लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चली चर्चा का उत्तर देते हुए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट कर दिया कि उनकी पार्टी भाजपा और विपक्षी पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रवाद में मूलभूत अन्तर 1947 में हुए देश के बंटवारे के बाद पैदा हुई परिस्थितियों को लेकर है। हालांकि राष्ट्रपति के अभिभाषण में नागरिकता कानून का उल्लेख तो किया गया था मगर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का कोई जिक्र नहीं था। अतः संशोधित नागरिकता कानून को लेकर प्रधानमन्त्री ने कांग्रेस के ही तत्कालीन नेताओं के विचारों को जिस प्रकार उद्धृत किया उससे नागरिकता कानून में संशोधन पूरी तरह जायज दिखाई पड़ने लगा और चन्द मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों के साथ किये जाने वाले भेदभाव और उन्हें प्रताड़ित किये जाने से उपजी समस्या का समाधान भी होता दिखा।
प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा 1950 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के साथ किये गये समझौते का भी प्रधानमन्त्री ने उल्लेख करके साफ किया कि नेहरू भी बंटवारे के बाद पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के हितों की चिन्ता करते थे, इसी वजह से उन्होंने यह समझौता किया था।
यह समझौता इतिहास में ‘नेहरू-लियाकत पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है जिसमें दोनों देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अपने-अपने देश में आयोग बनाने का प्रावधान भी किया गया था परन्तु यह भी ऐतिहासिक सच है कि इसी समझौते के विरोध में नेहरू मन्त्रिमंडल में तब शामिल जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने मन्त्रिमंडल से इस्तीफा दिया था जब वह नेहरू सरकार में हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि के रूप में शामिल किये गये थे और इस्तीफा देने के कुछ महीनों बाद ही उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी, लेकिन 72 वर्ष बाद डा. मुखर्जी की ही पार्टी यदि इस समझौते की उपयोगिता को स्वीकार करती है तो श्री मोदी का कद इससे और ऊंचा होता है तथा उन्हें वर्तमान भारत का बेजोड़ नेता साबित करता है। वस्तुतः श्री मोदी यह सिद्ध करना चाहते थे कि 72 सालों के बाद भी पाकिस्तान का नजरिया नहीं बदला है जिसका प्रमाण वहां घटी कुछ ऐसी ताजी घटनाएं हैं जिनमें वहां के अल्पसंख्यकों काे प्रताड़ित किया जाना जारी है जिनमें ननकाना साहिब की घटना महत्वपूर्ण है। अतः नागरिकता कानून में संशोधन समयोचित कदम माना जाना चाहिए।
हालांकि उसके विरोध में अपने कुछ ठोस तर्क भी हैं क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान 1971 में बदल कर बंगलादेश हो गया था। जहां सबसे पहला संविधान भारत की तरह ही धर्मनिरपेक्ष बना था। बाद में इसमें उस देश की राजनीतिक परिस्थितियों ने गड़बड़ की और इसका राजधर्म भी इस्लाम घोषित कर दिया गया। श्री मोदी ने देशवासियों को जो सन्देश देना चाहा है वह यही है कि जैसे भारत के दरवाजे पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के लिए बंटवारे के बाद खुले थे वैसे ही वर्तमान समय में भी खुले रहने चाहिएं और उनके साथ न्याय होना चाहिए, जो पूरी तरह जायज है।
श्री मोदी जी ने एक सवाल भी छोड़ा है कि पं. नेहरू ने 1950 में पाकिस्तान के साथ हुए समझौते में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग क्यों किया जबकि वह सभी लोगों का इस्तेमाल भी कर सकते थे। यह विचारणीय मुद्दा है। जाहिर है कि भारत का बंटवारा धार्मिक आधार पर ही किया गया था और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान का निर्माण किया गया था। अतः वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों के हकों की चिन्ता वाजिब थी और आज के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की भी चिन्ता यही है। फर्क तब भी यही था कि पाकिस्तान एक इस्लाम राजधर्म वाला देश 1947 में बन गया था और भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र था जो कि आज भी है।
हालांकि पाकिस्तान में पहला संविधान 1956 में ही लागू हुआ परन्तु यह धार्मिक देश ही था। इस लिहाज से पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं व अन्य अल्पसंख्यकों की चिन्ता भारत जैसे देश को होना स्वाभाविक थी। यह चिन्ता 1947 में भी थी और आज भी है, परन्तु भारत के संविधान की रुह से नागरिकता कानून को अभी तोला जाना बाकी है जिसकी समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है। क्योंकि भारत का संविधान धार्मिक पहचान के आधार पर नागरिकता प्रदान करना निषेध घोषित करता है। इसके साथ ही श्री मोदी ने यह तो सिद्ध कर दिया कि उनकी सरकार जिस तरह भारत में आधारभूत ढांचागत विकास कर रही है उसकी गति सर्वथा तीव्र है और वह पुरानी ‘कछुआ’ चाल को छोड़ कर ‘हिरण’ की कुलांचें भरती रफ्तार से परियोजनाएं पूरी करने में विश्वास करते हैं और लकीर का फकीर न बन कर नई लकीर खींच कर उसे पैमाना बना देना चाहते हैं।
अर्थव्यवस्था के मुद्दे को प्रधानमन्त्री ने संजीदगी के साथ छूने की कोशिश की और साफ कर दिया कि भारत में बढ़ते विदेशी निवेश से यह समझा जाना चाहिए कि हमारी अर्थव्यवस्था के आधारभूत मानक मजबूत हैं। बेशक विपक्ष इसकी अपने हिसाब से समीक्षा करेगा और सुस्त होती विकास दर का कारण बतायेगा। लोकतन्त्र आलोचना की खुली छूट देता है और सत्ता व विपक्ष का भेद इस तरह उजागर करता है कि हर संकट को समाप्त करने के लिए एक विकल्प सामने रहे। इसे श्री मोदी ने अपने हिसाब से व्यक्त किया और कहा कि वह हर सुझाव का स्वागत करते हैं और अर्थव्यवस्था पर की जा रही आलोचना को गलत अर्थों में नहीं लेते।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोकसभा में धन्यवाद प्रस्ताव बिना किसी संशोधन या विवाद के पारित हो गया जो हमारे संसदीय लोकतन्त्र की स्वस्थ परंपरा है। अब देखा जायेगा कि राज्यसभा में क्या नजारा रहता है जहां प्रधानमन्त्री को अपने भाषण के बाद स्पष्टीकरण भी देना पड़ सकता है।
-आदित्य नारायण चोपड़ा