लक्षण हैं। शेयर बाजार केवल संगठित क्षेत्र का ही प्रतिनिधित्व करता है जिसमें बड़े विदेशी संस्थागत पूंजी निवेशकों से लेकर भारत के वे लोग ही निवेश करते हैं जिनके पास रोकड़ा की इफरात होती है। इसे हम सम्पन्न भारतीय समाज के रूप में भी देख सकते हैं परन्तु यह निवेश भारत की अर्थव्यवस्था के केवल पांच प्रतिशत संगठित क्षेत्र के कार्यकलापों में ही होता है। शेष 95 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र से लेकर कृषि व ग्रामीण क्षेत्र में फैला हुआ है जिसकी मजबूती या कमजोरी का प्रभाव सीधे आम या सामान्य व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है। 
पिछले पांच सालों में मोदी सरकार ने सबसे ज्यादा जोर इसी क्षेत्र पर देते हुए गरीब तबकों के वित्तीय पोषण के लिए दो दर्जन के लगभग योजनाएं शुरू की हैं जिनके जरिये इन व्यक्तियों के खाते में सीधा धन जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख हैं कन्या धन से लेकर स्कूली छात्रवृत्ति व किसान सम्मान योजना व आयुष्मान भारत योजना। इन योजनाओं के माध्यम से गरीब वर्ग के लोगों का सिलसिलेवार आर्थिक संपोषण हो रहा है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लगातार पूंजी संचालन जारी है जिसकी वजह से इसी स्तर पर लघु व्यवसायों व कुटीर उद्योगों में विविधता को बढ़ावा मिला है। इसका प्रमाण वह मुद्रा योजना है जिसके तहत पचास हजार रुपये से लेकर दस लाख रुपये तक के ऋणों का वितरण किया गया। 
श्रम मन्त्रालय द्वारा किये गये सर्वेक्षण में यह स्पष्ट हुआ कि 2015 से लेकर 2017 तक इस योजना के तहत एक करोड़ दस लाख लोगों को रोजगार मिला और 80 प्रतिशत लोगों ने ऋण लेकर अपने पहले से जमे व्यापार का विस्तार किया व 20 प्रतिशत ने नया व्यापार खोला।  इस मुद्रा योजना की लोकसभा चुनावों के दौरान विपक्षी पार्टियों ने जमकर आलोचना की थी। इससे साफ है कि ग्रामीण स्तर पर मुद्रा योजना के तहत स्थानीय स्तर पर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के उपभोक्ता उत्पादों को टक्कर देने की शुरूआत हुई। 
जाहिर है कि सरकार प्रतिवर्ष डेढ़ लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रोकड़ा गरीब वर्गों की इमदाद के लिए जो दे रही है वह सीधे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खप रहा है और समाज का गरीबी रेखा के निकट रहने वाला समाज इससे ऊपर उठने के लिए तैयार हो रहा है। इसका बैंकिंग वित्तीय पोषण से विशेष लेना-देना नहीं केवल ऋण सुविधा प्राप्त करने वालों को छोड़कर यह स्पष्ट शब्दों में इस नीति को जमीनी मजबूत करते हुए चलने की नीति कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब दूसरी तरफ संगठित क्षेत्र में आ रहे उत्पादन की गिरावट को अगर देखें तो इसका सीधा सम्बन्ध बैंकिंग क्षेत्र से जाकर जुड़ता है। 
अगस्त महीने में आटोमोबाइल कम्पनियों के वाहनों की बिक्री आधी हो जाने का मतलब बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों में कसाव है। बैंकों ने इस मोर्चे पर नियमों में कसावट की नीति अपनाई है, जबकि ब्याज दरों में कोई विशेष वृद्धि नहीं है। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था के मूल मानक कमजोर नहीं हैं बेशक बैंकों के बट्टे खाते की रकमों मंे इजाफा हुआ है परन्तु सरकार द्वारा इनकी पूंजी उपलब्धता बनाये रखने के लिए 75 हजार करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि की मदद देकर इनकी ऋण देने की क्षमता में इस राशि के मुकाबले दस गुना वृद्धि की है। 
साथ ही आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में निवेश में लगातार वृद्धि हो रही है तो मन्दी आने का खतरा कैसे पैदा हो सकता है ? दरअसल अगर पैरों को मजबूत करते हुए सिर ढांपने की तकनीक पर चला जाये तो इसे हम कमजोरी किस तरह कहेंगे? हाल ही में रिजर्व बैंक के आरक्षित धन भंडार से सरकार द्वारा ली जाने वाली एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये की धनराशि को अर्थव्यवस्था के डगमगाने का कारण बताया गया परन्तु यह धनराशि सरकार परोक्ष तरीके से देश के गरीब तबको के लिए ही देगी इसका लाभ कार्पोरेट जगत को नहीं बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को होगा।  
असल बात तो यह है कि इस गरीब वर्ग की कोई आर्थिक लाबी नहीं है जो सरकार से स्फूर्ति उपायों (स्टिमुलस पैकेज) की मांग कर सके। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी उनके लिए एकमात्र स्रोत नजर आते हैं। वास्तविकता यह है कि मोदी विरोध में उन बुनियादी हकीकतों को नजरन्दाज करने की आदत कुछ विशेषज्ञों की हो गई है जो जमीन पर आ रहे बदलाव से आंखें फेर लेने में ही अपनी विद्वता समझते हैं। पूंजीवादी या बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चलते इस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक अधिकारिता की नीति को लागू रखना निश्चित रूप से लीक से हटकर (आऊट आफ बाक्स) कदम उठाना माना जाना चाहिए। 
नोटबन्दी की आलोचना के कुछ व्यावहारिक कारण निःसन्देह रूप से हो सकते हैं परन्तु इससे प्राप्त हुए लाभों से आंख फेरना केवल पलायनवाद ही कहा जायेगा क्योंकि इस कदम से  समानान्तर काले धन की अर्थव्यवस्था पर अंकुश जैसा लग गया है। इस मामले में स्वर्गीय वित्त मन्त्री अरुण जेटली का वह कथन मैं याद दिलाना चाहूंगा जो उन्होंने नोटबन्दी की आलोचना के समय कहा था कि ‘काले धन के बूते पर प्राप्त की गई आठ प्रतिशत वृद्धि से बेहतर होगा नियम संचालित अर्थव्यवस्था में पांच प्रतिशत वृद्धि दर प्राप्त करना।’

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